
अहमदाबाद। उत्तराध्ययन सूत्र की एक महान अनुप्रेक्षा से पता चलता है कि सम्यक्त्व जिसमें आ जाता है उस व्यक्ति में पराक्रम आए बिना नहीं रहता है। पराक्रम के लिए हमें ये नहीं देखना है कि आदमी हष्ट-पुष्ट है या पतला है उस पराक्रमी में ताकत है कि नहीं। परम दिव्य प्रभा कहो तो चलेगा उस पराक्रमी में दिव्य शक्ति अपने आप पैदा हो जाती है। एक ओर से कहें तो चलेगा कि पराक्रम महान चमत्कारिक है। कई प्रकार के चमत्कार का अनुभव तो आप लोगों ने किया ही है। कितने ने देव का चमत्कार देखा है तो कितने को मंत्र के चमत्कार का अनुभव भी प्राप्त हुआ है, लेकिन ये पराक्रम कोई मंत्र नहीं है। जिस व्यक्ति में पराक्रम आ जाता है उसके मन में अपने आप ही शक्ति पैदा हो जाती है। पराक्रमी में शक्ति की पैदाश भी एक चमत्कार ही है।
अहमदाबाद में बिराजित प्रखर प्रवचनकार, संत मनीषि, गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयश सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते है संवेग एक तरह का पराक्रम है तो निर्वेद भी एक तरह का पराक्रम ही है। जब कभी विध्न आया तुरंत ही ताकात आ जाती है ये पराक्रम का कमाल है जापान के लोगों में ताकात कहां से आई पता नहीं जब हिरोशीमा एवं नागाशाकी पर बोम्ब फेंका गया था तब लोगों को इतनी भयंकर पीड़ा हुई तथा भय से वे कॉप भी गए थे मगर उनमें पराक्रम प्रगट हुआ और शक् ित अपने आप आ गई। कहते है संरक्षण एवं अस्तित्व का सवाल जब पैदा होता है तब कमजोर में भी ताकात आ जाती है। संवेग अथवा निर्वेद जिसमें आ जाता है। वो आत्मा भी वैरागी बन जाती है। कहते है जन्म मरण के दु:खों से छूटने के लिए जो शक्ति हममें पैदा होती है वह पराक्रम ही शक्ति पैदा कराती है गुजराती में एक कहावत है एक मरणीयों हजार ने मारे छे एक व्यक्ति यदि अपने बल से पराक्रम करें, सामने हजार व्यक्ति हो तो उसका भी मुकाबला कर पाता है। अनादिकाल से आत्मा में कर्मों और कपाय लगे है एक चिन्तक अथवा मुमुक्षु इसका बराबर ख्याल रखे तो संघर्ष करने जैसाहै। पूर्ण मन एवं पूर्व भावना के आत्मा की सुषुप्त शक्तिओं को वें यदि जागृत करे तो अवश्य सम्पूर्ण वातावरण ही बदल जाएगा। संवेग के बाद निर्वेद आता है पराक्रम जैसे ही आया धर्म श्रद्धा पैदा होती है। श्रद्धा के बगैर आत्मा में पराक्रम प्रकट नहीं होता है।धर्म के लिए अनेकानेक लोग विवेचन करके बताते है वत्थु सहावो धर्म वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। धर्म के ऊपर जिनको श्रद्धा हो जाती है उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। साढ़े बारह वर्ष तक भगवान महावीर के जीवन में भयंकर से भयंकर उपसर्ग आए उन्होंने सहन किया। आत्मा यदि धर्म को अच्छी तरह से समझ जाए और उस धर्म पर यदि वह श्रद्धा करे तो कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।आपने खूब धंधा भी किया, नौकरी भी की सेवा भी की लक्ष्मी नहीं मिलती एक कहावत है साहसे वसते लक्ष्मी साहस करने से ही लक्ष्मी तुम्हारे पास टिककर रहती है। आज तक जिस दिशा में कभी गए नहीं कभी उस दिशा का नायोनिशान सुना नहीं और कोई कहे आपको उस दिशा में जाना है यदि आपमें साहस रहा तो आप उस दिशा में जाकर जरूर सफल बनोंगे। ऐसा साहस धर्म श्रद्धा से ही आता है। मुमुक्षु को कोई कितने भी प्रश्न करते है वे भी धर्म पर श्रद्धा रखने से ही साहस करके संयम पथ पर आगे बड़े है।
शास्त्रकार महर्षि फरमाते है धर्म श्रद्धा से किस चीज की प्राप्ति होती है धर्म श्रद्धा से जीव खाता सुख की प्राप्ति करता है। शाता वेदनीय से सुख की प्राप्ति होती है शाता तो शरीर को अनुकूल संयोग पैदा कराता है।
सुख का भास जहां होता है वहां मोहनीय कर्म का उदय है। मोहनीय कर्म का उदय शरीर को अनुकूल हो उस ओर ले जाता है। जहां शाता मिले वहीं गति होती है। कहते है जिसे खाज रोग हुआ है उसे खुलली कर रहा था अचानक उसकी दृष्टि सामने बैठे एक वृद्ध पर टोपी पर लगा मेल उस ब्रश से साफ हुआ और वह टोपी उजली हो गई। भाई साहेब को विचार आया उस ब्रश से खुजली करूं तो शायद मेरा खाज चला जाएगा। इस उद्देय से उसने वृद्ध से ब्रश मांगा। वृद्ध ने कहां इस ब्रश को लेकर क्या करोंगे? तुम्हारे पास तो टोपी नहीं है। आग्रह करने पर वृद्ध ने उस भाई को अपना ब्रश दिया। भाई साहेब ब्रश से खुजली करने लगे। कुछ पल तक तो अच्छा लगा। दूसरी बार उस खाज पर ब्रश लगाया खून निकलने लगा। भाई साहेब चिल्लाने लगे तब वृद्ध ने कहां इस ब्रश से खुलजी नहीं खाई जाती।
शास्त्रकार महर्षि फरमाते है आपसे जो मोह पैदा हुआ, विषय सुख की वासना पैदा हुई वह दूसरा कुछ नहीं मन में पैदा हुआ खाज रोग है। धर्म के ऊपर जिसे श्रद्धा है उसका जीवन शाता एवं सुख से भरा है शाता एवं सुख के बीच में भी कितने को वैराग्य आता है। संवेग एवं निर्वेद को जिन्होंने समझा है ऐसे कितने व्यक्ति सुख साहिबी का जीवन जीते हुए भी वैरागी बनते है। शाता एवं सुख से विरक्त बने हुए सोचते है यदि मुजे अच्छी तरह से जीवन जीना है तो मैं किसी को दु:ख नहीं पहुंचाएंगे। सच्चे सुख का वैरागी श्रमण धर्म साधु धर्म की ओर आगे बढ़ता है। साधु जीवन में मान मिले मुस्कुराते नहीं अपमान मिले घबड़ाना नहीं। आत्मा में वैराग्य प्रकट हो उसके लिए प्रयत्न करना है। जितने महापुरूषों भूतकाल में हो गए उन सबके जीवन से यही सार लेना है धर्म पर श्रद्धा रखोंगे सम्यक्त्व आएगा। सम्यक्त्व आने के साथ ही पराक्रम आएगा बस इस पराक्रम से जीवन सफल बनाकर शीघ्र आत्मा से परमात्मा बनें।