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अजय कुमार
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव संग्राम जीतने के लिए कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा जिस राह पर आगे बढ़ रही हैं,उससे लगता है कि प्रियंका कांग्रेस को जीत की ओर अग्रसर करने की बजाए अंधे कुएं में ढकेलती जा रही हैं। कहने को तो प्रियंका काफी मेहनत कर रही हैं,लेकिन प्रियंका की यह मेहनत 'बोझा ढोनेÓ से अधिक नहीं है। प्रियंका वादों और आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में उलझ कर रह गई हैं,जबकि कोई भी चुनाव जीतने के लिए संगठन की ताकत और पार्टी के नेताओं का अपने नेता के  साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना बेहद जरूरी होता है,लेकिन यूपी विधान सभा चुनाव के प्रचार अभियान से अभी तक कांग्रेस के बड़े कद्दावर नेता दूरी बनाए हुए हैं।यहां तक की राहुल गांधी भी यूपी विधान सभा चुनाव को लेकर कोई रूचि नहीं दिखा रहे हैं। सोनिया गांधी भी नदारद हैं। सोनिया की गैर-मौजूदगी को यह कहकर विराम नहीं दिया जा सकता है कि उनका स्वास्थ्य खराब है। यदि स्वास्थ्य की समस्या है तो फिर सोनिया कांग्रेस अध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पद पर कैसे अपनी ताजपोशी करा सकती थीं। राजनीति के कुछ जानकारों का तो यहां तक कहना है कि प्रियंका को यूपी में अकेला छोड़कर 'बलि का बकराÓबना दिया गया है। प्रियंका के खिलाफ साजिश के पीछे पार्टी में कौन सी शक्तियां लगी हुई हैं,इसको लेकर भी अंदरखाने में कई नेताओं के नाम के साथ बहस छिड़ी हुई है। प्रियंका वाड्रा जिस तरह से गांधी परिवार को ओवर टेक करकेे आगे निकलने की कोशिश कर रही थीं,उसे यूपी चुनाव के नतीजे आने के बाद विराम मिल सकता है,यही बात पार्टी का एक धड़ा भी चाहता है,यह वह धड़ा है जो प्रियंका की 'तेजीÓ से खुश नहीं है।
    बहरहाल,कांग्रेस की प्रतिज्ञा यात्रा को हरी झंडी दिखाने के बाद प्रियंका ने जिस तरह से वायदों की झड़ी लगा दी,उससे तो यही लगता है कि प्रियंका को भी इस बात का आभास हो गया होगा कि वह सत्ता की रेस में नहीं हैं। वर्ना प्रियंका जनता से कभी भी बे-सिर पैर वाले वायदे नहीं करती,जिसे पूरा किया जाना करीब-करीब असंभव।आर्थिक मामलों के जानकार भी कह रहे हैं कि जैसे वायदे प्रियंका द्वारा किए जा रहे हैं,वैसे वायदे तो अमेरिका जैसे सम्पन्न देश भी पूरा नहीं कर सकते हैं। प्रियंका के वायदों को पूरा करने के लिए जितना धन चाहिए होगा,उतना तो कई देशों का सालान बजट होता होगा। कोई परिपक्त नेता तभी ऐसे वायदे कर सकता है,जब उसे अच्छी तरह से पता हो कि वह सत्ता की रेस में नहीं है।फिर प्रियंका जो सपने यूपी वालों को दिखा रही हैं,वह वो सपने वहां क्यों नहीं पूरा कर रही हैं,जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारे हैं।पंजाब,राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की बहुमत वाली सरकार है तो महाराष्ट्र और झारखंड में वह सरकार के गठबंधन का हिस्सा है,लेकिन कहीं भी ऐसे वायदों को लेकर कांग्रेस कुछ नहीं बोलती है,जैसे वायदे यूपी की जनता से किए जा रहे हैं। यदि कांग्रेस की अन्य राज्यों की सरकारें यह वायदे पूरे नहीं कर सकती हैं तो यूपी में कांग्रेस की सरकार बनने पर यहां प्रियंका के वायदे कैसे पूरे होंगे। बात वायदों की कि जाए तो बाराबंकी से शुरू हुई कांग्रेस की प्रतिज्ञा यात्रा के दौरान प्रियंका गांधी ने सात प्रतिज्ञाओं का भी ऐलान किया था। उन्होंने कहा था कि यदि यूपी में कांग्रेस सत्ता में आती है तो लड़कियों को स्मार्ट फोन और स्कूटी दी जाएगी, किसानों का पूरा कर्जा माफ  और आम जनता का कोरोना काल के दौरान का बिजली का बिल माफ कर दिया जाएगा, जबकि बाद के बिजली के बिल का आधा पैसा माफ किया जाएगा। वादों की झड़ी लगाते हुए प्रियंका गांधी ने यहां तक कहा है कि कोरोना के कारण आम आदमी के बिगड़े बजट को सुधारने के लिये हर परिवार को 25 हजार रूपये की आर्थिक मदद दी जाएगी। वहीं 20 लाख युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराया जायेगा। धान और गेहूं का समर्थन मूल्य 2500 रूपये क्विंटल किया जाएगा।प्रियंका गांधी वाड्रा का इतने से मन नहीं भरा तो उन्होंने सोमवार को एक ट्वीट में कहा,'कोरोना काल में और अभी प्रदेश में फैले बुखार में सरकारी उपेक्षा के चलते उप्र की स्वास्थ्य व्यवस्था की जर्जर हालत सबने देखी। सस्ते व अच्छे इलाज के लिए घोषणापत्र समिति की सहमति से यूपी कांग्रेस ने निर्णय लिया है कि सरकार बनने पर श्कोई भी हो बीमारी मुफ्त होगा 10 लाख तक इलाज सरकारी। इससे पूर्व प्रियंका ने लखनऊ में घोषणा की थी कि कांग्रेस द्वारा महिलाओं को 40 प्रतिशत टिकट दिया जाएगा। इतना ही नहीं प्रियंका ने यह भी कहा था कि उनकी पार्टी महिलाओं के लिए एक अलग घोषणा पत्र लाएगी। प्रियंका जिस अपरिपक्त तरीके से वोटरों को लुभाने के लिए वायदों का टोकरा खोले हुए हुए हैं,उसका शोर तो खूब सुनाई दे रहा है,लेकिन असर कहीं नहीं देखने को मिल रहा है। 
   सबसे चिंता की बात यह है कि एक तरफ प्रियंका प्रदेश में सरकार बनाने का सपना देख रही हैं तो दूसरी तरफ यूपी में कांग्रेस से तमाम बड़े नेता किनारा करते जा रहे हैं। संगठन के लिए बड़े नेताओं का पार्टी छोड़ते जाना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है।पार्टी छोडऩे वाले नेता इसका कारण संगठन नेतृत्व से नाराजगी बता रहे हैं, पर अंदरखाने कहीं न कहीं चुनाव के लिहाज से सुरक्षित ठौर की तलाश उनके बाहर जाने की मूल वजह मानी जा रही है।पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद, कांग्रेस को ठेंगा दिखाकर  योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री बन चुके हैं। वहीं, चार पीढिय़ों के कांग्रेस में सेवा करने के बाद मडि़हान (मिर्जापुर) से विधायक रहे ललितेश पति त्रिपाठी का कांग्रेस छोडऩा पुरानी पीढ़ी के कांग्रेसियों में चर्चा का सबब बना हुआ है। 
चार पीढिय़ों से उनका परिवार कांग्रेस से न सिर्फ जुड़ा रहा, बल्कि सरकार और संगठन में अहम ओहदों पर भी रहा। उनके परबाबा स्वर्गीय कमला पति त्रिपाठी जहां प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, वहीं दादा लोकपति त्रिपाठी प्रदेश सरकार में मंत्री, दादी चंदा त्रिपाठी सांसद और पिता राजेश पति त्रिपाठी एमएलसी रहे।
    इसी तरह से राठ (हमीरपुर) से विधायक रहे गयादीन अनुरागी भी कांग्रेस को छोड़ सपा का दामन थाम चुके हैं। वह कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष भी थे। कोरी (दलित) जाति के अनुरागी ने पार्टी छोड़ते वक्त पार्टी नेतृत्व की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए कहा था कि कांग्रेस में वह असहज महसूस कर रहे थे। हाल में ही चार बार के विधायक और सांसद रहे हरेंद्र मलिक और उनके बेटे व पूर्व विधायक पंकज मलिक ने भी कांग्रेस को अलविदा कह दिया है। शामली के रहने वाले यह पिता-पुत्र कांग्रेस के जाट चेहरों के रूप में पहचाने जाते थे। पंकज मलिक कहते हैं, 'पिताजी को कुछ नाराजगी थी। उन्होंने पार्टी छोडऩे का मन बनाया, तो मैंने भी कार्यकर्ताओं की इच्छा के अनुसार वही निर्णय लिया।Ó नाराजगी के मुद्दे पर बात किए जाने पर पंकज ने कहा कि शीघ्र ही इस बारे में खुलासा करेंगे।अकबरपुर (कानपुर देहात) से सांसद रहे राजाराम पाल भी कांग्रेस से किनारा कर सपा में शामिल हो चुके हैं। खास बात यह है कि वह हाल तक प्रियंका गांधी के सलाहकार समिति के सदस्य रहे थे। इसी तरह से वर्ष 2007-2012 के बीच कालपी (जालौन) से विधायक रहे विनोद चंद्र चतुर्वेदी ने भी पार्टी से इस्तीफा दे दिया है। उन्नाव से पूर्व सांसद अनु टंडन, अलीगढ़ से चार बार के विधायक और सासंद भी रहे ब्रजेंद्र सिंह भी सपा में जा चुके हैं। प्रतापगढ़ की पूर्व सांसद रत्ना सिंह, अमेठी के पूर्व सांसद संजय सिंह व उनकी पत्नी अमिता सिंह को भी जोड़ें तो कांग्रेस छोडऩे वालों की यह फेहरिस्त और लंबी हो जाएगी। 
   दुख की बात यह है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व और गांधी परिवार नेताओं के पार्टी छोडऩे को लेकर बिल्कुल भी गंभीर नजर नहीं आ रहा है,जबकि एक समय कांग्रेस में किसी नेता के पार्टी छोडऩे की सुगबुगाहट पर उनको मनाने के लिए नेताओं की भीड़ लग जाती थी। गांधी परिवार की अपरिपक्ता के चलते ही पंजाब और राजस्थान कांग्रेस में भी सिर फुटव्वल मचा हुआ है। कांग्रेस के जी-23 के नेता वैसे ही नाराज चल रहे हैं।