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दो टीके लगने के बावजूद मास्क और उचित सावधानी के साथ उत्सव मनाना चाहिए. साथ ही, कुछ और बातों का भी ध्यान रखना जरूरी है। आखिर उत्सवों का दुश्मन केवल कोरोना वायरस ही नहीं है। उपभोक्तावादी संस्कृति, जाति-वर्ग-लिंग भेद से ग्रस्त समाज और बाजारू गणित ने पर्व-त्योहार के मर्म को खासा नुकसान पहुंचाया है।
बच्चों को पटाखे के खिलाफ प्रवचन सुना देने भर से हम उत्सवों के मर्म को सुनिश्चित कैसे कर पायेंगे या महज सौहार्द के संदेश सुनाकर हम त्योहारों को संबंध मजबूत करने का अवसर कैसे बना पायेंगे? वैसे वर्ष भर हर्षोल्लास के अवसर आते रहते हैं। लेकिन अक्तूबर का महीना आते ही जैसे त्योहारों का तांता लग जाता है। दशहरे के पहले सावन में अनेक शुभ उपलक्ष्य आ चुके होते हैं। भादो बीतते ही वार्षिक कैलेंडर बच्चों के जीवन का एक रोचक हिस्सा बन जाता है।
काम से छुट्टी की प्रतीक्षा करनेवाले भी आश्विन-कार्तिक का बेसब्री से इंतजार करते हैं। त्योहारों के बहाने बहुत से रुके हुए कामकाज पूरे हो जाते हैं। हंसी-खुशी के आलम में उत्सवों की आड़ में हम उनके मर्म को भूल जाते हैं। यह विडंबना है क्योंकि हिंदुस्तान उत्सवों का ही तो समाज है। मन की दीवारों को फांद कर एक-दूसरे को गले लगाना हर उत्सव का मर्म है। उत्सव हमें सांप्रदायिक भेदभाव भूलने के लिए उत्साहित करते हैं।
दीवाली का दीया तो अमीर-गरीब, अगड़ी जाति-पिछड़ी जाति, स्त्री-पुरुष, छोटे-बड़े सबको एक ही प्रकाश देगा। दशहरे में सबके लिए अच्छाई की बुराई पर जीत होगी। ईद का चांद हिंदू-मुसलमान सबको अच्छे दिनों की उम्मीद देगा। मुहर्रम में ताजिया के जुलूस में हिंदू भी शरीक होते हैं। और तो और, क्रिसमस का दिन तो लगभग सबका बड़ा दिन हो गया है। यही तो मर्म है उत्सवों का।
मर्म के लापता होते ही उत्सवों के सहयोगी पात्र सीधे मुख्य पात्र बन जाते हैं। उत्सवों पर बाजार और उसका लेखा-जोखा ही हावी हो जाता है। क्या हम अपने सामाजिक-सांस्कृतिक उत्सवों को बाजार और दाव-पेच भरी राजनीति से अलग नहीं कर सकते? क्या हम उत्सवों के मर्म का आनंद लेते हुए सरल, सहज, सुसंस्कृत और सामाजिक नहीं हो सकते? उत्सवों का एक विस्तृत समाजशास्त्र है, जो इन्हीं प्रश्नों की ओर संकेत करता है और हमें सिखाता है कि अगर हमने अपने त्योहारों की परवाह नहीं की, तो हमारा भारी नुकसान होगा। जैसे कोरोना वायरस से सामाजिक दूरियां अनिवार्य हो गयीं, वैसे ही त्योहारों के मानवीय गुणों के ह्रास से समाज व संस्कृति को खतरा है। समाज वैज्ञानिकों ने पर्व-त्योहार के गूढ़ महत्व पर चिंतन-मनन किया है। फ्रांसीसी समाजशास्त्री इमाइल दुर्खीम ने आदिम समाज में भी त्योहारों के आधार पर रिश्ते-नाते और सामाजिक संबंधों के लगातार पुष्टि की बात समझायी थी। त्योहारों में सामूहिक प्रतीकों के माध्यम से हम बार-बार एक-दूसरे को अहसास दिलाते हैं कि हम आपस में जुड़े हुए हैं। संभवत: यही वजह है कि दूरदृष्टि रखनेवाले सामाजिक और राजनीतिक दिग्दर्शकों ने आधुनिक युग में भी महत्वपूर्ण घोषणाओं को उत्सव का रूप दिया।

आजादी की घोषणा करते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने आजादी के त्योहार की ही घोषणा की थी। तब से अब तक लगभग हर बड़ी सरकारी घोषणा उत्सव की घोषणा जैसी सुनायी पड़ती रही है। उत्सवों की तिथि के अनुसार ही अनेक ब्रांड अपने उत्पाद बाजार में लाते हैं। ऑनलाइन व्यापारी भी शुभ मौके की ताक में रहते हैं। टेलीविजन और अखबारों में चटपटे विज्ञापन बताते हैं कि त्योहार पर क्या नये ऑफर दिये जा रहे हैं। बॉलीवुड में तो एक स्थापित परंपरा रही है त्योहारों को ध्यान में रखकर नयी फिल्में रिलीज करने की। ऐसे में उत्सवों के मतलब जरूरत से ज्यादा जटिल हो जाते हैं।

मानवशास्त्री क्लिफोर्ड गीर्ट्ज ने इसी तरफ इशारा किया था, जब वे इंडोनेशिया के बाली में एक सांस्कृतिक उत्सव को समझने की कोशिश कर रहे थे, जिसमें स्थानीय लोग मुर्गा लड़ाते थे। इस उत्सव में स्थानीय समाज, संस्कृति और राजनीति ऐसे सने हुए थे, जैसे आटे में नमक। तभी तो दक्षिण एशिया के अनेक हिस्से में उत्सवों को सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर से ज्यादा राजनीतिक व राष्ट्रीय पहचान के प्रतीक के रूप में देखा जाता है।

इस जद्दोजहद में पहचान की दीवारों से परे मनुष्य की मनुजता और उत्सवों की मार्मिकता गौण हो जाते हैं। हम यही तय करने में लगे रहते हैं कि कौन सा उत्सव किसका है। सावन में महादेव का ध्यान करते हुए सोमवार का व्रत महिलाओं का हो जाता है, छठ पूजा केवल बिहार और उत्तर प्रदेश के हिंदुओं का पर्व बन जाता है।

ओणम, पोंगल आदि के बारे में तो उत्तर भारतीय सामान्य ज्ञान के रूप में ही जानते हैं। ऐसी लंबी सूची हमारी विभाजित मानसिकता की पोल खोल सकती है। सामाजिक पहचान की जेल में बंद हम उत्सवों का वो मर्म नहीं जान पाते, जो हमें वेदों के समय से ही इतना उदार बनने को प्रेरित करता था कि हम इतराते हुए कहते थे- वसुधैव कुटुंबकम।

उत्सव के मर्म और बाजार के गणित का शोर ऐसे घुल-मिल गया कि संस्कृति को राजनीति से अलग करना कठिन हो गया है। उत्सवों के बहाने से हमारी सामाजिकता और संस्कृति अनेक स्वार्थों के शिकार हो जाते हैं। इतना मुश्किल तो नहीं है सभ्य समाज के लिए उत्सवों के मर्म की तरफ लौटना?