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ललित गर्ग
भारतभूमि का सबसे बड़ा पर्व है दीपावली। गत दो वर्षों में हमने कोरोना महामारी के कारण यह पर्व यथोचित तरीके से नहीं मना पाये, इसलिये इस वर्ष का दीपावली पर्व अनेक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस वर्ष दीपावली के महानायक श्रीराम का मन्दिर अयोध्या में बनने लगा है, इसलिये भी महत्वपूर्ण है। अयोध्या में तो दीपावली के अनूठे रंग दिखेंगे ही, देश में भी उत्साह एवं उत्सव की अनेक कडिय़ां जुड़ेंगी, जिनमें इंसानी मेलजोल के नये आयाम होंगे, तम को, दरिद्रता को, महंगाई को, अराष्ट्रीयता को, महामारी को दूर करने की मिलीजुली कोशिश होगी। तम को जीवन के हर होने से बुहारा जायेगा। जैसे लक्ष्मी पूजन कर ऐश्वर्य की कामना की जायेगी, वैसे ही मनो-मालिन्य एवं कलुषताओं को मिटाने के प्रयत्न होंगे। दीपावली आत्मा को मांजने एवं उसे उजला करने का उत्सव है। अमावस की रात को हर दीप रोशनी की लहर बनाता है, उजाले की नदी में अपना योगदान देता है। दीपोत्सव के लिये हर अंजुरी महत्वपूर्ण है। हमें चीन-निर्मित कृत्रिम प्रकाश-बल्बों की बजाय एक बाती, अंजुरी-भर तेल और राह-भर प्रकाश करना है। दीपक जिस ज्वलंत शिखा को उठाये जागृत होते हैं, वह महज समृद्धि की कामना या विजयोत्सव का ही प्रतीक नहीं है, बल्कि वह भारतीय संस्कृति एवं उसकी जीवंतता का उद्घोष है। यह एक कालजयी ऐलान है विजय का, स्व-पहचान का, स्व-संस्कृति का एवं अपनी जड़ों से जुडऩे का, आत्म-साक्षात्कार का।
आत्मा का स्वभाव है उत्सव। प्राचीन काल में साधु-संत हर उत्सव में पवित्रता का समावेश कर देते थे ताकि विभिन्न क्रिया-कलापों की भाग-दौड़ में हम अपनी एकाग्रता या फोकस न खो दें। रीति-रिवाज एवं धार्मिक अनुष्ठान (पूजा-पाठ) ईश्वर के प्रति कृतज्ञता या आभार का प्रतीक ही तो हैं। ये हमारे उत्सव में गहराई लाते हैं। दीपावली में परंपरा है कि हमने जितनी भी धन-संपदा कमाई है उसे अपने सामने रख कर प्रचुरता (तृप्ति) का अनुभव करें। जब हम अभाव का अनुभव करते हैं तो अभाव बढ़ता है, परन्तु जब हम अपना ध्यान प्रचुरता पर रखते हैं तो प्रचुरता बढ़ती है। चाणक्य ने अर्थशास्त्र में कहा है, धर्मस्य मूलं अर्थ: अर्थात सम्पन्नता धर्म का आधार होती है। जिन लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है, उनके लिए दीपावली वर्ष में केवल एक बार आती है, परन्तु ज्ञानियों के लिए हर दिन और हर क्षण दीपावली है। हर जगह ज्ञान की आवश्यकता होती है। यहाँ तक कि यदि हमारे परिवार का एक भी सदस्य दु:ख के तिमिर में डूबा हो तो हम प्रसन्न नहीं रह सकते। हमें अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य के जीवन में, और फिर इसके आगे समाज के हर सदस्य के जीवन में, और फिर इस पृथ्वी के हर व्यक्ति के जीवन में, ज्ञान का प्रकाश फैलाने की आवश्यकता है। जब सच्चे ज्ञान का उदय होता है, तो उत्सव को और भी बल मिलता है।
यजुर्वेद में कहा गया है-तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु- हमारे इस मन से सद् इच्छा प्रकट हो। वह दीपावली ज्ञान के साथ मनाएँ और मानवता की सेवा करने का संकल्प लें। अपने हृदय में प्रेम का एवं घर में प्रचुरता-तृप्ति का दीपक जलाएं। इसी प्रकार दूसरों की सेवा के लिए करुणा का एवं अज्ञानता को दूर करने के लिए ज्ञान का और ईश्वर द्वारा हमें प्रदत्त उस प्रचुरता के लिए कृतज्ञता का दीपक जलाएं। यह बात सच है कि मनुष्य का रूझान हमेशा प्रकाश की ओर रहा है। अंधकार को उसने कभी न चाहा न कभी माँगा। 'तमसो मा ज्योतिगर्मयÓ भक्त की अंतर भावना अथवा प्रार्थना का यह स्वर भी इसका पुष्ट प्रमाण है। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल इस प्रशस्त कामना की पूर्णता हेतु मनुष्य ने खोज शुरू की। उसने सोचा कि वह कौन-सा दीप है जो मंजिल तक जाने वाले पथ को आलोकित कर सकता है। अंधकार से घिरा हुआ आदमी दिशाहीन होकर चाहे जितनी गति करें, सार्थक नहीं हुआ करती। आचरण से पहले ज्ञान को, चारित्र पालन से पूर्व सम्यक्त्व को आवश्यक माना है। ज्ञान जीवन में प्रकाश करने वाला होता है। शास्त्र में भी कहा गया-'नाणं पयासयरंÓ अर्थात ज्ञान प्रकाशकर है। इसलिये सूनी राह पर, अकेले द्वार पर, कुएं की तन्हा मेड़ पर और उजाड़ तक में दीप रखने चाहिए। कोई भूले-भटके भी कहीं किसी राह पर निकले, तो उसे अंधेरा न मिले। इस रात हरेक के लिये उजाला जुटा दे, ताकि कोई भेदभाव न रहे, कोई ऊंच-नीच न रहे, अमीरी-गरीबी का भेद मिट जाये।
हमारे भीतर अज्ञान का तमस छाया हुआ है। वह ज्ञान के प्रकाश से ही मिट सकता है। ज्ञान दुनिया का सबसे बड़ा प्रकाश दीप है। जब ज्ञान का दीप जलता है तब भीतर और बाहर दोनों आलोकित हो जाते हैं। अंधकार का साम्राज्य स्वत: समाप्त हो जाता है। ज्ञान के प्रकाश की आवश्यकता केवल भीतर के अंधकार मोह-मूर्च्छा को मिटाने के लिए ही नहीं, अपितु लोभ और आसक्ति के परिणामस्वरूप खड़ी हुई पर्यावरण प्रदूषण, राजनीतिक प्रदूषण, भ्रटाचार और अनैतिकता जैसी बाहरी समस्याओं को सुलझाने के लिए भी जरूरी है। आज विज्ञान का युग है। सारी मानवता विनाश के कगार पर खड़ी है। मनुष्य के सामने अस्तित्व और अनस्तित्व का प्रश्न बना हुआ है। विश्वभर मे हत्या, लूटपाट, दिखावा, छल-फरेब, बेईमानी, युद्ध एवं आतंकवाद का प्रसार है। मानव-जाति अंधकार में घिरती जा रही है। विवेकी विद्वान उसे बचाने के प्रयास में लगे भी हैं। सत्य, दया, क्षमा, कृपा, परोपकार आदि के भावों का मूल्य पहचाना जा रहा है। ऐसी स्थिति में उपनिषद का 'तमसो मा ज्योतिर्गमयÓ वाक्य उनका मार्गदर्शन करने वाला महावाक्य है। उस ज्योति की गंभीरता सामान्य ज्योति से बढ़कर ब्रह्म तक पहुँचनी चाहिए। उस ब्रह्म से ही सारे प्राणी पैदा होते हैं, उसमें ही रहते हैं और मरने के बाद उसमें ही प्रवेश कर जाते हैं। उस दिव्य ज्योति की अभिवंदना सचमुच समय से पहले, समय के साथ जीने की तैयारी का दूसरा नाम है।
जीवन के हृस और विकास के संवादी सूत्र हैं- अंधकार और प्रकाश। अंधकार स्वभाव नहीं, विभाव है। वह प्रतीक है हमारी वैयक्तिक दुर्बलताओं का, अपाहिज सपनों और संकल्पों का। निराश, निष्क्रिय, निरुद्देश्य जीवन शैली का। स्वीकृत अर्थशून्य सोच का। जीवन मूल्यों के प्रति टूटती निष्ठा का। विधायक चिन्तन, कर्म और आचरण के अभाव का। अब तक उजालों ने ही मनुष्य को अंधेरों से मुक्ति दी है, इन्हीं उजालों के बल पर उसने ज्ञान को अनुभूत किया अर्थात सिद्धांत को व्यावहारिक जीवन में उतारा। यही कारण है कि उसका वजूद आजतक नहीं मिटा। उसकी दृष्टि में गुण कोरा ज्ञान नहीं है, गुण कोरा आचरण नहीं है, दोनों का समन्वय है। जिसकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता, वही समाज में आदर के योग्य बनता है।
हम उजालों की वास्तविक पहचान करें, अपने आप को टटोलें, अपने भीतर के काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि कषायों को दूर करें और उसी मार्ग पर चलें जो मानवता का मार्ग है। हमें समझ लेना चाहिए कि मनुष्य जीवन बहुत दुर्लभ है, वह बार-बार नहीं मिलता। 
समाज उसी को पूजता है जो अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीता है। इसी से गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-'परहित सरिस धरम नहीं भाईÓ। स्मरण रहे कि यही उजालों को नमन है और यही उजाला हमारी जीवन की सार्थकता है। जो सच है, जो सही है उसे सिर्फ आंख मूंदकर मान नहीं लेना चाहिए। खुली आंखों से देखना परखना भी चाहिए। प्रमाद टूटता है तब व्यक्ति में प्रतिरोधात्मक शक्ति जागती है। वह बुराइयों को विराम देता है। इस पर्व के साथ जुड़े मर्यादा पुरुषोत्तम राम, भगवान महावीर, दयानंद सरस्वती, आचार्य तुलसी आदि महापुरुषों की आज्ञा का पालन करके ही दीपावली पर्व का वास्तविक लाभ और लुफ्त उठा सकते हैं।
इस वर्ष दीपावली का पर्व मनाते हुए हम अधिक प्रसन्न एवं उत्साहित है, क्योंकि सदियों बाद हमारे आराध्य भगवान श्रीराम का मन्दिर अयोध्या में बन रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रयासों से इस वर्ष दीपावली का पर्व वास्तविक एवं सार्थक होने जा रहा है। हर हिन्दू एवं आस्थाशील व्यक्ति श्रीराम के अखंड ज्योति प्रकट करने वाले संदेश को अपने भीतर स्थापित करने का प्रयास करें, तो संपूर्ण विश्व में, निरोगिता, अमन, अयुद्ध, शांति, सुशासन और मैत्री की स्थापना करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकेगी तथा सर्वत्र खुशहाली देखी जा सकेगी और वैयक्तिक जीवन को प्रसन्नता और आनंद के साथ बीताया जा सकेगा।
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