ललित गर्ग
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिना नाम लिए परिवारवादी राजनीतिक दलों को निशाने पर लेकर भारतीय राजनीति की लगातार बलशाली होती विसंगति एवं विषमता पर प्रहार किया है। भारत को राजनीतिक दृष्टि से आदर्श शक्ल देने एवं निगाहों में नये भारत-सशक्त भारत के स्वप्न को आकार देने के लिये परिवारवाद को बढ़ावा दे रहे दलों को कठघरे में खड़ा करने एवं परिवारवादी राजनीति पर अंकुश लगाने की नितांत जरूरत है। जरूरत इसलिए भी है, क्योंकि ऐसे दल लोकतंत्र और संविधान की भावना को केवल चोट ही नहीं पहुंचा रहे हैं, बल्कि एक किस्म की सामंतशाही को भी पाल-पोस रहे हैं। चुनाव आयोग की यह जिम्मेदारी है कि वह राजनीति दलों में आतंरित लोकतंत्र को सुनिश्चित करते हुए ऐसी व्यवस्था बनाये कि परिवारवादी राजनीति पर अंकुश लग सके।
वंशवाद एवं परिवारवाद एक अर्से से भारतीय राजनीति का नासूर बन चुका है जिसने पूरी व्यवस्था को पंगु कर दिया है। यह भारत को सशक्त लोकतंत्र बनाने एवं एक आदर्श शासन-व्यवस्था देने की सबसे बड़ी बाधा है। इस के लक्षण कश्मीर से कन्याकुमारी तक निर्बाध फैल और फल-फूल रहे हैं। वंशवाद की इस बीमारी को महामारी बनाने की पूरी जिम्मेदारी नेहरू-गांधी परिवार की है। इस परिवार प्रेम को दूसरे कोण से देखा जाना जरूरी है। कांग्रेस आज जिस लकवे का शिकार नजर आ रही है उसके मूल में यही है। कांग्रेस तो परिवारवाद का पर्याय ही बन गई है। वास्तव में उसने ही परिवारवाद की राजनीति का बीज बोया। परिवारवादी दलों एवं शीर्ष नेताओं से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे लोकतांत्रिक मूल्यों, भारतीय आदर्शों और मान्यताओं को मजबूत करने का काम करेंगे। वे ऐसा कर भी नहीं रहे हैं, क्योंकि उनके सामने देशहित नहीं, परिवार हित प्रमुख होता है। अपने दलों को निजी दुकान की तरह चलाने वाले परिवारवादी नेता जब समानता, सुशासन, लोकतंत्र, सत्ता में जनता की भागीदारी की बातें करते हैं, तब वे वास्तव में इन सबका उपहास ही उड़ा रहे होते हैं।
आज भारत की राजनीति खानदानी राजनीतिक परचूनिया दुकान हो गयी है। नि:संदेह प्रधानमंत्री की बातों से परिवारवादी दलों को बुरा लगेगा, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि वे लोकतंत्र के लिए नासूर बनते जा रहे हैं। समय के साथ परिवारवादी दल बढ़ते जा रहे हैं। राष्ट्रीय दलों में भाजपा में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में परिवारवादी सोच पर नियंत्रण स्थापित करने के उपक्रम हुए हैं, जबकि उसमें भी अनेक बाधाएं हैं। जो भी हो, भारतीय राजनीति में वामपंथी दलों को छोड़कर सभी दलों ने अपने परिवार को बढ़ावा दिया है। एक समय गैर कांग्रेसी दल परिवारवाद को प्रश्रय देने के कारण कांग्रेस का विरोध करते थे, लेकिन धीरे-धीरे ऐसे दल न केवल उसकी शरण में जाते गए, बल्कि खुद भी परिवारवादी बन गए। आज एक-दो क्षेत्रीय दलों को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं, जो परिवारवाद को पोषित न कर रहा हो। कुछ तो ऐसे हैं, जिनमें दल की स्थापना करने वाले नेता की दूसरी-तीसरी-चौथी पीढ़ी राजनीति में खप चुकी है।
राजनीति में प्रधानमंत्री का बेटा प्रधानमंत्री होगा? मुख्यमंत्री का बेटा मुख्यंमत्री होगा? मंत्री का बेटा मंत्री होगा? सांसद का बेटा सांसद होगा और विधायक का बेटा विधायक होगा? ऐसी स्थिति में आम लोगों की राजनीतिक हिस्सेदारी कैसे सुनिश्चित होगी। कैसे प्रतिभाशाली एवं सक्षम लोगों का देश-निर्माण में शीर्ष स्थानों पर योगदान मिल सकेगा? राजनीतिक पार्टियां संघर्षशील और ईमानदार व्यक्तित्व को संसद-विधानसभाओं में भेजने से पहले ही परहेज कर रही हैं। कांग्रेस ने देश को कमजोर करने की इस विसंगति को पल्लवित-पोषित किया है, उससे उम्मीद भी नहीं हो सकती है कि वह परिवारवाद से दूर होगी। पर समाजवादियों और समाजवादी धारा की राजनीतिक दलों पर हावी परिवारवाद काफी चिंताजनक है। लोहिया की विरासत को मानने वाले लालू, मुलायम, शरद यादव से यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि परिवारवाद खड़ा करना कहां का समाजवाद है। क्या राममनोहर लोहिया ने परिवारवाद का सपना देखा था?
दुखद यह है कि ये ताकतें सबसे पहले अपने परिवार को ही अपनी विरासत सौंपती हैं। मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की विरासत सौंपी है, वही समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह के बाद अखिलेश यह जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। पंजाब में अकाली दल के प्रकाशसिंह बादल के एक दर्जन पारिवारिक लोग कुर्सियों पर काबिज हैं। हरियाणा में स्व. देवीलाल के पुत्र चौटालाजी और उनके बेटे परम्परावादी राजनेता हैं। कश्मीर में स्व. शेख अब्दुला के बाद उनके बेटे फारूख अब्दुला और उनके भी बेटे उम्र अब्दुला आगे-से-आगे काबिज होते रहे हैं। कश्मीर में ही एक और नेता महबूबा मुफ्ती अपने पिता भूतपूर्व केन्द्रीय गृह मन्त्री की विरासत की मालकिन हैं। हिमाचल के भारतीय जनता पार्टी के पूर्वमुख्यमंत्री के पुत्र अनुराग ठाकुर मोदी सरकार में अनेक सशक्त मंत्रालयों में मंत्री हैं। हरियाणा के दो पूर्व बड़े नेता चौधरी बंशीलाल व भजनलाल के वंशज राजनीति में सक्रिय हैं। बिहार के राजद के बड़े नेता लालूप्रसाद ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को चूल्हे से सीधे मुख्यमन्त्री बनाया। उनकी दो साले भी राजनीति मे अग्रणीय हैं।
स्व. लालबहादुर शास्त्री के पुत्र, गोविन्दवल्लभ पन्त के पुत्र-पौत्र, मध्यप्रदेश के शुक्ला बन्धु अपने पिता की विरासत को लंबे समय तक संभालते रहे थे। हेमवतीनंदन बहुगुणा के परिवार के लोग भी इसी लीक पर हैं, चौधरी चरणसिंह के पुत्र एवँ पौत्र उनकी राजनीतिक विरासत को संभाले हुए हैं। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, बाबू जगजीवनराम की बेटी हैं। संगमा लोकसभा के पूर्वअध्यक्ष हैं, वे भी अपने बेटे और बेटी को राजनीति में आगे करते रहे हैं। मध्यप्रदेश के राज घराने वाले सिंधिया परिवार की पीढिय़ां राजनीति की अग्रिम पंक्ति में सक्रिय रही हैं। दक्षिण मे तमिलनाडू में करुनानिधि पुत्र एवं पुत्री, भतीजे व अन्य रिश्तेदारों के साथ बदनामी झेल रहे हैं। केरल मे स्व. करुणाकरण ने पुत्र मोह मे बहुत खेल किया, और पार्टी से विद्रोह किया। कर्नाटक में स्वनामधन्य हरदनहल्ली देवेगौड़ा के उखाड़ पछाड़ में उनके बेटे का मुख्यमंत्री बनना और हटाया जाना इसी परिवारवादी सोच के दंश है। आन्ध्र में फिल्मों से आये राजनेता/मुख्यमन्त्री एनटीआर की विरासत में पत्नी लक्ष्मी और दामाद चंद्रबाबू नायडू के राजकाज की बातें अब भी लोगों को याद हैं। आंध्र में ही पूर्व मुख्यमन्त्री राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगन के हक की लड़ाई केवल कुर्सियों के लिए चली है। झारखंड में शिबूसोरेन का व उनके बेटे का राजनीतिक दांवपेंच सिर्फ कुर्सी के लिए चलता रहा। वहां कोई सिद्धांतों की बात नहीं है। शिवसेना प्रमुख बाला साहब का पुत्र-पौत्र प्रेम और राजनीति में परिवारवाद का ही सटीक उदाहरण है। एनसीपी नेता शरद पवार की बेटी और भतीजा भी उनके आदर्शों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। और किस किस का नाम लिया जाये, सैकड़ों खानदानी नेता जिनके रगों में सिर्फ परिवारवादी राजनीति बहती है।
चूंकि वे परिवार के सदस्य होते हैं इसलिए तत्काल प्रभाव से महत्वपूर्ण पदों पर काबिज हो जाते हैं, अनेक पात्र व्यक्तियों को पछाड़ते हुए। अब तो ऐसे दल परिवारवाद के पक्ष में कुतर्को से खुली वकालत करते हैं।
एक परिवार से एक से ज्यादा लोगों का राजनीति में सक्रिय होना उतनी बड़ी समस्या नहीं, बड़ी एक जटिल समस्या पार्टी पर एक ही परिवार का कब्जा होना है। अब तो यह कब्जा पीढ़ी दर पीढ़ी बरकरार रहता है। ऐसा तो राजशाही में होता था। राजशाही से लोकतंत्र की ओर अग्रसर होने का उद्देश्य रहा है कि लोगों द्वारा लोगों के लिये, लोगों की सरकार। लेकिन इस लक्ष्य को पाने के लिये प्रत्येक राजनीतिक दल को आंतरिक लोकतंत्र स्थापित करना होता है। आखिर राजशाही की तरह संचालित होने वाले दल लोकतंत्र के लिए कल्याणकारी कैसे हो सकते हैं? यह वह सवाल है, जिस पर मोदी के स्वर में स्वर मिलाते हुए आम जनता को विचार करना होगा, क्योंकि परिवारवादी राजनीति के पोषक तो यह काम कभी नहीं करने वाले। सर्वविदित है कि लोकतंत्र के लिए परिवारवाद घातक है और नेहरू-गांधी के परिवारवाद ने भारतीय लोकतंत्र को मखौल में बदल दिया है। राहुल गांधी में न तो अपनी दादी-सी हिम्मत है और न ही परनाना-सी आदर्शवादिता पर वह मां की आड़ में राजनीति की डोर खेंचने से बाज नहीं आ रहे हैं, यह देश का दुर्भाग्य है। हर आंख में रोशन है नये भारत का स्वप्न, लेकिन यह तभी आकार ले सकेगा जब भारत की राजनीति के दरवाजों पर लगे परिवारवादी राजनीति के पहरे को हटाया जायेगा, नयी प्रतिभाओं एवं आम आदमी के लिये राजनीति के दरवाजे खोले जायेंगे।
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