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पुराणों में माघ माह को अत्यंत पवित्र और मोक्षदायक कहा गया है। माघ माह में गंगा स्नान कर मां गंगा की स्तुति और इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। शंकराचार्य रचित यह गंगा स्तोत्र पापनाशक और मोक्षदायक है। 
हिंदी पंचांग के अनुसार माघ का महीना ग्यारहवां महीना होता है।पुराणों में इस माह को अत्यंत पवित्र और मोक्षदायक कहा गया है। माघ के महीने में भगवान विष्णु, सूर्य देव और मां गंगा की पूजा का विधान है। इस माह में स्नान – दान को अक्षय फल का साधक माना गया है। माघ में पवित्र नदियों में स्नान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है। प्रयागराज में इस पूरे माह गंगा नदी के तट पर निवास करते हुए नियमित रूप से गंगा पूजन और स्नान का विधान है। इसे कल्पवास कहा जाता है। माघ माह में मां गंगा के पूजन और नियमित स्नान से जीवन से समस्त पापों का नाश होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। माघ माह में गंगा स्नान कर, मां गंगा की स्तुति और इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। शंकराचार्य रचित यह गंगा स्तोत्र पापनाशक और मोक्षदायक है। 
गंगा जी की स्तुति
गगां वारि मनोहारि मुरारिचरणच्युतम् ।
त्रिपुरारिशिरश्चारि पापहारि पुनातु माम् ॥
माँ गंगा स्तोत्रम्॥
देवि सुरेश्वरि भगवति गङ्गे
त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गे ।
शङ्करमौलिविहारिणि विमले
मम मतिरास्तां तव पदकमले ॥1॥
भागीरथि सुखदायिनि मातस्तव
जलमहिमा निगमे ख्यात: ।
नाहं जाने तव महिमानं
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पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ 2॥

हरिपदपाद्यतरङ्गिणि गङ्गे

हिमविधुमुक्ताधवलतरङ्गे ।

दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं

कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ 3॥

तव जलममलं येन निपीतं,

परमपदं खलु तेन गृहीतम् ।

मातर्गङ्गे त्वयि यो भक्त:

किल तं द्रष्टुं न यम: शक्त: ॥ 4॥

पतितोद्धारिणि जाह्नवि गङ्गे

खण्डितगिरिवरमण्डितभङ्गे ।

भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये,

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पतितनिवारिणि त्रिभुवनधन्ये ॥ 5॥

कल्पलतामिव फलदां लोके,

प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके ।

पारावारविहारिणि गङ्गे

विमुखयुवतिकृततरलापाङ्गे ॥ 6॥

तव चेन्मात: स्रोत:स्नात:

पुनरपि जठरे सोऽपि न जात: ।

नरकनिवारिणि जाह्नवि गङ्गे

कलुषविनाशिनि महिमोत्तुङ्गे ॥ 7॥

पुनरसदङ्गे पुण्यतरङ्गे

जय जय जाह्नवि करुणापाङ्गे ।

इन्द्रमुकुटमणिराजितचरणे

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सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये ॥ 8॥

रोगं शोकं तापं पापं

हर मे भगवति कुमतिकलापम्।

त्रिभुवनसारे वसुधाहारे

त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे॥ 9॥

अलकानन्दे परमानन्दे

कुरु करुणामयि कातरवन्द्ये ।

तव तटनिकटे यस्य निवास:

खलु वैकुण्ठे तस्य निवास: ॥ 10॥

वरमिह नीरे कमठो मीन:

किं वा तीरे शरट: क्षीण: ।

अथवा श्वपचो मलिनो दीनस्तव

न हि दूरे नृपतिकुलीन:॥ 11॥

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भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये

देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।

गङ्गास्तवमिमममलं नित्यं

पठति नरो य: स जयति सत्यम् ॥ 12॥

येषां हृदये गङ्गाभक्तिस्तेषां

भवति सदा सुखमुक्ति: ।

मधुराकान्तापज्झटिकाभि:

परमानन्दकलितललिताभि: ॥ 13॥

गङ्गास्तोत्रमिदं भवसारं

वाञ्छितफलदं विमलं सारम् ।

शङ्करसेवकशङ्कररचितं पठति

सुखी स्तव इति च समाप्त: ॥ 14॥

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त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गे ।

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मम मतिरास्तां तव पदकमले ॥