संजय गुप्त
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की घोषणा के उपरांत जिस तरह नेताओं ने दल बदलना शुरू किया, उससे यही साफ हुआ कि भारतीय लोकतंत्र किस तरह अवसरवादी राजनीति से ग्रस्त है। वैसे तो दलबदल चुनाव वाले सभी राज्यों में हुआ, लेकिन उत्तर प्रदेश का दलबदल कुछ ज्यादा ही चर्चा में रहा। इसका कारण यह रहा कि योगी सरकार के तीन मंत्रियों-स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धर्म सिंह सैनी के साथ करीब एक दर्जन विधायकों ने भी भाजपा छोड़कर समाजवादी पार्टी में शरण ली। इन तीनों मंत्रियों की तरह भाजपा छोडऩे वाले ज्यादातर विधायक भी पहले बसपा में थे और पिछले चुनाव के वक्त ही भाजपा में आए थे। जैसे ये मंत्री और विधायक भाजपा छोड़कर सपा में गए, वैसे ही सपा समेत अन्य दलों के कई नेताओं ने भाजपा की ओर रुख किया। कुछ ऐसी ही स्थिति पंजाब, उत्तराखंड और गोवा में भी देखने को मिली।
आम तौर पर दलबदल करने वाले नेताओं के पास एक जैसे घिसे-पिटे तर्क होते हैं। कोई कहता है कि उनकी जाति-बिरादरी के लोगों की उपेक्षा हो रही थी तो कोई अपने क्षेत्र की अनदेखी का आरोप लगाता है। दलबदलू नेता यह कभी नहीं बताते कि वे जिन खामियों का उल्लेख करते हुए दल बदलते हैं, उनका आभास उन्हें चुनावों की घोषणा होने के बाद ही क्यों होता है? वे यह भी नहीं बताते कि क्या उन्होंने कभी उन मसलों को पार्टी के अंदर उठाया, जिनकी आड़ लेकर दलबदल किया? यह हास्यास्पद है कि जिन स्वामी प्रसाद मौर्य ने दलितों-पिछड़ों के साथ बेरोजगारों और लघु-मध्यम श्रेणी के व्यापारियों की उपेक्षा का आरोप मढ़ा, वह खुद श्रम और रोजगार मंत्री थे। आखिर पांच साल तक मंत्री के रूप में उन्होंने बेरोजगारों के लिए काम क्यों नहीं किया? जिन नेताओं ने भाजपा छोड़ी, उनमें से ज्यादातर ने यह आरोप लगाया कि योगी सरकार में दलितों-पिछड़ों की उपेक्षा हो रही थी। ऐसा लगता है कि ये नेता यह भूल गए कि पिछले विधानसभा चुनाव के साथ-साथ 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को शानदार जीत दलितों-पिछड़ों के कारण ही मिली थी। इसी तरह वे इसकी भी अनदेखी कर रहे हैं कि जनधन खातों के जरिये गरीबों, किसानों, महिलाओं को जो पैसा मिला है, उसके चलते एक बड़ा वर्ग जाति-समुदाय के फेर में पड़कर वोट देने के बजाय अपना हित देखने लगा है।
यह एक तथ्य है कि दलबदल निजी स्वार्थ के लिए किया जाता है। कुछ को टिकट न मिलने का डर होता है तो कुछ को अपनी यह मांग पूरी होती नहीं दिखती कि उनके साथ-साथ उनके सगे संबंधी को भी टिकट मिले। कुछ अपने क्षेत्र की जनता की नाराजगी भांपकर अन्य क्षेत्र से चुनाव लडऩे की फिराक में नए दल की ओर रुख करते हैं। दलबदल करने वाले नेता भले ही विचारधारा की आड़ लेते हों, लेकिन सच यह है कि उनकी कोई विचारधारा नहीं होती। वे जिस दल में जाते हैं, उसकी ही विचारधारा का गुणगान करने लगते हैं, जबकि कुछ समय पहले तक उसकी निंदा-भत्र्सना कर रहे होते हैं। विडंबना यह है कि कई बार मतदाता भी उनके बहकावे में आ जाते हैं। दलबदलू नेता जिस दल को छोड़ते हैं, केवल उसे ही असहज नहीं करते, बल्कि वे जिस दल में जाते हैं वहां भी समस्या पैदा करते हैं, क्योंकि उसके चलते उसके क्षेत्र से चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे नेता को झटका लगता है। कई बार वह नाराजगी में विद्रोह कर देता है या फिर किसी अन्य दल में शामिल हो जाता है। जिस तरह चुनाव की घोषणा होने के बाद दलबदल होता है, उसी तरह प्रत्याशियों की घोषणा होने के बाद भी। जिस दल के नेता का टिकट कटता है, वह दूसरे दल जाकर प्रत्याशी बनने की कोशिश करता है। शायद ही कोई दल हो, जिसे टिकट के दावेदारों के चलते खींचतान का सामना न करना पड़ता हो, लेकिन वे कोई सबक सीखने को तैयार नहीं। राजनीतिक दल चाहे जो दावे करें, प्रत्याशियों के चयन की उनकी प्रक्रिया पारदर्शी नहीं। कुछ दल यह अवश्य कहते हैं कि वे चुनाव के पहले सर्वेक्षण कराकर यह पता करते हैं कि कहां कौन नेता चुनाव जीत सकता है, लेकिन इसमें संदेह है कि इस तरह के सर्वेक्षणों से उन्हें सही तस्वीर हासिल हो पाती है। यह जानना भी कठिन है कि इस तरह के सर्वेक्षणों में क्षेत्र विशेष के मतदाताओं की कोई राय ली जाती है या नहीं? कई बार यह देखने में आता है कि प्रत्याशी चयन के मामले में पार्टी कार्यकर्ताओं की भी कोई भूमिका नहीं होती। कायदे से तो यह होना चाहिए कि कौन नेता प्रत्याशी बने, इसमें क्षेत्र विशेष की जनता की भी कोई न कोई भूमिका हो। इससे ही लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी। आखिर कुछ अन्य देशों की तरह भारत में यह क्यों नहीं हो सकता कि पार्टी कार्यकर्ताओं को प्रत्याशी चयन का अधिकार दिया जाए? यदि प्रत्याशी चयन में अमेरिका की प्राइमरी प्रक्रिया को अपना लिया जाए तो भारतीय लोकतंत्र का भला हो सकता है। कार्यकर्ताओं की भागीदारी से प्रत्याशी का चयन करने से न केवल गुटबाजी, विद्रोह और भितरघात पर लगाम लगेगी, बल्कि योग्य प्रत्याशी भी सामने आएंगे। चूंकि प्रत्याशी चयन में मनमानी होती है इसलिए टिकट के जो दावेदार उम्मीदवार नहीं बन पाते, वे अपनी ही पार्टी की नींव खोदने में लग जाते हैं। यह सही समय है कि चुनाव आयोग को लोकतंत्र को सशक्त करने के लिए कुछ और अधिकार दिए जाएं। फिलहाल चुनाव आयोग के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं कि वह चुनाव के समय दल बदलने वालों पर कोई कार्रवाई कर सके। उसके पास आपराधिक छवि वालों को चुनाव लडऩे से रोकने का भी कोई अधिकार नहीं। यह ध्यान रहे कि दलबदल सरीखी गंभीर समस्या आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों का चुनाव लडऩा भी है। इसी तरह एक अन्य समस्या पैसे के बल पर चुनाव जीतने की प्रवृत्ति भी है। ये खामियां भारतीय लोकतंत्र के लिए एक धब्बा हैं। समय-समय पर मीडिया और सामाजिक संगठन चुनाव सुधारों की ओर राजनीतिक दलों का ध्यान आकर्षित तो करते हैं, लेकिन वे उस पर गौर नहीं करते। यदि राजनीतिक दलों का यही रवैया रहा तो न केवल भारतीय लोकतंत्र की गरिमा गिरेगी, बल्कि राजनीति उन नेताओं के हाथों में कैद हो जाएगी, जिन्होंने जनसेवा की आड़ में सियासत को एक पेशा बना लिया है और जो अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं।
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