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पश्चिम बंगाल विधानसभा में सत्ता पक्ष और विपक्ष के विधायकों के बीच हाथापाई और नेता प्रतिपक्ष समेत पांच भाजपा विधायकों के निलंबन की घटना एक बार फिर भारतीय लोकतंत्र को शर्मसार कर गई। बीरभूम हिंसा को लेकर नाराज विपक्ष मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ नारेबाजी कर रहा था, क्योंकि उनके पास गृह मंत्रालय भी है। इसी दौरान सत्ता पक्ष के विधायक भी आक्रामक हो उठे और यह अशोभनीय घटना घट गई। यह सिर्फ पश्चिम बंगाल विधानसभा की बात नहीं है, देश की लगभग तमाम विधायी संस्थाओं में हर कुछ अंतराल पर ऐसे अशोभनीय दृश्य उपस्थित होने लगे हैं और यह लोकतंत्र के खैरख्वाह तमाम भारतीयों के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। अभी कितने दिन हुए हैं, जब बिहार विधानसभा में विधानसभाध्यक्ष को मार्शल बुलाना पड़ा था? अगर इस स्थिति पर सभी पार्टियां गंभीरता से चिंतन नहीं करेंगी, तो ऐसी घटनाओं को लगातार देख-सुनकर हमारी आने वाली नस्लों के लिए यह यकीन करना भी मुश्किल हो जाएगा कि इसी देश के संसदीय लोकतंत्र ने ऐसा भी दौर देखा है, जब सत्ता पक्ष के सदस्य अपने ही प्रधानमंत्री पर तंज कर दिया करते थे और नेता, सदन उसे आदर के साथ स्वीकार भी कर लेते थे। अब तो स्थिति यह है कि सत्ता पक्ष, विपक्ष से भी ठकुरसुहाती की अपेक्षा करने लगा है, जबकि वह जानता है कि लोकतंत्र में उन दोनों की भूमिकाएं अलग हैं। रचनात्मक आलोचना तो किसी भी विपक्ष का पहला सांविधानिक दायित्व है और पश्चिम बंगाल विधानसभा में भाजपा विधायकों को यह अख्तियार है कि वे किसी शासकीय चूक पर, प्रशासनिक लापरवाही पर सरकार से जवाब-तलब करें। काश! सबने अपनी लक्ष्मण-रेखा पहचानी होती। भारतीय लोकतंत्र के आगे इस वक्त जो सबसे गंभीर चुनौती है, वह विधायी सदनों के उपयुक्त संचालन की है। विडंबना यह है कि हमारे जन-प्रतिनिधियों का उचित प्रशिक्षण नहीं हो रहा। याद नहीं आता कि किसी पार्टी ने अपने सांसदों-विधायकों के लिए पिछला प्रशिक्षण शिविर कहां और कब आयोजित किया था? ऐसे शिविर सदस्यों को संसदीय कार्यों की बारीकियां ही नहीं सिखाते, बल्कि सदन के भीतर आचरण के विभिन्न पहलुओं से भी अवगत कराते हैं। इतना ही नहीं, सदनों के भीतर संसदीय दल के नेताओं ने भी अभिभावकीय भूमिका छोड़ दी है। इसलिए शाब्दिक तकरार शारीरिक दुर्व्यवहार तक पहुंचने लगी है। इन सबसे जनता की नजरों में जन-प्रतिनिधियों की प्रतिष्ठा को कितनी चोट पहुंच चुकी है, इसे बार-बार दर्ज कराने की भी आवश्यकता नहीं। इसलिए बेहतर होगा कि जिम्मेदार राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने घरों की सफाई सबसे पहले करें। एडीआर की चुनाव-दर-चुनाव रिपोर्ट बता रही है कि निर्वाचित सदनों का चरित्र क्यों बदल रहा है? किसी-किसी सूबे की विधानसभा में तो दागी विधायकों की तादाद 50 प्रतिशत तक पहुंचने लगी है। ऐसे में, कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वहां मर्यादाएं बहाल रहेंगी? देश के तमाम राजनीतिक दलों को यह बात भी याद रखने की जरूरत है कि सफल लोकतंत्रों में सिर्फ शोर-गुल से नहीं, कहकहों से भी बातें बनती हैं। साफ है, सत्ता और विपक्ष जब तक एक-दूसरे को विश्वास में नहीं लेंगे, तब तक पश्चिम बंगाल विधानसभा जैसी अप्रिय स्थितियां पैदा होती रहेंगी और इससे भारतीय लोकतंत्र कतई सुर्खरू नहीं होगा।