ललित गर्ग, वरिष्ठ स्तंभकार
देश में लगातार हिन्दू धर्म एवं उसके देवताओं का उपहास उडाया जाता रहा है, जबकि दूसरे धर्म एवं उनके देवताओं के साथ ऐसा होने पर उसे लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन करार दिया गया, यह विरोधाभास एवं विडम्बना आखिर हिन्दू समाज कब तक झेले? एक बार फिर वेब सीरीज तांडव में हिंदू देवताओं का उपहास उड़ाया गया है। भले ही उसके निर्देशक एवं टीम ने सार्वजनिक माफी मांग ली है। माफी तो जरूरत थी, क्योंकि करोड़ों भारतीयों की भावनाएं इससे आहट हुई थी। लेकिन प्रश्न है कि भविष्य में ऐसे किसी के सृजन कर्म से बहुसंख्य लोगों की भावनाएं आहत न होंगी, इसकी क्या गारंटी है। इस माफी के बाद अब विवाद का पटाक्षेप हो जाना चाहिए। लेकिन एक बड़ा प्रश्न फिर भी खड़ा है कि फिल्मों, धारावाहिकों, वेब धारावाहिकों के दुराग्रह एवं पूर्वाग्रहपूर्ण विचारों एवं फिल्मांकन की अभिव्यक्ति के नियमन पर भी गौर करने की जरूरत है।
भारत विभिन्न धर्मों, जातियों, संस्कृतियों और भाषा-भाषियों का एक विराट इन्द्रधनुषी राष्ट्र है तो इसका कारण हिन्दू समाज की उदारता ही है, उसकी उदारता उसकी कमजोरी नहीं, बल्कि विरल विशेषता है। इसलिये उसका बेजा लाभ उठाने की धृष्टता करने वालों को समझने की जरूरत है। भारत की सहिष्णु संस्कृति एवं उदार जनविचारधारा वाले लोगों से भी अपेक्षा यही है कि संवाद के जरिए हरेक विवाद सुलझाएं जाएं, ताकि कानून-व्यवस्था के लिए कोई मसला न खड़ा हो, राष्ट्रीयता अक्षुण्ण रहे और समाज के ताने-बाने को नुकसान न पहुंचे। भारत जैसे बहुलवादी देश में तो संवादों की अहमियत और अधिक है। अफसोस की बात यह है कि हमारा जो समाज अब तक अलग-अलग विचारों का संगम रहा है और यही हमारे लोकतंत्र की खूबसूरती रही है, उसमें अब अभिव्यक्तियों की स्वतंत्रता एवं मौलिक अधिकारों के नाम पर जानबूझकर बहुसंख्यक समाज की भावनाओं को आहत करने के प्रयास रह-रह कर होते रहते है, जिन्हें किस तरह से जायज माना जाए?
तांडव जैसी फिल्में एवं धारावाहिक बनाने वाले दो और दो चार नहीं बल्कि पांच की गिनती करने वाले होते हैं। दो को जोड़ें तो भी और गुणा करेें तो भी चार ही होते हैं, फिर यह पांच कैसे? दो व्यक्ति किन्हीं दो व्यक्तियों से मिलते हैं तब भी चार ही होते हैं, तो यह पांचवां कौन होता है? किसी जमाने में जहां पांच होते थे और पंचों को परमेश्वर कहा जाता था। वे न्याय करते थे, निष्पक्ष होते थे। सही बात कहते थे, सही करते और करवाते थे। उनकी समाज में एक प्रतिष्ठा होती थी, उन्हें आदर और विश्वास भी प्राप्त होता था। अब पांचवां अकेला होता है जो समाज को जोड़ता नहीं, तोड़ता है, अन्याय करता है।
आज जहां भी चार लोग एकत्रित होते हैं तो पांचवां भी उपस्थित रहता है। वह अदृश्य होते हुए भी उपस्थित रहता है। वह चारों को बांटता है। यह पांचवां व्यक्ति नहीं, नीति है, कूटनीति, अवसरवादिता। पांचवां अल्पमत में होता है पर विध्वंस एवं बिखराव का जनक होता है। वह हांकने वाला होता है क्योंकि वह लकड़ी हाथ में उठा लेता है। वह नीचे की कंकरी निकालने वाला होता है क्योंकि वह तोडऩे में विश्वास रखता है। वह पीठ में छुरा मारने वाला होता है क्योंकि गले लगाना उसे आता ही नहीं। हमें इस पांचवें से सावधान रहना होगा, क्योंकि राष्ट्रीय एकता का सबसे बड़ा दुश्मन एवं लोकतंत्र की सबसे बड़ी बाधा है। क्योंकि यह तुष्टीकरण को प्राथमिकता देता है। यह गलत मूल्यों की मुखरता का प्रतीक है। आवश्यकता है ऐसे पांचवें को संरक्षण नहीं मिले। उसे डराओ मत पर उससे डरो भी मत। उससे घृणा मत करो पर दोस्ती भी मत करो। अपने स्थान पर डटे रहो और उसे भी अपना सही स्थान बता दो। ऐसा होगा तभी 'दो और दो कभी नहीं होंगे पांचÓ और सांच पर कभी नहीं आएगी आंचÓ। तांडव जैसे हिन्दू धर्म-संस्कृति विरोधी षडय़ंत्र औंधे मूंह गिरेंगे।
देशभर में तांडव को लेकर विरोध का वातावरण बनने के कारणों एवं कई जगहों से इस मसले पर प्राथमिकी दर्ज कराने की खबरों को देखते हुए इसकी गंभीरता एवं संवेदनशीलता को समझना होगा। उत्तर प्रदेश की पुलिस सिरीज के निर्देशक और लेखक के घर पूछताछ के लिए पहुंची और नहीं मिलने पर नोटिस चिपका दिया। गौरतलब है कि 'तांडवÓ के कुछ दृश्यों को लेकर कुछ संगठनों ने यह आपत्ति जताई कि इससे उनकी धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंची है। दरअसल, किसी फिल्म के कुछ दृश्यों से आस्था के आहत होने या धार्मिक भावना के चोट पहुंचने का यह कोई नया मामला नहीं है। लेकिन इस बार इस तरह के मौके पर यह सोचने की जरूरत महसूस होती है कि कला माध्यमों में किसी धर्म विशेष के उजालों पर कालिख पोतने की स्वतंत्रता कैसे दी जा सकती है? ऐसे लोग या संगठन जो स्वभाव से ही हिन्दू धर्म की प्रगति को सहन नहीं कर सकते, बिना कारण जो उसकी बदनामी करना चाहते है या एक जीवंत संस्कृति को झुठलाने के उपक्रम करते हैं, वे ईष्यों, मात्सर्य भावना एवं राजनीतिक हितों एवं भावनाओं से प्रेरित होकर ऐसे कुकृत्य करते हैं। जिन्हें कला एवं संस्कृति के नाम पर जायज ठहराने की वकालात हर दृष्टिकोण से बुद्धि का दिवालियापन है।
सदियों से चलने वाला हिन्दू समाज अपनी गरिमामय आभा से आज भी गौरवान्वित है, उसके नायक देवी-देवता भी असंख्य लोगों की आस्था के केन्द्र है। इस गौरवमय परम्परा एवं संस्कृति पर कालिख पोतने एवं उसे धुंधलाने के प्रयास लोकतांत्रिक मर्यादाओं एवं आधारों के नाम पर लगातार होते रहे हैं। सोशल मीडिया के इस दौर में इस तरह के किसी भी अतिश्योक्तिपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण स्थितियों के विवाद को व्यापक बनते देर नहीं लगती। कौन क्या लिखता है, क्या प्रस्तुति देता है, जीवंत संस्कृति एवं तथ्यों को तोड़-मरोड़कर, अपने विवेक को गिरवी रखकर या जानबूझकर अधिसंख्य भावनाओं को आहत करने के लिये इस्तेमाल करता है, फिर इससे उत्पन्न विवादों से कमाई की प्रवृत्ति धार्मिक उदारता का फायदा उठाने को उकसाने में लगती है, इस तरह की प्रवृत्ति एवं मानसिकता एक आदर्श लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती है। इससे ईमानदार कलाकारों व कला प्रेमियों का भी अहित होता है। उनकी रचनाधर्मिता भी निशाने पर आ जाती है। यह अच्छी बात है कि तांडव के विवाद में सूचना-प्रसारण मंत्रालय तुरंत हरकत में आ गया और उसने प्रभावी कदम उठाये। निस्संदेह, अभिव्यक्ति की आजादी एक बड़ा लोकतांत्रिक मूल्य है, और इससे कोई समझौता नहीं किया जा सकता, पर हर आजादी जिम्मेदारियों से पोषित होती है। यह बात कला जगत के लोगों को भी समझनी पड़ेगी और इसके लिये जागरूक भी होना होगा। जागरूकता का अर्थ है आत्म-निरीक्षण करना, अपने आपको तोलना, अपनी कोई खामी या त्रुटि लगे तो उसका परिष्कार करना और जनता को भ्रांत होने से बचाना। भूल से होने वाले खामियों के लिये क्षमा का प्रावधान हो, लेकिन जानबूझकर षडयंत्रपूर्वक की जाने वाली गलतियों के लिये सजा का भी प्रावधान होना चाहिए। अन्यथा ऐसे निषेधात्मक कृत्यों से लोकतंत्र कमजोर होता रहेगा, समाज में विद्रोह एवं विवाद के वातावरण को पनपने के अवसर मिलते रहेंगे। आने वाला समय आधुनिक तकनीक एवं प्रौद्योगिकी के कारण अधिक चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि स्मार्टफोन और इंटरनेट का दायरा जैसे-जैसे बढ़ता जाएगा, ओवर द टॉप मीडिया सर्विसेज यानी ओटीटी प्लेटफॉर्म की लोकप्रियता भी बढ़ेगी।
इसलिए सरकार को इस पर प्रसारित सामग्रियों को लेकर गंभीर होना पड़ेगा। इसी तरह, हरेक सफल लोकतंत्र अपने नागरिकों से भी कुछ अपेक्षाएं रखता है। देश के रचनात्मक माहौल को ऐसे विवादों से कोई नुकसान न पहुंचे, यह सुनिश्चित करना नागरिक समाज की बड़ी जिम्मेदारी है। एक खुले और विमर्शवादी देश-समाज में ही ऐसी संभावनाएं फल-फूल सकती हैं। तांडव से उपजे विद्रोही परिवेश में व्यवस्था एवं समाजगत शांति एवं सौहार्द केवल एक वर्ग की उदारता से संभव नहीं है, उसके जिम्मेदार पक्ष में भी अनुशासन एवं विवेक अपेक्षित है। प्रेषक:
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