ललित गर्ग
आज पूरे राष्ट्र की दृष्टि पश्चिम बंगाल पर केन्द्रित है। तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी के आग्र्रह, दुराग्रह एवं पूर्वाग्रह के कारण उसका संकट बढ़ता ही जा रहा है। उसकी उल्टी गिनती शुरु हो गयी है। पार्टी में राजनीतिक दायित्व की गरिमा और गंभीरता समाप्त हो गई है। प्रांत की समस्याएं और विकास के लिए खुले दिमाग से सोच की परम्परा बन ही नहीं रही है। और तो और इन्हीं आग्रहों के साथ चुनावी वैतरणी पार करने का प्रयास किया जा रहा है। जब मानसिकता दुराग्रहित है तो "दुष्प्रचार" ही होता है। कोई आदर्श संदेश राष्ट्र को नहीं दिया जा सकता। सत्ता-लोलुपता की नकारात्मक राजनीति हमें सदैव ही उल्ट धारणा यानी विपथगामी की ओर ले जाती है। ऐसी राजनीति राष्ट्र के मुद्दों को विकृत कर उन्हें अतिवादी दुराग्रहों में परिवर्तित कर देती है। ऐसी स्थितियां पार्टी में भीतरी घुटन एवं बिखराव का बड़ा कारण भी बनती है। तृणमूल कांग्रेस के दिग्गज और अपेक्षाकृत ज्यादा शालीन नेता दिनेश त्रिवेदी ने राज्यसभा में ही अपने इस्तीफे का एलान करके सबको न केवल चैंका दिया है, बल्कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल की मुश्किलों को बहुत बढ़ा भी दिया है। इससे तृणमूल कांग्रेस एवं उसकी सुप्रीमों ममता बनर्जी के उल्टी गिनती शुरु हो गयी है। यह उल्टी गिनती परिचायक हैं पार्टी के भाग्य पर ग्रहण लगने की।
दिनेश त्रिवेदी का इस्तिफा अकारण नहीं है, उन्होंने साफ कहा है कि मुझसे अब पश्चिम बंगाल की स्थितियां देखी नहीं जा रही है। मुझे घुटन महसूस हो रही है। आज मैं देश के लिए, बंगाल के लिए अपना इस्तीफा दे रहा हूं। जब इस तरह की स्थितियां बन जाती है, जब शासन-व्यवस्था की काबिलीयत पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है, जब शासन करने वाले ही प्रदेश की शांति और जन-जीवन को अस्त-व्यस्त करने लगते हैं, वे ही उद्योग, व्यापार ठप्प करने के निमित्त बनने लगते हैं, तो सच्चे राजनेताओं को घुटन होना स्वाभाविक है। पश्चिम बंगाल के बारे में तो यह लगभग पूरी तौर पर साफ है कि ममता बनर्जी सड़कों पर उतरे अराजक तत्वों को परोक्ष तौर पर शह देने में लगी हुई है। यही कारण है कि वहां व्यापक पैमाने पर हिंसा और आगजनी देखने को मिल रही। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि संकीर्ण राजनीतिक कारणों से बंगाल में हिंसा को भड़काया जा रहा है, अराष्ट्रीय तत्वों को पनपने का अवसर दिया जा रहा है। इन्हीं कारणों से तृणमूल कांग्रेस में बिखराव एवं टूटन की स्थितियां चरम पर है, उस पर मंडराता संकट खत्म होने का नाम नहीं ले रहा।
पश्चिम बंगाल में अब तक हमने मध्य पीढ़ी के नेताओं को ही तृणमूल छोड़कर जाते देखा है, लेकिन पार्टी के कद्दावर नेता अगर कह रहा है कि उसे घुटन महसूस हो रही है, तो यह तृणमूल के लिए खतरे की घंटी है। अब यह विश्लेषण का विषय है कि दिनेश त्रिवेदी के इस्तीफे से पश्चिम बंगाल की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा? क्या वे भारतीय जनता पार्टी में आएंगे? उनके भाजपा में आने से समीकरण कितने बदलेंगे? क्या यह भाजपा की एक बड़ी राजनीतिक कामयाबी है? भाजपा तो पहले ही बोल चुकी है कि चुनाव आने तक ममता बनर्जी अकेली पड़ जाएंगी, क्या वाकई बंगाल के समीकरण उसी दिशा में बढ़ रहे हैं? क्या इन स्थितियों में अमित शाह के दो सौ अधिक सीटों पर जीत का दावा सच हो जायेगा? अनेक सवाल है, अनेक नवीन स्थितियां है जो दिनेश त्रिवेदी के इस्तीफे से खड़ी हुई हैं। बंगाल की राजनीति में हिंसा कोई ऐसी नई बात नहीं है, जिससे उन्हें अब अजीब लग रहा है? एकाधिक अवसरों पर उनका अपमान हुआ है, नाराजगी अनेक बार सामने आ चुकी है। दिनेश त्रिवेदी के सामने पार्टी को पीठ दिखाने के अवसर पहले भी आए हैं, लेकिन इस समय उनका पार्टी छोडऩे का निर्णय तृणमूल के अंधेरों का सबब माना जायेगा, उनके निर्णय के दूरगामी परिणाम देखने को मिलेंगे।
दिनेश त्रिवेदी के आरोप कहीं गहरे हैं कि पार्टी को ऐसे लोग चला रहे हैं, जो राजनीति की समझ नहीं रखते, बल्कि अवसरवादी एवं चाटुकारों का बोलवाला है। यही कारण है कि 40 से अधिक तृणमूल नेता पार्टी नेतृत्व से नाराजगी जताते हुए भाजपा में शामिल हो चुके हैं और उन सभी के बारे में ममता बनर्जी ने 'सड़े सेबÓ से 'मीर जाफरÓ तक कहा गया है। प्रश्न है कि वे इतने ही नकारा एवं बेकार थे तो पार्टी में क्यों बने रहे? अब अगर दिनेश त्रिवेदी के लिये भी ममता यही सोच रखती है तो यह उनका दुराग्रह ही माना जायेगा और इससे पार्टी की गिरावट ही सामने आयेगी, पार्टी की छवि पर जरूर नकारात्मक असर पड़ेगा। दिनेश त्रिवेदी तृणमूल के उन संस्थापक सदस्यों में रहे हैं, वे पार्टी के आधारस्तंभ थे। जब आधार ही ढह रहा हो तो सहज अनुमान लगाया जा सकता है पार्टी के दुर्दिनों का।
क्या हो गया है तृणमूल कांग्रेस और उसकी नेता ममता को? पिछले लम्बे समय से उनके इशारे पर हिंसा रूप बदल-बदल कर अपना करतब दिखा रही है- विनाश, सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने और निर्दोष लोगों को डराने-धमकाने की। इस तरह की अराजकता कोई मुश्किल नहीं, कोई वीरता नहीं। पर निर्दोष जब आहत होते हैं तब पूरा देश घायल होता है। ऐसी स्थितियां अन्दरूनी घुटन का भी कारण बनती है। केंद्र सरकार में रेल मंत्रालय संभाल चुके त्रिवेदी की बात करें तो वे तृणमूल के उन संस्थापक सदस्यों में से हैं, जिन्होंने 16 साल पहले तृणमूल पार्टी बनाई थी। त्रिवेदी पूर्व में भी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी की राजनीतिक सोच एवं दृष्टिकोण से अलग राय जता चुके हैं। ममता का कार्टून बनाने वाले जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर की गिरफ्तारी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए वर्ष 2012 में दिनेश त्रिवेदी ने कहा था कि कार्टून लोकतंत्र अभिव्यक्ति का अभिन्न हिस्सा हैं। उन्होंने कहा था कि मुझे नहीं लगता कि इससे किसी को कोई आपत्ति होनी चाहिए। पार्टी में बढ़ती तानाशाही एवं अराजकता आत्मसमीक्षा की मांग करती है। आक्रामक ढंग से दुश्मनों या प्रतिद्वंद्वियों को जवाब दिया जा सकता है, लेकिन अपने संस्थापक सदस्यों के साथ भी ऐसा ही उग्र रवैया पार्टी की बुनियाद को कमजोर करेगा।
भारत एक धर्मप्राण देश है। यहां पूजा-उपासना की स्वतंत्रता है, यह वसुधैव कुटुम्बकम का उद्घोष करने वाला देश है, यही भारतीय संस्कृति की विशेषता है। यहां हिन्दू, मुसलमान ही नहीं जैन, बौद्ध, पारसी, सिक्ख, ईसाई सनातनी सभी मजहबों के लोग भी तो रहते हैं। ये सभी अल्पसंख्यक हैं पर वे राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग नहीं हैं। जुड़े हुए हैं। वे कभी अपने को दोयम स्तर के नागरिक नहीं मानते। यही सांझा संस्कृति ही यहां की राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता का आधार है, इस सांझा संस्कृति को बंगाल ने बलशाली बनाया है, वहां के नेताओं ने देश की एकता एवं अखण्डता को सुदृढ़ किया है, लेकिन इसके बीच दरारें डाल कर तृणमूल कांग्रेस एवं उसकी सुप्रीमों ने राजनीतिक रोटियां सेकने के आग्रह, पूर्वाग्रह और दुराग्रहों से राष्ट्रीय जीवन के शुभ को आहत करने का जो लगातार उपक्रम किया है, उसको न केवल प्रांत के लोगों ने बल्कि उनकी खुद की पार्टी के आधारस्तंभों ने ही नकार दिया है। दुष्प्रचार में लिप्त तृणमूल की केवल आलोचना ही पर्याप्त नहीं। उन्हें बेनकाब भी किया जाना चाहिए। इसके साथ ही मानवतावादी होने का मुखौटा लगाए उत्पाती तत्वों को यह सख्त संदेश भी देना होगा कि किसी भी सूरत में हिंसा, राष्ट्र-विरोधी सोच एवं गतिविधियों को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। उत्पात का पर्याय बन गए तृणमूल से कड़ाई से निपटना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि कानून के शासन एवं लोकतांत्रिक मूल्यों की मजाक हो रही है।
अब युद्ध मैदानों में सैनिकों से नहीं, भीतरघात करके, निर्दोषों को प्रताडि़त एवं उत्पीडि़त कर लड़ा जाता है। सीने पर वार नहीं, पीठ में छुरा मारकर लड़ा जाता है। इसका मुकाबला हर स्तर पर हम एक होकर और सजग रहकर ही कर सकते हैं। इसने भारत की एकता पर कुठाराघात किया है। यह बड़ा षडय़ंत्र है इसलिए इसका फैलाव भी बड़ा हो सकता है। लेकिन दिनेश त्रिवेदी ने अपने इस्तिफे ने इसके बढ़ते फैलाव पर एक कील ठोक दी है।
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