ललित गर्ग
सर्वोच्च न्यायालय ने जन-प्रदर्शनों, आन्दोलनों, बन्द, रास्ता जाम, रेल रोकों जैसी स्थितियों के बारे में जो ताजा फैसला किया है, उस पर लोकतांत्रिक मूल्यों की दृष्टि से गंभीर चिन्तन होना चाहिए, नयी व्यवस्थाएं बननी चाहिए। भले ही उससे उन याचिकाकर्ताओं को निराशा हुई होगी, जो विरोध-प्रदर्शन के अधिकार के लिए लड़ रहे हैं। कोई भी आन्दोलन जो देश के टुकड़े-टुकड़े कर देने की बात करता हो, लाल किले का अपमान करता हो, 500 पुलिसवालों पर हिंसक एवं अराजक प्रहार करके उन्हें घायल कर देता हो या राष्ट्रीय ध्वज का निरादर करता हो, उसे किस तरह और कैसे लोकतांत्रिक कहा जा सकता है? वहीं लोकतंत्र अधिक सफल एवं राष्ट्रीयता का माध्यम है, जिसमें आत्मतंत्र का विकास हो, स्वस्थ राजनीति की सोच हो एवं राष्ट्र को सशक्त करने का दर्शन हो, अन्यथा लोकतंत्र में भी एकाधिपत्य, अव्यवस्था, अराजकता एवं राष्ट्र-विरोधी स्थितियां उभर सकती है।
सत्ता, राजनीति एवं जन-आन्दोलनों के शीर्ष पर बैठे लोग यदि जनतंत्र के आदर्श को भूला दें तो वहां लोकतंत्र के आदर्शों की रक्षा नहीं हो सकती। आज लोकतंत्र के नाम पर जिस तरह के विरोध प्रदर्शन की संस्कृति पनपी है, उससे राष्ट्र की एकता के सामने गंभीर खतरे खड़े हो गये हंै। यह बड़ा सच है कि यदि किसी राज्य में जनता को विरोध-प्रदर्शन का अधिकार न हो तो वह लोकतंत्र हो ही नहीं सकता। विपक्ष या विरोध तो लोकतंत्र का आधार होता है क्योंकि जिस देश की जनता एवं राजनीतिक दल पंगु, निष्क्रिय और अशक्त हो तो वह लोकतांत्रिक राष्ट्र हो ही नहीं सकता। विरोध तो लोकतंत्र का हृदय है और देश की अदालत ने भी विरोध-प्रदर्शन, धरने, अनशन, जुलूस आदि को भारतीय नागरिकों का मूलभूत अधिकार माना है लेकिन उसने यह भी साफ-साफ कहा है कि उक्त सभी कार्यों से जनता को लंबे समय तक असुविधा होती है तो उन्हें रोकना सरकार का अधिकार एवं दायित्व है। विरोध भी शालीन, मर्यादित होने के साथ आम जनजीवन को बाधित करने वाला नहीं होना चाहिए। अदालत की यह बात एकदम सही है, क्योंकि आम जनता की जीवन निर्वाह की स्थितियों को बाधित करना तो उसके मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन है। यह सरकार का नहीं, जनता का विरोध है।
चंद प्रदर्शनकारी के धरनों से असंख्य लोगों की स्वतंत्रता बाधित हो जाती है। लाखों लोगों को लंबे-लंबे रास्तों से गुजरना पड़ता है, धरना-स्थलों के आस-पास के कल-कारखाने बंद हो जाते हैं और सैकड़ों छोटे-व्यापारियों की दुकानें चैपट हो जाती हैं। गंभीर मरीज अस्पताल तक पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ देते हैं। शाहीन बाग और किसानों जैसे धरने यदि हफ्तों तक चलते रहते हैं तो देश को अरबों रु. का नुकसान हो जाता है। रेल रोको अभियान सड़कबंद धरनों से भी ज्यादा दुखदायी सिद्ध होते हैं। ऐसे प्रदर्शनकारी जनता की भी सहानुभूति खो देते हैं। उनसे कोई पूछे कि आप किसका विरोध कर रहे हैं, सरकार का या जनता का? प्रश्न यह भी है कि इस तरह के प्रदर्शन से किसका हित सध रहा है, किसानों का या राजनीतिक दलों का?
लम्बे समय से कृषि कानूनों के विरोध में जो किसान आन्दोलन चल रहा है, वह किसानों के हितों का आन्दोलन न होकर राजनीतिक स्वार्थों को सिद्ध करने का षडयंत्र है, जिसमें अनेक विदेशी शक्तियां देश को कमजोर करने के लिये जुटी है। हम व्यवस्था से समझौता कर सकते है, लेकिन सिद्धांत के साथ कभी नहीं, किसी कीमत पर भी नहीं। समझ एवं शांति चाहने वाले लोग कहते हैं कि कोई भी आन्दोलन केवल घाव देता है, आखिर तो टेबल पर बैठना ही होता है। शांति को मौका देने की यह बात वे किससे कहते हैं? उनसे जो शांति चाहते हैं या उनसे जो शांति भंग कर रहे हैं? अब हमें देश को कमजोर करने और अलगाववाद के विरुद्ध हमें नये समीकरण खोजने होंगे। उनकी इच्छा का व्याकरण समझना होगा। वे सिर्फ शांति की अपील से आन्दोलन वापिस नहीं लेंगे। यदि यह सब इतना आसान होता तो सरकार के बार-बार झूकने एवं किसानों से लम्बे दौर की बातचीत का कोई निष्कर्ष अवश्य सामने आता। अदालत ने इस तरह के धरने चलाने के पहले अब पुलिस की पूर्वानुमति को अनिवार्य बना दिया है, प्रश्न है कि क्या दिल्ली सीमाओं पर चल रहे लंबे धरने पर बैठे किसान अब अदालत की सुनेंगे या नहीं? इन धरनों और जुलूसों से एक-दो घंटे के लिए यदि सड़कें बंद हो जाती हैं और कुछ सार्वजनिक स्थानों पर प्रदर्शनकारियों का कब्जा हो जाता है तो कोई बात नहीं लेकिन यदि इन कुचेष्टाओं से मानव-अधिकारों का लंबा उल्लंघन होगा तो पुलिस-कार्रवाई न्यायोचित ही कही जाएगी। क्या पुलिस ऐसी कार्रवाई के लिये सक्षम एवं तत्पर है? क्या सत्ताधारी पार्टी इस तरह का खतरा उठा पाएंगी? देखने में आ रहा है पुलिस देशद्रोह और अशांति भड़काने के आरोपियों पर शिकंजा कसने लगी है। बेंगलुरु की सामाजिक कार्यकत्र्री दिशा रवि को तो गिरफ्तार कर लिया गया है और निकिता जेकब और शांतनु को भी वह जल्दी ही पकडऩे की तैयारी में है। इन तीनों पर आरोप है कि इन्होंने मिलकर षडय़ंत्र किया और भारत में चल रहे किसान आंदोलन को भड़काया। इतना ही नहीं, इन्होंने स्वीडी नेता ग्रेटा टुनबर्ग के भारत-विरोधी संदेश को इंटरनेट पर फैलाकर लालकिला की अस्मिता एवं अस्तित्व को धुंधलाने का सफल प्रयत्न किया। पुलिस ने काफी खोज-पड़ताल करके कहा है कि कनाडा के एक खालिस्तानी संगठन 'पोइटिक जस्टिस फाउंडेशनÓ के साथ मिलकर इन लोगों ने यह भारत-विरोधी षडय़ंत्र किया है।
इस आरोप को सिद्ध करने के लिए पुलिस ने इन तीनों के बीच फोन पर हुई बातचीत, पारस्परिक संदेश तथा कई अन्य दस्तावेज खोज लिये हैं। यदि पुलिस के पास ऐसे ठोस प्रमाण है तो निश्चय ही यह अत्यंत आपत्तिजनक और दंडनीय घटना है। अदालत तय करेगी कि इन अपराधियों को कितनी सजा मिलेगी।
राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है या अपराध का राजनीतिकरण? आतंकवाद, उग्रवाद, नक्सलवाद के बाद अब यह कौन-सा वाद है? जिस प्रकार उग्रवादियों एवं देशद्रोहियों को एक भाषण, एक सर्वदलीय रैली या जुलूस से मुख्यधारा में नहीं जोड़ा जा सकता, ठीक उसी प्रकार राजनीति दलों की सत्ता की राजनीति किसानों के रोग की दवा नहीं हो सकती। किसान आन्दोलन राजनीतिक दलों की एक जबरन एवं अतिश्योक्तिपूर्ण विडम्बना है। आज राष्ट्रीय जीवन में भी बहुत कुछ आवश्यक विडम्बनाएं हैं। जिनसे संघर्ष न करके हम उन्हें अपने जीवन का अंग मान कर स्वीकार कर लेते हैं। पर यह कोई आदर्श स्थिति नहीं है। राष्ट्र के जीवन में विडम्बनाएं तब आती हैं, जब कुछ गलत पाने के लिए कुछ अच्छे को छोडऩे की तुलनात्मक स्थिति आती है। यही क्षण होता है जब हमारा कत्र्तव्य कुर्बानी मांगता है। ऐसी स्थिति झांसी की रानी, भगतसिंह से लेकर अनेक शहीदों के सामने थी। जिन्होंने मातृभूमि की माटी के लिए समझौता नहीं किया। कत्र्तव्य और कुर्बानी को हाशिये के इधर और उधर नहीं रखा।
आज देश के सम्मुख संकट इसलिए उत्पन्न हुआ कि हमारे देश में सब कुछ बनने लगा पर राष्ट्रीय चरित्र नहीं बना और बिन चरित्र सब सून........। राष्ट्रीयता और शांति चरित्र के बिना ठहरती नहीं, क्योंकि यह उपदेश की नहीं, जीने की चीज है। हमारे बीच गिनती के लोग हैं जिन्हें इस स्थान पर रखा जा सकता है। पर हल्दी की एक गांठ को लेकर थोक व्यापार नहीं किया जा सकता।
न राष्ट्रीयता आसमान से उतरती है, न शांति धरती से उगती है। इसके लिए पूरे राष्ट्र का एक चरित्र बनना चाहिए। वही सोने का पात्र होता है, जिसमें राष्ट्रीयता रूपी शेरनी का दूध ठहरता है।
वही उर्वरा धरती होती है, जहां शांति का कल्पवृक्ष फलता है। अन्यथा हमारा प्रयास अंधेरे में काली बिल्ली खोजने जैसा होगा, जो वहां है ही नहीं।
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