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ललित गर्ग 
आज पश्चिम बंगाल के चुनाव का मुद्दा राष्ट्रीय चर्चा एवं चिन्ता की प्राथमिकता लिये हुए है। संभवत: आजादी के बाद यह पहला चुनाव हैं जो इतना चर्चित, आक्रामक होकर राष्ट्रीय अस्मिता एवं अस्तित्व का प्रश्न बन गया है। इसलिये जरूरी है कि अब पश्चिम बंगाल पर औपचारिक या राजनीतिक लाभ वाले भाषण नहीं हों। जो कुछ हो वह साफ-साफ हो। एक राय का हो। पश्चिम बंगाल की अखण्डता, लोकतांत्रिक समाधान और उसे शांति एवं समृद्धि की ओर ले जाना देश की प्राथमिकता की सूची में पहले नम्बर पर होना चाहिए। देश के अल्पसंख्यक क्यों भूल जाते हैं कि पश्चिम बंगाल सुरक्षित नहीं तो वे कैसे सुरक्षित रह सकते हैं, उनका मौन बहुत बड़ा अहित कर रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मजबूत संकल्प शक्ति के कारण जम्मू-कश्मीर की फिजां बदली है। उनकी राष्ट्रीयता एवं उसे मजबूती देने का संकल्प उनका सबसे बड़ा राजनीतिक गुण है और यह बात आम मतदाता को आसानी से समझ भी आती है। निस्संदेह, हर इंसान की कुछ न कुछ चाहत होती है, लेकिन उसे कामयाबी तभी मिलती है, जब उसकी इच्छाशक्ति मजबूत हो। आज पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र के सशक्तीकरण एवं राजनीतिक परिवर्तन की अपेक्षा सभी कोई महसूस कर रहे हैं। इसी अपेक्षा के रथ पर भारतीय जनता पार्टी सवार होकर इसे एक चुनौती के रूप में लिया है और इसी अनुरूप चुनावी संकल्पों की संरचना एवं रणनीति बनाने में वह जुटी है। इसी कारण पश्चिम बंगाल ऐसे ही संकल्पों का रणक्षेत्र बन गया है। भाजपा ने जिस तरह से इसे कुरुक्षेत्र का मैदान बना दिया है, यहां परिवर्तन लाना और ममता बनर्जी का राजनीतिक नियंत्रण खत्म करना भाजपा का सबसे बड़ा लक्ष्य है। यही कारण है कि गृहमंत्री एवं पार्टी के चाणक्य माने जाने वाले सबसे कद्दावर नेता अमित शाह लम्बे समय से अपनी सारी शक्ति, सोच एवं ऊर्जा पश्चिम बंगाल में खपा रहे हैं। निश्चित ही उनके हर दिन के प्रयत्न पार्टी में कुछ नया उत्साहपूर्वक परिवेश बना रहे हैं, पार्टी की जीत को सुनिश्चित कर रहे हैं। बावजूद इसके पार्टी नेतृत्व जानता है कि ममता को कमतर आंकना उसकी भूल साबित होगी। ममता बनर्जी एक जुझारू एवं जमीन से जुड़ी नेता हैं। उसका एक राजनीतिक वजूद है, जनता पर उसकी पकड़ है। उसकी स्वतंत्र सोच है, जीत किस तरह सुनिश्चित की जा सकती है, यह गणित उसे भलीभांति आता है। उसे परास्त करना एक बड़ी चुनौती है।
भाजपा ने स्वल्प समय में सफलता के नये कीर्तिमान गढ़े है, नरेन्द्र मोदी ने तो अपनी राजनीतिक दूरदर्शिता, नेतृत्व क्षमता एवं कौशल से अनेक अनूठे एवं राजनीतिक कीर्तिमान गढ़े ही है। लेकिन जब अमित शाह भाजपा के अध्यक्ष बने थे, तभी उन्होंने संकल्प व्यक्त किया था कि भाजपा को अखिल भारतीय पार्टी बनाना एवं गैरभाजपा प्रांतों में भाजपा की सरकारें बनाना उनका सपना है। उन्होंने साफ-साफ कहा था कि पूर्व और दक्षिण में भाजपा कमजोर है, जिसे मजबूत बनाने की तरफ ध्यान दिया जाएगा। आज पूर्वोत्तर तक में पार्टी पहुंच गई है, जबकि दक्षिण में कर्नाटक में उसका झंडा लहरा रहा है। ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर उनकी नजर पश्चिम बंगाल पर है, जो राजनीतिक रूप से संवेदनशील और सांस्कृतिक रूप से बेहद उर्वर राज्य है।
असम में भाजपा की सरकार है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने असम में एक रैली को संबोधित करते हुए संकेत दिया कि मार्च 2021 के पहले हफ्ते में चुनाव आयोग वहां चुनाव तारीखों की घोषणा कर सकता है। बहरहाल, असम के साथ ही पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी में भी चुनाव होने वाले हैं और इनकी धमक काफी पहले से सुनाई दे रही है। भाजपा ने चुनाव चाहे नगरपालिका के हो या पंचायतों के, विधानसभा के हो या लोकसभा के, उसे जहां पहली बार अपनी सहभागिता करनी थी एवं जहां जीत का परचम फहराना था, वहां उसके लिये कोई चुनाव छोटा या गैरमामूली नहीं होता। हैदराबाद के नगरपालिका चुनावों पर भी भाजपा की हफ्तों चहल-पहल हमने हाल में देखी है। लोकतंत्र के लिए निश्चित रूप से यह एक अच्छी बात है, इस सदाबहार चुनावी गहमागहमी की अगुआई भाजपा कर रही है। उसी ने इसको शुरू किया और वही आगे भी बढ़ा रही है।
इस बार चुनाव तो पांच विधानसभाओं के होने वाले हैं लेकिन दो राज्यों से ज्यादा ही चुनावी उग्रता एवं गहमागहमी की खबरें आ रही हैं। असम, जहां बीजेपी सत्ता में है और पश्चिम बंगाल, जहां वह पहली बार सत्ता की दौड़ में शामिल है। केरल में वाम मोर्चे की सरकार को चुनौती कांग्रेस की तरफ से है जबकि तमिलनाडु में मुख्य लड़ाई एआईएडीएमके और डीएमके के बीच है। पुडुचेरी में बीजेपी का कोई निर्वाचित विधायक नहीं है लेकिन तीन मनोनीत विधायकों के जरिये वहां विधानसभा में उसकी उपस्थिति बनी हुई है। केरल में मेट्रोमैन ई श्रीधरन के भाजपा मे आने और पुडुचेरी में छह विधायकों के इस्तीफे के कारण नारायण सामी सरकार गिरने के बाद कहा जाने लगा है कि इन राज्यों के चुनाव में भी भाजपा का दखल निर्णायक रहेगा। एक कमाल की बात इधर यह हुई है कि 'प्यार और जंग में सब जायज हैÓ, वाले सूत्रवाक्य में चुनाव में भी सब जायज ही जायज है, भले श्रीधरन की उम्र 80 हो। चुनाव में राजनीतिक दबाव बनाने के लिये सभी तरीकों को आजमाया जाना भी सभी आदर्श की बातों को किनारे कर देता है, बंगाल में भाजपा की सरकार का दावा किया जा रहा है और यह हकीकत बन भी सकता है क्योंकि ममता का पूरा ध्यान चुनाव में जीत पर केन्द्रित है और इसके चलते वह बंगाल के लिए कुछ ठोस करने में विफल साबित हुई हैं। यही वजह है कि आज भाजपा विकास की बात करते हुए साम-दाम-दंड-भेद, हर नीति को अपना रही है। उदाहरण मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी के घर पर सीबीआई टीम का पहुंचना है। घोटाले के हर आरोप की स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच होनी ही चाहिए, लेकिन जांच एजेंसियों की इस तेजी को चुनावों से जोड़कर देखने के लिए किसी अतिरिक्त प्रयास की जरूरत नहीं है। भाजपा एवं तृणमूल कांग्रेस के बीच राजनीतिक धमासान छिड़ा हुआ है, नरेंद्र मोदी और ममता बनर्जी दोनों के लिये यह चुनाव राजनीतिक प्रतिष्ठा का चुनाव है, इसलिये येन-केन-प्रकारेण जीत को सुनिश्चित करना दोनों का लक्ष्य है। इसके लिये 'जैसे को तैसाÓ का राजनीतिक दांव चला जा रहा है। 
एक आरोप उधर से उठता है, तो दूसरे यहां से लगाए जाते हैं। हालांकि, दोनों राजनीतिक योद्धाओं में समानताएं भी खूब हैं। दोनों जमीनी नेता हैं और उन्हें विरासत में राजनीति नहीं मिली। दोनों राजनीति में महारत हासिल है और दोनों लोकप्रिय भी खूब हैं- मोदी देश में, तो ममता राज्य में। ऐसे में, पूरा चुनाव मोदी बनाम ममता बन गया है। हालांकि, ममता के सामने मोदी को खड़ा करना भाजपा की मजबूरी भी है, क्योंकि राज्य में उसका कोई चेहरा नहीं है। देखा जाए, तो यही भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती भी है।
पांच चुनावों में सबसे आक्रामक चुनाव बंगाल का होने जा रहा है। इस चुनाव में राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का स्तर एवं भाषा में जबर्दस्त गिरावट देखने को मिल रही है, तू-तू, मैं-मैं हो रही है। दोनों दल एक-दूसरे को सीधे-सीधे टक्कर दे रहे हैं। दोनों के लिये सिद्धान्त से अधिक अहमियत सत्ता की है। लेकिन बंगाल के लिये ज्यादा जरूरी अराजकता एवं अस्थिरता मिटाने के लिये सक्षम एवं प्रभावी नेतृत्व की है, जो भी दल आये उसकी नीति एवं निर्णय में निजता से अधिक निष्ठा की जरूरत है।