शंकर अय्यर
राजनीतिक रूप से ज्वलनशील मुहावरा 'निजीकरणÓ एक बार फिर से सार्वजनिक बहस में लौट आया है। आम तौर पर इतिहास पर नजर डालें, तो यह मुहावरा और निजीकरण का विचार राजनीतिक लाभ के साथ घटता-बढ़ता रहता है। 19वीं सदी में ऑस्ट्रिया में इस्तेमाल किए गए जर्मन शब्द 'प्रिवतिसेरंगÓ से उत्पन्न यह मुहावरा थैचर युग के दौरान प्रचलन में आया। निजीकरण भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में 1991 की बेलआउट कंडिशनलिटीज (राहत संबंधी आर्थिक सुधार) के साथ आया और तबसे राजनीतिक लाभ के लिए इसका आना-जाना लगा रहता है। वर्ष 2021 में इसके प्रकटीकरण का महत्व यही है कि यह विचार निजी व सार्वजनिक बहस के दायरे से परे चला गया है। बजट भाषण में भी इसका जिक्र किया गया और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि पिछले बुधवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुखर होकर इसका समर्थन करने से इसने राजनीतिक मुकाम हासिल कर लिया है, जब उन्होंने घोषणा की कि व्यवसाय चलाना सरकार का काम नहीं है।'
यह पहली बार नहीं है, जब मोदी ने थैचरवाद को अभिव्यक्त किया। वर्ष 2012 में जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तो एक इंटरव्यू में सरकार की भूमिका पर बोलते हुए उन्होंने ठीक यही कहा था और मध्यवर्गीय सपने को जगा दिया था। वास्तव में, मोदी ने पदभार संभालने के कुछ महीनों बाद वाशिंगटन में यूएसआईबीसी की बैठक में सीईओ के बीच यही मंत्र दोहराया। लेकिन ये शब्द निजीकरण में नहीं बदल सके। वास्तव में नीति आयोग ने जिन 34 संस्थानों को चुना है, उनके लिए जिस शब्द का इस्तेमाल किया गया है वह है, 'रणनीतिक विनिवेशÓ। ऑपरेटिंग सीपीएसई की संख्या 2014 में 236 थी, जो बढ़कर 2019 में 249 हो गई है और 2016 के बाद से सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई का एकमात्र बड़ा विनिवेश एचपीसीएल द्वारा सरकारी स्वामित्व वाली ओएनजीसी का किया गया है। तो निजीकरण की वापसी में भाषा एवं रणनीतिक बदलाव के क्या मायने हैं? इसका जवाब अर्थशास्त्र की राजनीति में मिलता है। मोदी के शासन में आर्थिक नीति किसी विचारधारा से नहीं, बल्कि उद्यमशीलता से जुड़ी हुई है, यह संभावनाओं और राजनीतिक लाभांश के रैखिक गुणांक पर टिकी हुई है।
बिहार और दिल्ली के चुनावों में झटका खाने के बाद भूमि अधिग्रहण पर बहस के दौरान 'सूट-बूट की सरकारÓ कहे जाने पर मोदी ने कल्याणकारी अर्थशास्त्र का विस्तार किया और उसे हिंदुत्ववादी राजनीति में लपेट दिया। वर्ष 2021 में राज्यसभा में भाजपा की स्थिति बेहतर है और विपक्ष प्रभावहीन हो गया है। 2014 के लोकप्रिय जनादेश का लोकप्रिय सरकार में रूपांतरण राजनीतिक उद्यमशीलता की अनुमति देता है। यह बदलाव आर्थिक वास्तविकताओं से प्रेरित है। निजीकरण का मुद्दा अब बजट दस्तावेजों के विवरण में क्यों अंतर्निहित है? सरकार की आय और व्यय के बीच का अंतर 7.96 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 18.48 लाख करोड़ रुपये हो गया और इसके 15.06 लाख करोड़ रुपये हो जाने की आशंका है। इस घाटे को पाटने के लिए सरकार इस साल 12 लाख करोड़ रुपये उधार लेगी, यानी हर दिन लगभग 3,287 करोड़ रुपये या प्रति घंटे 136 करोड़ रुपये। इस तस्वीर को और भी बदतर बनाता है विकृत राजस्व मॉडल। पेट्रो उत्पादों पर टैक्स, जिसके कारण उचित ही हंगामा बरपा है, पांच लाख करोड़ रुपये से अधिक के संग्रह के साथ राजस्व का सबसे बड़ा एकल स्रोत है। रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास द्वारा मुद्रास्फीति के परिणामों की व्याख्या की गई।
हालांकि अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट रही है, पर उधार और घाटे का स्तर लागत प्रतिस्पर्धा और आर्थिक विकास को नुकसान पहुंचाएगा। कम लागत-उच्च वृद्धि वाली अर्थव्यवस्था के लिए रास्ते बनाने के लिए सरकार को उधार में कटौती करनी चाहिए और कर्ज व घाटे के स्तर को कम करना चाहिए। और इसका मूलमंत्र निश्चित रूप से निजीकरण है। यह संपत्ति के मौद्रीकरण, सार्वजनिक धन के क्षरण पर रोक लगाने, मानव और भौतिक ढांचे के संसाधनों को मुक्त करने और उद्यमशीलता में सुधार लाकर उन्नत विकास के वादे को पूरा करता है। यह जानना शिक्षाप्रद है कि चीन ने कैसे गरीबी से समृद्धि तक का सफर तय किया। उसने विकास के लिए सुधारों का पालन किया—उसने सबसे पहले कृषि का आधुनिकीकरण किया, खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए रास्ता खोला और वैश्विक व्यापार पर कब्जा कर लिया। भारत जब स्वतंत्र हुआ, तो इसने राजनीतिक अधिकारों की स्वतंत्रता तो दी, लेकिन आर्थिक स्वतंत्रता को बेडिय़ों में जकड़ दिया। 1991 के बाद इसने वित्तीय क्षेत्र को खोला, लेकिन विनिर्माण में एफडीआई पर भारी नियंत्रण लगा दिया। यह वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए जरूरी क्षमता हासिल किए बगैर ही गैट (जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ ऐंड ट्रेड) और विश्व व्यापार संगठन में शामिल हो गया। और हाल तक इसने खेती को, अपने सबसे बड़े निजी क्षेत्र को, जंजीरों में जकड़कर रखा। इसके परिणाम आय और असमानता के आंकड़ों में दिखते हैं।
नीति के लिए संदर्भ महत्वपूर्ण है खासकर, वैश्विक वित्त और भू-राजनीति की स्थिति। वैश्विक ब्याज दरें शून्य और एक प्रतिशत के बीच हैं। धन लाभ का पीछा करता है जो उभरती अर्थव्यवस्थाओं के पोर्टफोलियो प्रवाह से स्पष्ट है। मैकिंजे के एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि पांच साल में माल निर्यात के चालीस खरब डॉलर का निर्यात आधार बदल जाएगा। इसलिए भारत की जरूरतें और वैश्विक अवसरों के नजरिये से नीति में बदलाव देखना महत्वपूर्ण है चाहे वह कृषि कानून हो, उत्पादकता से जुड़ी योजनाएं हों, एफडीआई की शुरुआत हो, श्रम कानूनों की नई संहिताएं हों, और निजीकरण हो। इसमें कोई संदेह नहीं कि नीतिगत सुधार जोखिम से जुड़े हुए हैं-मसलन पहले ही यूनियनें भारत बंद की योजना बना रही हैं। हालात प्रतिस्पर्धा और विरोधाभासों के बीच राजनीतिक मार्गदर्शन की मांग करते हैं। सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि आम सहमति बनाने में राजनीति कैसे कामयाब होती है।
मेरी पुस्तक एक्सीडेंटल इंडिया ने साबित किया है कि भारत में दरिद्रता से लेकर समृद्धि की संभावना तक संकटों से प्रेरित है। स्वास्थ्य एवं आर्थिक संकट से बाहर निकलते ही दुनिया अपने-आप व्यापक व्यवधानों के कारण खोज लेगी। उभरती हुई चुनौती भी एक अवसर है और भारत को उच्च कक्षा में जाने के लिए एक मौका देती है।
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