पंकज चतुर्वेदी
इस साल की बरसात का यह छठा दिन है जब बादल बरसे और देश की आर्थिक राजधानी मुंबई की रफ्तार थम गई। जो सड़कें सरपट यातायात के लिए बनाई गई थीं, वहां नाव चलाने की नौबत आ गई। जिस नगरपालिका की आमदनी किसी राज्य या दुनिया के कई देशों के सालाना बजट से ज्यादा हो, वहां बीते दस वर्षों में 16 हजार करोड़ रुपये का नुकसान केवल जलभराव के कारण होना इस रुपहले महानगर के लिए चिंता की बात है। जब कभी मुंबई के डूबने की घटना होती है, उसका दोष यहां की पुरानी सीवर लाइन पर मढ़ दिया जाता है, जबकि हकीकत यह है कि मुंबई की डूब का असली कारण महानगर की चार नदियों को खुले सीवर में बदल देना है।
मुंबई की ये नदियां महज बरसात के पानी को समेट कर सहजता से समुद्र तक पहुंचाने का काम ही नहीं करती थीं। इन नदियों के तट पर बसे मैनग्रोव वनों के चलते बाढ़ बस्ती में जाने से ठिठक जाती थी। 1980 से 2020 तक के चार दशकों में इस महागर की आबादी चार गुनी हो गई। समुद्र से घिरी इस आबादी के लिए बाहर फैलकर अपनी जमीन को बढ़ाना तो संभव था नहीं, सो चारों नदियों के किनारे उजाड़े गए और महानगर की सुरक्षा दीवार कहलाने वाले मैनग्रोव जंगलों को ही रास्ते से हटा दिया गया। मुंबई कभी समुद्र के बीच में सात द्वीपों का समूह था। पहले पुर्तगाली और उसके बाद ब्रितानी शासकों ने और उसके बाद हमारे राजनेताओं ने खाडिय़ों में मलबा भर कर जमीन से सोना बनाया और महानगर को तीन तरफ समंदर से घिरे बेतरतीब अर्बन स्लम में बदल दिया।
ऐसी जगह कम ही बची जहां कुदरत की नियामत वर्षा बूंदें धरती में जज्ब हो सकें। अभी जो भी पानी शहर में गिरता है, वह नालियों के रास्ते समुद्र की भागता है। जहां व्यवधान मिला, वहीं ठिठक भी जाता है। हर बारिश में हिंदमाता, दादर, परेल, लालबाग, कुर्ला, सायन, माटुंगा, अंधेरी, मलाड के अलावा वे सभी इलाके, जहां नदियों का मिलन समुद्र से होता है, घुटनों से कमर तक पानी में होते हैं। मुंबई का डूबना तभी तय हो गया था, जब यहां की चार नदियों- मीठी, दहिसर, ओशिवारा और पोइसर की अनदेखी की गई। मुंबई में पानी बचाने के लिए संघर्ष कर रहे आबिद सुरती के साथ मैंने इन नदियों को देखा तो पाया कि ये घरेलू और औद्योगिक कचरा ढोने का रास्ता भर रह गई हैं। इनके किनारों पर बस्तियां बसा ली गईं। वहां लगे मैनग्रोव जंगलों को कचरादान बना दिया गया।
नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल की रिपोर्ट में कहा गया है कि अभी बचे 6600 हेक्टेयर मैनग्रोव में 8000 टन प्लास्टिक कचरा भरा हुआ है। मीठी नदी और माहिम की खाड़ी के इलाकों में बिल्डरों ने विकास के नाम पर मैनग्रोव के जंगलों का विनाश किया। सुरती की संस्था 'ड्रॉप डेडÓ का आकलन है कि जमीन और समुद्र के बीच रक्षा कवच बनाने वाले मैनग्रोव के जंगलों का 40 फीसदी हिस्सा 1995 से 2005 के बीच तहस-नहस हुआ। सन 2005 की भयावह बाढ़ के कारणों की जांच में पता चला था कि तबाही का असली कारण मीठी नदी का उफान था।
मुंबई शहर की सबसे लंबी नदी मीठी संजय गांधी नेशनल पार्क के करीब से निकल कर साकीनाका, कुर्ला, धारावी होते हुए 25 किलोमीटर का सफर तय कर माहिम की खाड़ी में मिल जाती है। मुंबई एयरपोर्ट बनाने के लिए इसके दोनों तरफ दीवार बना कर नदी को चार बार समकोण में मोड़ा गया। यहां अब खूब जलभराव होता है क्योंकि इस समूचे दायरे में नदी का कोई तट ही नहीं बचा, जहां पानी जमीन से रिसकर भूगर्भ में जा सके। 12 किलोमीटर लंबी दहिसर नदी श्रीकृष्ण नगर, कांदरपाड़ा के रास्ते मनोरी क्रीक के जरिये अरब सागर में समाती है। सात किलोमीटर लंबी ओशिवारा नदी भवन निर्माण के मलवे से भरी है तो लगभग उतनी ही लंबी पोइसर नदी को प्लास्टिक कचरे ने ढक दिया है। इसका मार्वे की खाड़ी तक पहुंचने का रास्ता ही गुम सा हो गया है।
इन नदियों में प्रवाह अब लगभग बंद है, सो बरसात होते ही इनकी तरफ आता पानी उफन कर बाहर चला आता है। यदि उसी समय हाई टाइड यानी समु्द्र में ज्वार का काल हो तो इन नदियों पर समुद्री पानी की उलटी मार पड़ती है। नतीजा यह होता है कि नदियों की जगह घेरकर बने घर, कालोनी, सड़क, बाजार सब जलमग्न हो जाते हैं। इनको साफ करने के लिए करोड़ों की योजनाएं चलती रहती हैं, लेकिन इसके लिए सबसे जरूरी काम, नदियों के प्राकृतिक मार्ग से अतिक्रमण हटाने की इच्छाशक्ति कोई नहीं जुटा पाता है।
मुंबई का ड्रेनेज सिस्टम 20वीं सदी की शुरुआत का है। इसकी क्षमता करीब 25 मिलीमीटर पानी प्रति घंटे निकालने की है, जबकि भारी बारिश के समय जरूरत 993 मिलीमीटर प्रतिघंटे तक की हो जाती है। इसीलिए जगह-जगह पानी भर जाता है। ऐसे में चारों नदियां गहरी और निर्बाध प्रवाह की हों तो जलभराव काफी कुछ रुक सकता है। मौसम के वैश्विक बदलाव और बढ़ते तापमान को ध्यान में रखते हुए मुंबई की नदियों का महत्व और बढ़ गया है। कई अंतरराष्ट्रीय शोध बताते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग से समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा और सन 2050 तक मुंबई के अधिकांश दक्षिणी हिस्से हर साल कम से कम एक बार प्रोजेक्टेड हाई टाइड लाइन से नीचे जा सकते हैं।
प्रोजेक्टेड हाई टाइड लाइन तटीय भूमि पर वह निशान है जहां तक सबसे उच्च ज्वार के पहुंचने की आशंका जताई गई होती है। यानी यहां मुंबई के सबसे महंगे इलाकों के साल में एक बार समुद्र में डूब जाने की बात कही जा रही है। इस डूब का खतरा समुद्र को जोडऩे वाली नदियां ही कम कर सकती हैं। यह भी कड़वी सचाई है कि क्लाइमेट चेंज के कारण अरब सागर से नमी भरी हवाओं का चलन बदला है। इसके कारण मध्य भारत में अचानक भारी बारिश होने लगी है और बाढ़ का खतरा मुंबई के लिए स्थायी होता जा रहा है।