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अनिरुद्ध जोशी
हिंमाचल के मंडी जिले के मंडी नगर से 125 किमी दूर दक्षिण-पूर्व में समुद्र तल से लगभग 1404 मीटर की ऊंचाई पर हिमालय की पीर पंजाल पर्वत श्रेणी में बसी रहस्य और मंदिरों की घाटी करसोग घाटी अपने पारंपरिक रीति-रिवाजों, अनूठी लोक-संस्कृति, पौराणिक मंदिरों व सेब के बगीचों व देवदार, चील, अखरोट, ढेरों जड़ी-बूटियों आदि के पेड़ों से सजी एक ऐसी अनछुई घाटी है जिसका सौंदर्य देखते ही बनता है। शिमला से इसकी दूरी 106 किमी है। आओ जानते हैं इसके अद्भुत रहस्य।
  पांडवों ने अज्ञातवास के दौरान यहीं पर समय बिताया था और माना जाता है कि वे यहीं से हिमालय को पार करके उत्तर की ओर गंधमादन पर्वत पहुंच गए थे, जहां भीम की मुलाकात रामभक्त हनुमान से हुई थी। द्वापर युग में पांडव जब अपने अज्ञातवास में थे तब उन्होंने कुछ समय करसोग घाटी में गुजारा था। वे अपनी पूजा-अर्चना इसी स्थान पर ही करते थे।
  सेवफल बराबर का गेहूं का दाना : यहां पांडवकाल से भी पुराना एक मंदिर है जिसे ममलेश्वर मंदिर कहा जाता है। यहां रखी दो चीजें हैरान कर देती है। पहला भेखल की झाड़ी से बना लगभग डेढ़ फुट व्यास का ढोल और दूसरी एक लगभग 150 ग्राम वजन (आकार में इतना कि पूरी हथेली भर जाए) का कनक का दाना। जहां तक कनक (सोना या धतूरा) के दाने की बात है तो कुछ लोग इसे गेहूं का दाना भी कहते हैं। यदि यह गेहूं का दाना है तो निश्चित ही हैरान करने वाला है। हालांकि यह शोध का विषय है। मांहुनाग के मंदिर में भी ऐसा ढोल है, जो उसी झाड़ी के शेष भाग से निर्मित मानी जाती है। यहीं पर स्थित मांहुनाग को महाभारत के कर्ण का रूप माना जाता है। यह पूरे सुकेत रियासत में पूजा जाने वाला वाला देव है, जो लोगों की सांप, कीड़े-मकौड़ों आदि से रक्षा करता है।
3.माना जाता है कि मंदिर परिसर में लगभग 100 से ज्यादा शिवलिंग भी दबे हुए हैं, लेकिन इनमें से कुछ को निकाला जा चुका है। इस मंदिर के साथ एक पुराना मंदिर भी है, जो बंद पड़ा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि मंदिर पुराने समय में भुंडा यज्ञ के लिए खोला गया था। यहां पांडव काल की कई दुर्लभ वस्तुएं मौजूद हैं।
 गर्म और ठंडे पानी की धारा एक साथ : करसोग से शिमला की ओर जाते हुए मार्ग में 'तत्ता पानीÓ नामक खूबसूरत स्थल है। यह स्थल सल्फरयुक्त गरम जल के चश्मों के लिए मशहूर है। एक ओर बर्फ की तरह सतलुज का ठंडा जल अगर शरीर को सुन्न कर देता है तो वहीं इस नदी के आगोश से फूटता गरम जल पर्यटकों के लिए किसी अजूबे से कम नहीं है।
सतलुज के छोर पर सल्फरयुक्त गर्म पानी से नहाने लोग वर्षभर यहां आते हैं। मंडी से आगे 46 किलोमीटर दूर छतरी का मगरू महादेव मंदिर है जिसकी काष्ठकला जगप्रसिद्ध है।
5. करसोग घाटी में देवदार के घने जंगलों से घिरी प्रमुख 3 झीलें हैं, जो प्रकृति प्रेमियों को अभिभूत कर देती हैं। पहली पराशर झील, दूसरी कमरूनाग झील और तीसरी रिवालसर झील। पराशर झील के पास पराशर मुनि का मंदिर भी बना हुआ है। कहते हैं कि पानी के लिए जब ऋषि पराशर ने अपना गुर्ज जमीन पर मारा तो पानी की धारा प्रस्फुटित हो गई और इस धारा ने झील का रूप धारण कर लिया, लेकिन उस भूमि को पानी की एक बूंद भी भिगो नहीं पाई जिस भूमि पर ऋषि तपस्या में लीन थे।
6. कमरूनाग झील में दबा है खजाना : कमरूनाग झील के किनारे कमरूनाग देवता का प्राचीन मंदिर है। किंवदंती के अनुसार कमरूनाग राजा रत्न यक्ष थे। पिछले जन्म में कमरूनाग के रूप में अवतरित हुए थे। महाभारत युद्ध के उपरांत पांडवों ने उन्हें अपना आराध्य देव मानकर इस स्थान पर उनकी स्थापना की। कमरूनाग को बारिश का देवता माना जाता है। माना जाता है कि कमरूनाग झील सबसे प्राचीन है। स्थानीय लोग इस झील में अरबों का खजाना होने का अनुमान लगाते हैं। कहते हैं कि यह खजाना किसी ने छिपाया नहीं है, बल्कि लोगों ने ही आस्?थावश यहां आभूषण आदि झील के हवाले कर दिए हैं और ऐसा हजारों वर्षों से होता आ रहा है। झील में सदियों से सोना-चांदी चढ़ाने की परंपरा का निर्वहन हो रहा है।
7. रिवालसर झील : रिवालसर बौद्ध गुरु एवं तांत्रिक पद्मसंभव की साधना स्थली मानी जाती है। यह झील मंडी से 25 किमी दूर है। प्रायश्चित के तौर पर लोमश ऋषि ने शिवजी के निमित्त रिवालसर में तपस्या की थी। कहते हैं गुरु गोविंदसिंह ने मुगल साम्राज्य से लड़ते समय सन् 1738 में रिवालसर झील के शांत वातावरण में कुछ समय बिताया था।
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?रिवालसर झील अपने बहते रीड के द्वीपों के लिए लो?कप्रिय है। कहा जाता है कि इनमें से 7 द्वीप हवा और प्रार्थना से हिलते हैं। प्रार्थना के लिए यहां एक बौद्ध मठ, हिन्दू मंदिर और एक सिख गुरुद्वारा बना हुआ है। इन तीनों धार्मिक संगठनों की ओर से यहां नौकायन की सुविधा मुहैया कराई जाती है।

इस झील पर अकसर मिट्टी के टीले तैरते हुए देखे जा सकते हैं, जिन पर सरकण्डों वाली ऊंची घास लगी होती है। टीलों के तैरने की अद्भुत प्राकृतिक प्रक्रिया ने रिवालसर झील को सदियों से एक पवित्र झील का दर्जा दिला रखा है। वैज्ञानिक तर्क चाहे कुछ भी हो, परंतु टीलों का चलना दैविक चमत्कार माना जाता है।
ठहरने के स्थान : करसोग घाटी में मध्य दिसंबर से मध्य फरवरी माह में जाना ठीक नहीं है, क्योंकि इन महीनों में बर्फ के कारण रास्ते बंद होने का खतरा हमेशा बना रहता है। यहां ठहरने के लिए सरकारी रेस्ट हाउस, रेस्तरां, सराय की उचित व्यवस्था के कारण आप आराम से यहां रह सकते हैं। इस घाटी के लिए दिन-रात बस के साथ-साथ टैक्सी आदि की सुविधा के कारण पर्यटक आसानी से यहां पहुंच पाते हैं।