श्याम सुंदर भाटिया
पड़ोसी मुल्क में डेढ़ बरस की नूरा कुश्ती के बाद अंतत: एक बार फिर नेपाल मिड टर्म पोल के मुहाने पर आ गया। नेपाल की प्रेसिडेंट बिद्या देवी भंडारी ने सभी दलों को सरकार बनाने का मौका दिया ताकि मध्यावधि चुनाव को टाला जाए लेकिन रूलिंग पार्टी समेत सभी दल साझा या एकल सरकार के गठन में नाकाम रहे तो प्रेसिडेंट ने 21 मई की देर शाम संसद भंग करते हुए नवंबर में तय तिथियों में चुनाव का ऐलान कर दिया। हालांकि इससे पूर्व एक बार फिर प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और विपक्षी दलों ने सांसदों के हस्ताक्षर वाले पत्र सौंपकर सरकार बनाने का दावा किया था। चूंकि कुछ सांसदों के नाम इन दोनों पत्रों पर कॉमन थे,इसीलिए राष्ट्रपति भंडारी ने बड़ा फैसला लेते हुए प्रतिनिधि सभा - संसद को भंग कर दिया। नेपाल में अब 12 और 19 नवंबर को चुनाव होंगे। सूत्र बताते हैं,ओली ने भी पहले ही संसद में अपनी सरकार का बहुमत साबित करने के लिए एक और बार शक्ति परीक्षण से गुजरने में अनिच्छा जता दी थी,हालांकि ओली को 30 दिनों में बहुमत सिद्ध करना था। यह कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए, पीएम के मंसूबों पर पानी फिर गया है। सच मानिए,नेपाल में पेंडुलम की मानिंद सियासत को अब कड़ा इम्तिहान देना होगा,क्योंकि संविधान बनने के बाद नेपाल में गठबंधन की सियासत तो फेल हो गई है।
पीएम ओली और चार बार नेपाल के पूर्व पीएम रहे शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व में विपक्षी दलों दोनों ने ही राष्ट्रपति भंडारी को अपने - अपने हक में समर्थक सांसदों के हस्ताक्षर वाले पत्र सौंपकर नई सरकार बनाने का दावा पेश किया था। इसके बाद गेंद राष्ट्रपति के पाले में आ गई थी। मगर राष्ट्रपति ने दोनों के दावों को संवैधानिक तराजू पर तौलने के बाद इन्हें खारिज करके मध्यावधि चुनाव का शंखनाद कर दिया। हकीकत यह है, नेपाल का पॉलिटिकल क्राइसिस 21 मई को उस वक्त और गहरा गई थी, जब प्रधानमंत्री ओली और विपक्षी दलों दोनों ने ही राष्ट्रपति को सांसदों के हस्ताक्षर वाले लैटर्स देकर अपनी - अपनी सरकार गठन का दावा ठोंका था। प्रधानमंत्री ओली विपक्षी दलों के नेताओं से कुछ मिनट पहले राष्ट्रपति से मिले। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 76 (5) के अनुसार पुन: प्रधानमंत्री बनने के लिए अपनी पार्टी सीपीएन-यूएमएल के 121 सदस्यों और जनता समाजवादी पार्टी-नेपाल (जेएसपी-एन) के 32 सांसदों के समर्थन के दावे वाला पत्र सौंपा।इससे पहले नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा ने 149 सांसदों का समर्थन होने का दावा किया था। देउबा प्रधानमंत्री पद का दावा पेश करने के लिए विपक्षी दलों के नेताओं के साथ राष्ट्रपति कार्यालय पहुंचे। सत्ता के गलियारों में चर्चा के मुताबिक प्रधानमंत्री ओली ने संसद में अपनी सरकार का बहुमत साबित करने के लिए एक और बार शक्ति परीक्षण से गुजरने में 20 मई को अनिच्छा जता दी थी। नेपाली कांग्रेस (एनसी), कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओइस्ट सेंटर), जनता समाजवादी पार्टी (जेएसपी) के उपेंद्र यादव नीत खेमे और सत्तारूढ़ सीपीएन-यूएमएल के माधव नेपाल नीत ग्रुप समेत विपक्षी गठबंधन के नेताओं ने प्रतिनिधि सभा में 149 सदस्यों का समर्थन होने का दावा किया था, जबकि पीएम ओली की माई रिपब्लिका वेबसाइट के अनुसार इन सदस्यों में नेपाली कांग्रेस के 61, सीपीएन (माओइस्ट सेंटर) के 48, जेएसपी के 13 और यूएमएल के 27 सदस्यों के शामिल होने का दावा किया। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार विपक्षी गठबंधन के नेता 149 सांसदों के हस्ताक्षर के साथ सरकार बनाने का दावा करने वाला पत्र राष्ट्रपति को सौंपने के लिए उनके सरकारी आवास शीतल निवास गए। इस पत्र में शेर बहादुर देउबा को प्रधानमंत्री बनाने की सिफारिश की गई थी।देउबा (74) नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। चार बार नेपाल के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। वह 1995 से 1997 तक, 2001 से 2002 तक, 2004 से 2005 तक और 2017 से 2018 तक इस पद पर रहे हैं। देउबा 2017 में आम चुनावों के बाद से विपक्ष के नेता हैं। गेंद अब राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी के पाले में थी, इसीलिए उन्होंने मध्यावधि चुनाव कराने का अंतत: बड़ा फैसला लिया है। राष्ट्रपति ने राजनीतिक दलों को नई सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिए 21 मई की शाम 5 बजे तक का समय दिया था।सरकार ने 20 मई को राष्ट्रपति भंडारी से सिफारिश की थी कि नेपाल के संविधान के अनुच्छेद 76 (5) के अनुरूप नई सरकार बनाने की प्रक्रिया शुरू की जाए क्योंकि प्रधानमंत्री ओली एक और बार शक्ति परीक्षण से गुजरने के पक्ष में नहीं हैं। प्रधानमंत्री ओली को 10 मई को उनके पुन: निर्वाचन के बाद प्रतिनिधि सभा में 30 दिन के अंदर बहुमत साबित करना था। आशंका थी कि अगर अनुच्छेद 76 (5) के तहत नयी सरकार नहीं बन सकी तो ओली अनुच्छेद 76 (7) का प्रयोग कर एक बार फिर प्रतिनिधि सभा को भंग करने की सिफारिश कर सकते हैं। ओली सीपीएन-यूएमएल के अध्यक्ष हैं। उन्हें 14 मई को संविधान के अनुच्छेद 76 (3) के अनुसार नेपाल के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गयी थी। इससे चार दिन पहले ही वह संसद में विश्वास मत में पराजित हो गये थे। नेपाल की 275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा में 121 सीटों के साथ सीपीएन-यूएमएल सबसे बड़ा दल है। इस समय बहुमत सरकार बनाने के लिए 136 सीटों की दरकार है।
बताते चलें, पीएम ओली की सिफारिश पर 20 दिसंबर को राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी ने संसद भंग कर दी थी। साथ ही आनन - फानन में 30 अप्रैल और 10 मई को दो चरणों में चुनाव कराने की घोषणा भी कर दी थी। सरकार के इस फैसले के बाद से नेपाल की सियासत में खलबली मच गई थी, लेकिन जारी सियासी उठापटक के बीच सुप्रीम कोर्ट ने कार्यवाहक प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को एक बड़ा झटका देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने संसद भंग किए जाने के फैसले को पलट दिया था। नेपाल की शीर्ष अदालत में मुख्य न्यायाधीश चोलेंद्र समशेर की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा को भंग करने के सरकार के फैसले को असंवैधानिक करार देते हुए संसद को बहाल कर दिया था। इसके साथ ही कोर्ट ने 13 दिन के भीतर संसद का सत्र आहूत करने का आदेश दिया।
दरअसल अचानक संसद भंग करने के ओली सरकार के फैसले का उन्हीं की पार्टी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी पुष्प कमल दहल प्रचंड और देश की जनता ने भारी विरोध किया था। इसके बाद संसद भंग किए जाने को लेकर अलग-अलग 13 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थीं। इन सभी याचिकाओं में संसद को फिर से बहाल करने की मांग की गई थी। इन सभी याचिकाओं पर जस्टिस बिश्वंभर प्रसाद श्रेष्ठ, जस्टिस अनिल कुमार सिन्हा, जस्टिस सपना मल्ल और जस्टिस तेज बहादुर केसी की मौजूदगी वाली पीठ ने 17 जनवरी से 19 फरवरी तक सुनवाई की, जिस पर 20 फरवरी को कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया था। उल्लेखनीय है, ओली ने 15 फरवरी ,2018 को पीएम की शपथ ली थी। इससे पूर्व ओली और प्रचंड ने सरकार गठन को अपने- अपने दलों का विलय कर दिया था, लेकिन दोनों नेता और दल कभी भी एक - दूसरे को फूटी आंख नहीं भाए। प्रचंड हमेशा यह कहते रहे...एक व्यक्ति - एक पद की सहमति बनी थी,लेकिन ओली पीएम के साथ - साथ संगठन पर भी काबिज हैं। ओली प्रचंड पर सरकार विरोधी रुख और सरकार न चलाने के गंभीर आरोप लगाते रहे हैं।
* लेखक सीनियर जर्नलिस्ट और रिसर्च स्कॉलर हैं।
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