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मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में मौजूद भाई-भतीजावाद को लेकर इधर कुछ दिनों से शुरू हुई बहस का दायरा फैलता ही जा रहा है, लेकिन इसकी धार कुंद हो चुकी है। बहस का अव्वल और आखिर कंगना रनौत ही हैं, जिनकी टीम और जो खुद ट्विटर या किसी टीवी न्यूज चैनल पर रोज ही किसी न किसी पर केंद्रित अपनी बात कहती हैं और फिर दूसरी तरफ से जवाबों का सिलसिला शुरू होता है।
आम लोगों के लिए अब यह किसी तमाशे जैसा है, हालांकि बॉलिवुड के अंधेरे पहलुओं को लेकर बरसों से छाई चुप्पी का टूटना एक लिहाज से अच्छा ही कहा जाएगा। इंडस्ट्री के कुछ हलकों में देखी जा रही बेचैनी के बावजूद इंडस्ट्री से बाहर इस चर्चा को शुरू में बहुत उत्साह से लिया गया। दिक्कत यह हुई कि आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला जैसे-जैसे आगे बढ़ा, इसके दायरे में बहुत लोग आते गए और इसका कोई मतलब निकालना मुश्किल होता गया।
मुंबई फिल्म इंडस्ट्री का वर्किंग मॉडल समय बीतने के साथ कई बार बदला है। ऐक्टर से लेकर राइटर, टेक्नीशन और एक्स्ट्रा तक से वेतनभोगी कर्मचारियों की तरह काम लेने वाली फिल्म कंपनियों से लेकर अभी कुल लागत का आधा हिस्सा रखा लेने वाले सुपर-सितारों तक यह कई बार बदला है। अभी के स्टार सिस्टम को इस इंडस्ट्री के निखरने में एक बड़ी बाधा की तरह देखा जा रहा है।
'शोलेÓ फिल्म की मिसाल लें तो लोगों ने उसे सिर्फ धर्मेंद्र और अमिताभ बच्चन के लिए नहीं, सूरमा भोपाली और अंग्रेजों के जमाने के जेलर के लिए भी कई-कई बार देखा। लेकिन अभी की मेगा फिल्मों के हर फ्रेम में एक ही चेहरा दिखाई देता है। बॉलिवुड की मुख्यधारा इधर काफी समय से ऐसे ही कुछ बड़े सितारों, निर्माता-निर्देशकों और उनके परिजनों के इर्दगिर्द घूमती रही है, जो जब-तब नए लोगों को मौके देते भी हैं तो अपनी शर्त पर। ऐसे में जब नेपोटिज्म और इनसाइडर-आउटसाइडर जैसे जुमलों को लेकर चर्चा शुरू हुई तो लगा कि इस बहस से शायद इंडस्ट्री में ताजा हवा का कोई झोंका आएगा। लेकिन देखते-देखते यह पुराना हिसाब-किताब बराबर करने की मुहिम का रूप लेती चली गई। जिन पर 'नेपोटिज्मÓ का आरोप था वे किनारे हो गए, हमले की जद में ऐसे तमाम अभिनेता, अभिनेत्रियां और निर्देशक आते गए, जिनका फिल्म इंडस्ट्री के पुराने परिवारों से कुछ भी लेना-देना नहीं है। जो इक्का-दुक्का सफलताओं के बावजूद आज भी इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। चाहे वह किसी टॉक शो में हुई मजाकिया बातचीत के आधार पर किसी को किसी की मृत्यु का दोषी बताना हो या किसी खास रोल के लिए इसके बदले उसको चुन लेने को सोची-समझी साजिश करार देना- ब्यौरे बताते हैं कि बॉलिवुड ने खुद को सुधारने का एक बेहतरीन मौका गंवा दिया और कोरोना के ठलुआ दिनों में ऐसी कड़वाहट पाल ली, जिसकी छाप अगले कई सालों तक मुंबइया फिल्मों पर दिखाई देती रहेगी।