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मेडकल खर्च के कारण देश में पहले भी लोग गरीबी की भेंट चढ़ते रहे हैं, लेकिन कोरोना ने उनकी मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। 2012 के आंकड़ों के मुताबिक देश में कुल 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे थे, जिनमें से 5.5 करोड़ अधिक मेडिकल खर्च की वजह से इस दलदल में फंस गए थे। इसकी वजह यह है कि यहां जब कोई बीमार होता है तो उसे इलाज में अपनी जेब से बहुत अधिक पैसा खर्च करना पड़ता है। विश्व बैंक के मुताबिक, भारत में अगर किसी के इलाज पर 100 रुपये का खर्च आता है तो उसमें से 63 रुपये उसे अपनी जेब से देने पड़ते हैं। 
वहीं हमारे पड़ोस भूटान, श्रीलंका और पाकिस्तान में यह खर्च भारत की तुलना में कम है। चीन में भी यह हर 100 रुपये में 30 रुपये के करीब है। अमीर देशों की तो हालत कहीं अच्छी है। अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी में मरीजों को इलाज पर हर 100 रुपये में 20 रुपये से कम खर्च करना पड़ता है तो फ्रांस में यह 9 रुपये के करीब है। बाकी का पैसा सरकार खर्च करती है। भारत में राज्यों की बात करें तो वहां भी जहां गरीबी अधिक है, वहीं के लोगों को इलाज पर जेब से अधिक पैसा खर्च करना पड़ रहा है। बिहार में यह खर्च 99.90 रुपये है। इसके बाद मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और ओडिशा के लोगों को इलाज की खातिर अपनी जेब से काफी अधिक पैसा खर्च करना पड़ रहा है। इस वजह से देश में अधिक से अधिक लोग गरीबी रेखा से नीचे धकेले जा रहे हैं।
1994 से 2014 के बीच नैशनल सैंपल सर्वे डेटा के आधार पर 2018 में एक स्टडी हुई। इसमें दावा किया गया कि 1993-94 में 3.9 फीसदी आबादी के सालाना खर्च में मेडिकल बिल का योगदान 25 फीसदी था। 2011-12 में ऐसे परिवारों की संख्या बढ़कर 4.3 फीसदी हो गई। इस स्टडी में कहा गया था कि इलाज पर खर्च की वजह से देश की करीब 4.5 फीसदी आबादी गरीबी की दलदल में फंस गई। कोरोना महामारी के दौर में रिटायरमेंट फंड से पैसा निकालने की खबरें भी सुर्खियां बनी हैं। छंटनी, वेतन में कटौती के साथ मेडिकल खर्च भी इसकी एक वजह रही है। दूसरे, भारत में सोशल सिक्योरिटी बहुत कमजोर है, इसलिए इलाज जैसे आकस्मिक खर्च से लोगों पर वित्तीय दबाव बढ़ जाता है। इसलिए यह जरूरी है कि सरकार स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च बढ़ाए। इस साल के आर्थिक सर्वे में भी कहा गया था, 'किसी देश की सेहत नागरिकों के समान, किफायती और जवाबदेह चिकित्सा तंत्र पर काफी हद तक निर्भर करती है। सर्वे में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च जीडीपी के 1 फीसदी से बढ़ाकर 2.5-3 फीसदी करने का सुझाव दिया गया था। इसमें कहा गया था कि स्वास्थ्य पर खर्च में इतनी बढ़ोतरी की जाए तो नागरिकों को हर 100 रुपये के खर्च में अपनी जेब से 30 रुपये ही देने पड़ेंगे। स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ाने की मांग लंबे समय से होती रही है और महामारी के दौर में देश ने जो भुगता है, उसका संदेश यही है कि इसमें देर नहीं करनी चाहिए। यह सिर्फ नागरिकों की नहीं, देश की सेहत का सवाल है।