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सुशील भोले
छत्तीसगढ़ की संस्कृति में कई ऐसी संस्कृतियों का भी समावेश हो गया है, जो मुख्य रूप से पड़ोसी राज्यों की संस्कृति कहलाती हैं। ऐसी ही संस्कृतियों में आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया को मनाया जाने वाला पर्व रथयात्रा भी शामिल है। आज इस पर्व को समूचे छत्तीसगढ़ राज्य के शहरी एवं ग्रमीण इलाकों में किसी न किसी रूप में मनाया ही जाता है, जबकि मूल रूप से इस पर्व को ओडिशा राज्य के प्रतिनिधि पर्व के रूप में जानते हैं। 
छत्तीसगढ़ की लोकसंस्कृति में इससे संबंधित गीत भी गाया जाता है, जिसे जगन्नतिहा गीत कहते हैं। पहले जब आवागमन की कोई खास सुविधा नहीं थी तब यहां के श्रद्धालु तीर्थाटन के लिए पैदल ही जगन्नाथपुरी जाते थे। ऐसा कहा जाता है कि इस कठिन यात्रा से जो लोग वापस जिन्दा आ जाते थे, उन्हें समूचे ग्रामवासी बाजागाजा के साथ भगवान जगन्नाथ का यशगान करते घर तक लाते थे। इसे ही जगन्नतिहा गीत कहते हैं। 
पड़ोसी राज्य ओडिशा का पुरी क्षेत्र जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्री जगन्नाथ की मुख्य लीला-भूमि है। उत्कल प्रदेश के प्रधान देवता जगन्नाथ जी ही माने जाते हैं। यहां के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा और श्रीकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्री जगन्नाथ हैं। इसी प्रतीक के रूप श्री जगन्नाथ से संपूर्ण जगत का उद्भव हुआ है। श्री जगन्नाथ पूर्ण परात्पर भगवान है और श्रीकृष्ण उनकी कला का एक रूप है। ऐसी मान्यता श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य पंच सखाओं की है। पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरंभ होती है। यह रथयात्रा पुरी का प्रधान पर्व भी है। इसमें भाग लेने के लिए, इसके दर्शन लाभ के लिए हजारों, लाखों की संख्या में बाल, वृद्ध, युवा, नारी देश के सुदूर प्रांतों से आते हैं। सबसे प्रतिष्ठित समारोह जगन्नाथ पुरी में मनाया जाता है। यह स्थान भुवनेश्वर से साठ किमी की दूरी पर है। यहां का जगन्नाथ मंदिर अपनी ऐतिहासिक रथयात्रा के लिए सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है। 
पश्चिमी समुद्रतट से लगभग डेढ़ किमी दूर उत्तर में नीलगिरि पर्वत पर स्थित यह प्राचीन मंदिर कलिंग वास्तुशैली में बना 12वीं सदी का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण है। इस मंदिर का निर्माण नरेश चोडग़ंग ने करवाया था। नौ दिनों की यह रथयात्रा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करने वाली है। इसे श्री गुण्डिचा यात्रा भी कहते हैं। इस रथयात्रा का विस्तृत वर्णन स्कंद पुराण में मिलता है, जहां श्रीकृष्ण ने कहा है कि पुष्य नक्षत्र से युक्त आषाढ़ मास की द्वितीया तिथि को मुझे, सुभद्रा और बलभद्र को रथ में बिठाकर यात्रा कराने वाले मनुष्य की सभी मनो: कामनाएं पूर्ण होती हैं। इस रथयात्रा महोत्सव में श्रीकृष्ण के साथ राधिका जी न होकर सुभद्रा और बलराम होते हैं, जिसके संबंध में एक विशेष कथा प्रचलित है।
पौराणिक कथा : एक समय द्वारिकापुरी में माता रोहिणी से श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी व अन्य रानियों ने राधारानी व श्रीकृष्ण के प्रेम-प्रसंगों एवं ब्रज-लीलाओं का वर्णन करने की प्रार्थना की। जिस पर माता ने श्रीकृष्ण व बलराम से छिपकर एक बंद कमरे में कथा सुनानी आरंभ की और सुभद्रा को द्वार पर पहरा देने को कहा, किन्तु कुछ ही समय पश्चात् श्रीकृष्ण एवं बलराम वहां आ पहुंचे। सुभद्रा के द्वारा अंदर जाने से रोकने पर श्रीकृष्ण व बलराम को कुछ संदेह हुआ और वे बाहर से ही अपनी सूक्ष्मशक्ति द्वारा अंदर की माता द्वारा वर्णित ब्रजलीलाओं को श्रवण करने लगे।कथा सुनते-सुनते श्रीकृष्ण, बलराम व सुभद्रा के हृदय में ब्रज के प्रति अद्भुत भाव एवं प्रेम उत्पन्न हुआ तथा उनके हाथ व पैर सिकुडऩे लगे। वे तीनों राधा रानी की भक्ति में इस प्रकार भाव-विभोर हो गए कि स्थायी प्रतिमा के समान प्रतीत होने लगे। अत्यंत ध्यानपूर्वक देखने पर भी उनके हाथ-पैर दिखाई नहीं देते थे। 
श्री सुदर्शन ने भी द्रवित होकर लंबा रूप धारण कर लिया। उसी समय देवमुनि नारद वहां आ पहुंचे और भगवान के इस रूप को देखकर अत्यंत आश्चर्यचकित हुए तथा भक्तिपूर्वक प्रणाम करके श्रीहरि से कहा कि हे प्रभु! आप सदा इसी रूप में पृथ्वी पर निवास करें। भगवान श्रीकृष्ण ने कलियुग में इसी रूप में नीलांचल क्षेत्र (पुरी) में प्रकट होने की सहमति प्रदान की। कलियुग आगमन के पश्चात् एक समय मालव देश के राजा इंद्रद्युम्न को समुद्र में तैरता हुआ लकड़ी का एक बहुत बड़ा टुकड़ा मिला। राजा के मन में उस टुकड़े को निकलवा कर भगवान श्रीहरि की मूर्ति बनवाने की इच्छा जागृत हुई। उसी समय देव शिल्पी विश्वकर्मा ने बढ़ई रूप में वहां आकर राजा की इच्छानुसार प्रतिमा निर्माण का प्रस्ताव रखा और कहा कि 'मैं एक एकांत बंद कमरे में प्रतिमा निर्माण करुंगा तथा मेरी आज्ञा न मिलने तक उक्त कमरे का द्वार न खोला जाए अन्यथा मैं मूर्ति-निर्माण बीच में ही छोड़कर चला जाऊंगा"। राजा ने शर्त मान ली, किन्तु कई दिन व्यतीत होने पर भी जब बढ़ई की ओर से कोई समाचार न मिला तो राजा ने द्वार खोलकर कुशलक्षेम लेने की आज्ञा दी।
जब द्वार खोला गया तो बढ़ई रूपी विश्वकर्मा अंतर्धान हो चुके थे और वहां लकड़ी की तीन अपूर्ण मूर्तियां मिलीं। उन अपूर्ण प्रतिमाओं को देखकर राजा अत्यंत दु:खी हो श्रीहरि का ध्यान करने लगे। राजा की भक्ति-भाव से प्रसंन होकर भगवान ने आकाशवाणी की 'हे राजन! देवर्षि नारद को दिए वरदान अनुसार हमारी इसी रूप में रहने की इच्छा है, अत: तुम तीनों प्रतिमाओं को विधिपूर्वक प्रतिष्ठित करवा दो"। 
अंतत: राजा ने श्रीहरि की इच्छानुसार नीलाचल पर्वत पर एक भव्य मंदिर बनवाकर वहां तीनों प्रतिमाओं की स्थापना करवा दी। जिस स्थान पर मूर्ति निर्माण हुआ था, वह स्थान गुण्डिचाघर कहलाता है, जिसे ब्रह्मलोक और जनकपुर भी कहते हैं। ये तीन मूर्तियां ही भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा जी के स्वरूप हैं।
दस दिवसीय महोत्सव : पुरी का जगन्नाथ मंदिर के दस दिवसीय महोत्सव की तैयारी का श्रीगणेश अक्षयतृतीया को श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण से हो जाता है। कुछ धार्मिक अनुष्ठान भी किए जाते हैं।
गरुड़ध्वज : जगन्नाथ जी का रथ गरुड़ध्वज या कपिलध्वज कहलाता है। 16 पहियों वाला यह रथ 13.5 मीटर ऊंचा होता है जिसमें लाल और पीले रंग के वस्त्र का प्रयोग होता है। विष्णु का वाहक गरुड़ इसकी रक्षा करता है। रथ पर जो ध्वज है, उसे 'त्रैलोक्यमोहिनीÓ या 'नंदीघोषÓ रथ कहते हैं।
तालध्वज : बलराम का रथ 'तलध्वज" के नाम से पहचाना जाता है। यह रथ 13.2 मीटर ऊंचा 14 पहियों का होता है। यह लाल, हरे रंग के कपड़े व लकड़ी के 763 टुकड़ों से बना होता है। रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी मताली होते हैं। रथ के ध्वज को 'उनानी" कहते हैं। 'त्रिब्रा", 'घोरा", 'दीर्घशर्मा" व 'स्वर्णनावा" इसके अश्व हैं। जिस रस्सी से रथ खींचा जाता है, वह 'वासुकी" कहलाता है।