संजय गुप्त
उत्तर प्रदेश विधि आयोग की ओर से जनसंख्या नियंत्रण कानून का मसौदा तैयार किए जाने के बाद बीते दिनों मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राज्य की जनसंख्या नीति भी जारी कर दी। इसी के साथ जनसंख्या नियंत्रण को लेकर जारी बहस और तेज हो गई। इसका एक कारण उत्तर प्रदेश की तरह असम सरकार की ओर से भी जनसंख्या नियंत्रण के उपाय करना है। कुछ नेता और बुद्धिजीवी उत्तर प्रदेश सरकार की जनसंख्या नियंत्रण की पहल को न केवल आगामी चुनावों से जोड़ रहे हैं, बल्कि यह भी कह रहे हैं कि इसका उद्देश्य मुस्लिम समुदाय को निशाने पर लेना है। ऐसे लोगों का यह भी मानना है कि इस पहल के सार्थक नतीजे सामने नहीं आएंगे, क्योंकि ऐसे प्रयास पहले भी विफल हो चुके हैं। इन लोगों का तर्क है कि जनसंख्या वृद्धि की मौजूदा रफ्तार को देखते हुए करीब दो-तीन दशक बाद देश की आबादी बढऩे की दर स्थिर हो जाएगी। ये लोग एक तो इसकी अनदेखी कर रहे हैं कि अगले दो-तीन दशक तो जनसंख्या बढ़ती ही रहेगी और दूसरे, योगी सरकार की जनसंख्या नीति में कहीं भी यह संकेत तक नहीं किया गया कि उसका उद्देश्य किसी समुदाय विशेष की आबादी पर रोक लगाना है। वैसे जनसंख्या नियंत्रण की पहल को मुस्लिम समुदाय से जोडऩा एक तरह से इसकी स्वीकारोक्ति है कि इस समुदाय में अन्य समुदायों की अपेक्षा आबादी तेजी से बढ़ रही है।
पता नहीं जनसंख्या नियंत्रण की पहल का विरोध कर रहे लोग यह क्यों नहीं देख पा रहे हैं कि जब अन्य समुदायों ने छोटे परिवार की महत्ता को समझ लिया है तब फिर उसे शेष समुदाय भी समझें तो इसमें बुराई क्या है? यदि शेष समुदाय भी छोटे परिवार की महत्ता समझ लेते हैं तो इससे उनका ही हित होगा। आखिर इस सत्य से मुंह मोडऩे का क्या मतलब कि देश के कई हिस्सों में मुस्लिम समुदाय की आबादी वृद्धि दर अधिक है? इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि मुस्लिम समाज के बीच ऐसे लोग सक्रिय हैं, जो यह प्रचार करते हैं कि अधिक बच्चे पैदा करने में ही उनकी भलाई है या फिर बच्चे तो अल्लाह की मर्जी से पैदा होते हैं। मुसलमानों के बीच यह भी प्रचार किया जाता है कि अपनी अहमियत बनाए रखने के लिए आबादी तेजी से बढ़ाएं।
आज भारत लगभग 1.4 अरब आबादी के साथ विश्व का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है। अगले कुछ वर्षों में हम आबादी के मामले में चीन से भी आगे निकल जाएंगे। यह कोई उपलब्धि नहीं होगी। कुछ समय पहले तक हमारे समाजशास्त्री और राजनीतिज्ञ युवा आबादी को एक संपदा के तौर पर देखने के साथ यह मानकर चल रहे थे कि हम दूसरे देशों को मानव संसाधन उपलब्ध कराने में सफल रहेंगे, लेकिन तब शायद किसी ने इसकी कल्पना नहीं की थी कि इंटरनेट आधारित तकनीक बहुत कुछ बदल देगी। बीते कुछ समय से आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और रोबोटीकरण का चलन जिस तेजी से बढ़ा है, उससे रोजगार के मौके कम होते जा रहे हैं। आने वाले दिनों में लोगों का काम मशीनें अधिक करेंगी। ऐसे में रोजगार का संकट और गहन होगा। आज चीन तेजी के साथ आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और रोबोटिक्स को अपनाकर अपने कारखानों की उत्पादकता को एक नई ऊंचाइयों पर ले जा रहा है। यह स्थिति कई विकसित देशों की भी है। जहां इन देशों के कारखाने कर्मचारी रहित होते जा रहे हैं, वहीं भारत आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल में बहुत पीछे है। कोविड काल में ऑफिस का काम घर से करने की जो सुविधा मिली, उसे अब स्थाई माना जा रहा है। तकनीक के इस्तेमाल के चलते आवाजाही कम होती जाएगी। इसका असर भी रोजगार के अवसरों पर पड़ेगा।
एक तर्क यह दिया जाता है कि जरूरी नहीं कि भारत हर बात को अपनाए, पर पिछले दिनों भारत ने ड्रोन के जरिये माल डिलीवरी की संभावनाएं टटोलीं। अगर यह प्रयोग सफल रहता है तो तमाम डिलीवरी ब्वॉय की नौकरियां जा सकती हैं। तकनीक इसी तरह अन्य क्षेत्रों की नौकरियों को भी कम करने का काम करेगी। आज विकसित देशों में जिस काम को दो-तीन लोग करते हैं, उसे भारत में आम तौर पर सात-आठ लोग करते हैं। उत्पादकता के इस कमजोर स्तर का खामियाजा देश को भोगना पड़ रहा है। हम विश्व के उत्पादकता सूचकांक में कहीं पीछे हैं। हमारी एक बड़ी आबादी कृषि पर निर्भर है, लेकिन इस क्षेत्र की हमारी उत्पादकता कई दक्षिण एशियाई देशों से भी कम है। एक तर्क यह भी है कि जब लोग शिक्षित होंगे तो स्वत: ही छोटे परिवार की महत्ता समझ जाएंगे, लेकिन शिक्षा का खराब स्तर किसी से छिपा नहीं। इसी तरह सभी इससे भी अवगत हैं कि हम अपनी जीडीपी का बहुत कम प्रतिशत शिक्षा पर खर्च कर पा रहे हैं। यदि हमारी आबादी इसी तरह बढ़ती रही तो फिर हम कभी भी शिक्षा पर पर्याप्त धनराशि खर्च नहीं कर पाएंगे और इसी तरह गरीबी से जूझते रहेंगे।
भारत या किसी भी देश के लिए यह संभव नहीं कि वह आधुनिक तकनीक से मुंह मोड़े रहे, क्योंकि जो देश तकनीक नहीं अपनाएगा वह पिछड़ता जाएगा और अपनी आबादी के रहन-सहन के स्तर को ऊपर नहीं उठा पाएगा। हम जितनी जल्दी यह समझें, उतना ही अच्छा कि हमें बढ़ती आबादी का बोझ कम करने की जरूरत है, क्योंकि बड़ी आबादी हमारी समृद्धि और विकास में बाधक है। तमाम विज्ञानियों का आकलन है कि अगर भारत खुद को तेजी से विकसित करेगा तो उसका पर्यावरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। ऐसे में यह समझदारी नहीं कि हम जनसंख्या वृद्धि पर कुछ न करें। यदि जनसंख्या वृद्धि पर लगाम नहीं लगी तो अगले दो-तीन दशकों में उसमें 20-25 करोड़ लोग और जुड़ जाएंगे।
ऐसा होने का मतलब है कि हमारे भूभाग के पर्यावरण पर और अधिक बोझ पडऩा।
यह किसी से छिपा नहीं कि तेजी से बढ़ती आबादी पर्यावरण के लिए भी एक गंभीर चुनौती है। यदि भारत अपनी आज की आबादी पर ही स्थिर हो जाए तो भी मानव संसाधन के तमाम सूचकांकों में विश्व के अग्रणी 20 देशों में पहुंचने के लिए जितने संसाधनों की जरूरत पड़ेगी, उनका पर्यावरण पर बहुत अधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। ऐसे में बेहतर होगा कि असम, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों की ओर से जनसंख्या नियंत्रित करने के लिए जो उपाय किए जा रहे हैं, उनकी बेवजह आलोचना न की जाए। ऐसा करके हम अपना ही अहित कर रहे हैं।
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