प्रो. रसाल सिंह
आजादी से लेकर पांच अगस्त, 2019 तक जम्मू-कश्मीर प्रदेश का अधिसंख्य समाज कश्मीर के नेतृत्व वाली सरकार की कश्मीर-केंद्रित भेदभावपूर्ण नीति का शिकार रहा था। यह भेदभाव विकास योजनाओं से लेकर लोकतांत्रिक भागीदारी तक और एससी, एसटी, ओबीसी के संवैधानिक अधिकारों और बहन-बेटियों के न्यायसंगत अधिकारों की अवहेलना तक व्याप्त था। पांच अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 और धारा 35ए की समाप्ति के बाद जम्मू-कश्मीर के वर्षों से उपेक्षित वंचित वर्गों को न्याय देने की परियोजना प्रारंभ हुई। इससे प्रदेश में अनेक सकारात्मक बदलाव की शुरुआत हुई है। इससे जम्मू-कश्मीर की एकात्मता और विकास का सपना साकार हो सका है।
अल्पावधि में ही जम्मू-कश्मीर में आया जमीनी बदलाव : पिछले दो वर्षों की अल्पावधि में ही जम्मू-कश्मीर में जमीनी बदलाव नजर आने लगा है। कुछ काम हो गया है और बहुत काम होना बाकी है। 28 वर्ष की लंबी प्रतीक्षा के बाद यहां पिछले साल से त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था पूरी तरह लागू हो गई है। स्थानीय निकायों को वे सभी अधिकार और संसाधन मिल गए हैं, जो देशभर में मिलते हैं। जम्मू-कश्मीर में एसटी वर्ग (गुज्जर बक्करवाल, गद्दी, सिप्पी आदि) को राजनीतिक आरक्षण का लाभ मिला है, जिससे इस वर्ग के विकास के रास्ते खुले हैं। अन्य पिछड़े वर्गों को भी आरक्षण देकर सामाजिक-न्याय सुनिश्चित किया गया है। संविधान निर्माता डा. भीमराव आंबेडकर का यही सपना था कि भारत में समतामूलक और न्यायपूर्ण व्यवस्था हो। कहीं भी जाति-धर्म, क्षेत्र और लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं हो। यह संतोष की बात है कि कुछ देर से सही, उनका यह स्वप्न देश के अन्य भागों की तरह जम्मू-कश्मीर में भी साकार हो रहा है। जम्मू-कश्मीर में अधिकारों से वंचित बहनों-बेटियों को न्याय मिला है। इससे पहले जिनका विवाह प्रदेश से बाहर हो जाता था, उन्हेंं उनके जन्मजात अधिकारों तक से वंचित कर दिया जाता था। स्वाधीन भारत में लैंगिक भेदभाव का यह शर्मनाक उदाहरण था, लेकिन कोई भी इसके खिलाफ आवाज उठाने वाला नहीं था।
हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान बनाते समय 'एक व्यक्ति-एक मतÓ का प्रविधान करते हुए संयुक्त राज्य अमेरिका से भी पहले महिलाओं को मताधिकार देकर प्रगतिशीलता और लोकतांत्रिक मूल्यों में गहरी आस्था का परिचय दिया था। किसी भी प्रकार के भेदभाव के विरुद्ध स्वतंत्रता, समानता और बंधुता ही उनके मार्गदर्शक सिद्धांत थे। जम्मू-कश्मीर अनुच्छेद 370 और धारा 35ए के तहत मिले अस्थायी विशेषाधिकारों की आड़ में इन सिद्धांतों की अवहेलना करता आ रहा था। अब वहां भारत का संविधान पूरी तरह लागू होने से आमूलचूल सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन का राह खुल गई है। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विषमता और भेदभाव किसी भी समाज के लिए अभिशाप हैं। जम्मू-कश्मीर अब इस अभिशाप-मुक्ति की दिशा में बढ़ चला है। इसी के चलते प्रदेश में बसे हुए लाखों दलितों विशेषकर वाल्मीकि समाज, पश्चिमी पाकिस्तानी शरणार्थियों, गोरखा और गुलाम कश्मीर के विस्थापितों को सम्मान, समान अवसर और मतदान जैसे मूल अधिकार और सुविधाएं मिली हैं।
इनके अलावा नई औद्योगिक नीति लागू होने और निवेशक सम्मेलनों के आयोजन से स्थानीय लोगों को रोजगार के अधिकाधिक अवसर उपलब्ध कराने की शुरुआत हुई है। नई भाषा नीति लागू करके डोगरी, कश्मीरी और हिंदी को राजभाषा (शासन-प्रशासन की भाषा) का दर्जा देकर स्थानीय लोगों को मुख्यधारा से जोडऩे का काम भी हुआ है। अभी तक आतंकवाद और भेदभाव के शिकार रहे पर्यटन उद्योग को पुन: विकसित किया जा रहा है। इस कड़ी में श्री वेंकटेश्वर भगवान के भव्य मंदिर का निर्माण, देविका नदी और शिवखोड़ी गुफा जैसे पवित्र-स्थलों का पुनरुद्धार किया जा रहा है।
आतंकवादियों के पनाहगार बने दर्जनों सरकारी कर्मी बर्खास्त किए जा चुके हैं और सैकड़ों के खिलाफ जांच चल रही है। सुरक्षा बलों द्वारा आतंकवादियों और अलगाववादियों की नकेल कसने और हवाला फंडिंग रुकने से राष्ट्रविरोधी हिंसक गतिविधियों में निर्णायक गिरावट आई है। पांच अगस्त, 2019 के बाद से प्रदेश में आतंकवादी वारदातें 59 प्रतिशत तक कम हुई हैं। जम्मू-कश्मीरवासियों को बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी आधारभूत सुविधाएं मुहैया कराने पर तेजी से काम हो रहा है। प्रधानमंत्री रोजगार पैकेज के अंतर्गत कश्मीरी विस्थापितों के लिए रोजगार और आवास की व्यवस्था हो रही है। ई-फाइलिंग के जरिये अर्धवार्षिक 'दरबार-मूवÓ की खर्चीली कवायद को समाप्त किया गया है। विभिन्न कार्यों के समयबद्ध निपटारे और समस्याओं के त्वरित समाधान के लिए सिटिजंस चार्टर लागू किया गया है। इससे निष्क्रिय और टालू सरकारी कर्मी हरकत में आ रहे हैं। रोशनी एक्ट और शस्त्र लाइसेंस घोटाले में धर-पकड़ हो रही है।
जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में गठित परिसीमन आयोग द्वारा विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन करके उन्हेंं संतुलित और न्यायसंगत बनाया जा रहा है। अच्छी बात यह है कि पहले इस आयोग का बहिष्कार करने वाले नेशनल कांफ्रेंस जैसे दल भी इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेकर इसे समग्र और समावेशी बना रहे हैं। 'एक विधान, एक निशान, सबको समता और सम्मानÓ न सिर्फ जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में देश के नीति-नियंताओं का पाथेय बने, बल्कि संपूर्ण भारतवर्ष के संदर्भ में इसे अमली जामा पहनाने की आवश्यकता है। गुलाम कश्मीर भी इसका अपवाद नहीं है। पाकिस्तानी फौज द्वारा वहां के लोगों पर ढाए जा रहे जुल्मो-सितम से निकलने वाली करुण-पुकार को लंबे समय तक अनसुना नहीं किया जा सकता है।
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