अहमदाबाद। आज पर्युषण पर्व का चतुर्थ दिन है। पर्युषण यानी शास्त्रों की विविध बातों का चिंतन करना। आज से श्री भद्रबाहु स्वामी द्वारा रचित श्री कल्पसूत्र का वांचन प्रारंभ हुआ।
जैनाचार्य बहुमुखी प्रतिभा संपन्न, परम शासन प्रभावक प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने विशाल संख्या में उपस्थित भाविखों को संबोधित करते हुए फरमाया कि कल्प सूत्र का प्रत्येक शब्द मंत्र समान है। जो भव्यात्माएं 21 बार इसका ध्यानपूर्वक श्रवण करती है वे सात-आठ भव में अवश्य अखंड पद को प्राप्त करते है। कल्प यानि आचार। आचार का वर्णन जिस सूत्र में आता है उसे कल्पसूत्र कहते है। ज्ञानी गुरूभगवंतों ने दशाश्रुत स्कंध नामक आगम में से कल्पसूत्र की रचना की। इस सूत्र में विविध प्रकार का ज्ञान है। ज्योतिष शास्त्र, स्वप्न शास्त्र, लाक्षणिक शास्त्र आदि तो है ही साथ में मुनि भगवंतों को दस आचार तथा पश्चानुपूर्व क्रम से तीर्थंकर परमात्मा के प्रेरणादायक जीवन चरित्र का भी वर्णन है। सर्वप्रथम मुनिभगवंतों के दस कल्पों का विस्तृत वर्णन है। अचेलक कल्प, उद्देशिक कल्प, शय्यातर कल्प, राजपिंड कल्प, कृपिकर्म कल्प, महाव्रत कल्प, ज्येष्ठ कल्प, प्रतिक्रमण कल्प, मास कल्प, पर्युषण कल्प। पहले के काल में कल्पसूत्र का वांचन केवल साधु-साध्वीजी भगवंत तक ही सीमित था परंतु एक बार अपने पुत्र की मृत्यु के शोक में डूब ध्रुवसेन राजा को धर्म मार्ग में स्थिर करने कल्प सूत्र का वांचन सभा में प्रारंभ हुआ। कल्प सूत्र कें आते तीर्थंकर परमात्माओं के जीवन चरित्र अत्यंत वैराग्य वर्धक-प्रेरणादायक है। कल्प सूत्र को पढऩे का भी एक कल्प है। इसे पाठ विभागों में पढ़ा जाता है। आज प्रथम दिन था दो व्याख्यान पढ़े। प्रथम व्याख्यान में प्रभु को धर्मसारथि पद का क्यों विरूद दिया गया इस विषय में, द्वितीय व्याख्यान प्रभु के च्यवन यानि माता की कुक्षी में आगमन के समय माता द्वारा निहाले 14 स्वप्नों में से चार सपनों का वर्ण्र है। द्वितीय दिन शेष स्वप्नों का फल, तथा वीर प्रभु का जन्म वांचन होता है। परमात्मा के 27 भव का वर्णन, कैसे नयसार के भव में साधु भगवंत को सुपात्र दान करते हुए सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई और आगे मरीचि भव के भव में कुल का मद किया जिससे नीचे गोत्र कर्म बंध हुआ। इसका उदय तीर्थंकर के भव में हुआ और ब्राहमण कुल में सर्वप्रथम प्रभु का अवतरण हुआ। देवांनंदा की कुक्षी में 82 दिन रहकर फिर देव द्वारा गर्भ संक्रमण हुआ और त्रिशला माता की कुक्षी में अवतिरत हुए। इससे यह सिद्ध होता है कि कर्म राजा किसी को छोड़ता नहीं चाहे तीर्थंकर परमात्मा हो या सामान्य मनुष्य चाहे राजा हो या सेवक कर्म सत्ता के आगे किसी का कुछ नहीं चलता।सोने में सुगंध समान आज एक महान आत्मा की पुण्यतिथि है। जिसके रोम-रोम में स्वाध्याय, गुर्वाज्ञा पालन, सेवा भक्ति वैयावच्च बसी हुई थी ऐसे महान साध्वी पू. गुरूदेव की ही आज्ञानुवर्ती एकादशांगपाठी सरल स्वभावी प.पू.रत्नचूला श्री जी म.सा का द्वितीय पुण्यतिथि है। पूज्यश्री ने फरमाया कि पू.सा. रत्नचूला श्री जी म.सा. संपूर्ण जैन समाज की सर्वप्रथम ऐसी साध्वीजी है जिन्होंने ग्यारह अंग को कंठस्थ किया। ज्ञान का फल विरति है ऐसा शास्त्रों में बताया गया है इस बात को संपूर्ण तरीके से पू. रत्नचूला म.सा. ने आत्मसात् किया है। उनकी याद में पूज्यश्री प्रतिदिन व्याख्यान के पश्चात् 5 गाथा का स्वाध्याय करते एवं कराते है. बस पर्व के दिनों में महापुरुषों को तथा महान आत्माओं को याद कर उनके जैसा सत्व अपने में भी आये ऐसी प्रार्थना करें।
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