डॉ. एके वर्मा
विभिन्न दलों द्वारा समय-समय पर जातीय जनगणना की मांग उठती रही है। सरकार ने संसद में स्पष्ट किया कि 2021 की जनगणना में 1951 से चली आ रही नीति नहीं बदलेगी। केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की गणना होगी, क्योंकि संविधान लोकसभा और विधानसभाओं में उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटों के आरक्षण का प्रविधान करता है। आखिर अन्य जातियों की गणना में समस्याक्या है? हिंदू समाज की समस्या जातियां नहीं, बल्कि ऊपरी सोपान पर स्थित जातियों को निचले सोपान पर स्थित जातियों से श्रेष्ठ मानने की है। इसीलिए आंबेडकर जातियों को समाप्त करना चाहते थे और राममनोहर लोहिया ने जाति तोड़ो आंदोलन चलाया।
भारत में 1881 से जो दशकीय जनगणना शुरू हुई, उसमें 1931 तक जातियों की गणना होती रही। तत्कालीन जनगणना आयुक्त डा. जेएच हटन ने जातियों और उपजातियों की विविधता, उनके वर्गीकरण की समस्या, कार्मिकों की कमी और उक्त प्रक्रिया खर्चीली होने आदि आधारों पर उसे न करने का अनुरोध किया था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1941 में जैसे-तैसे जनगणना हुई, लेकिन स्वतंत्र भारत में जातीय जनगणना की परिपाटी नहीं शुरू की गई। 1951 में केवल अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की गणना हुई। आज तक ओबीसी जनसंख्या के लिए 1931 का ही संदर्भ लिया जाता है, जिसमें उनकी संख्या 52 प्रतिशत थी। मई 2007 में तत्कालीन सामाजिक न्याय मंत्री मीरा कुमार ने राज्यसभा को लिखित उत्तर में बताया था कि उत्तर प्रदेश में सात करोड़ और बिहार, आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में तीन-तीन करोड़ ओबीसी हैं। ये आंकड़े राज्य-पंचायतीराज कार्यालयों या राज्य पिछड़ा वर्ग आयोगों द्वारा दिए गए थे। सितंबर 2007 में मनमोहन सरकार ने एनएसएसओ के आंकड़े प्रकाशित किए, जिनमें ओबीसी जनसंख्या घटकर 41 प्रतिशत रह गई, क्योंकि अनेक जातियों को ओबीसी से बाहर कर दिया गया। आज विभिन्न राज्यों में ओबीसी सूची से अनेक जातियों को बाहर करने की जरूरत है, क्योंकि अनुसूचित जनजाति आदेश 1950 ने अनेक 'जनजातियोंÓ को अनुसूचित जनजाति में शामिल न कर ओबीसी या अनुसूचित जाति सूची में रख दिया था। स्वतंत्रता से पूर्व उत्तर प्रदेश में सैकड़ों जनजातियां थीं, मगर वहां केवल भोटिया, बुक्सा, राजी, जान्सारी और थारू को ही अनुसूचित जनजाति घोषित किया गया, शेष को ओबीसी या अनुसूचित जाति में डाल दिया गया। कई दूसरे राज्यों में भी यही हुआ। अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की सूची में फेरबदल केवल संसद कर सकती है। इसलिए इस समस्या का निराकरण कठिन है। संसद ने 2002 में उप्र की 17 जातियों को अनुसूचित जाति से निकाल अनुसूचित जनजाति सूची में डाला, परंतु केवल 13 जिलों में ही ऐसा हुआ।
भारत में जातियां केवल सामाजिक इकाइयां नहीं हैं। उनकी राजनीतिक और व्यावसायिक पहचान भी है। इसीलिए पार्टियां उन्हें वोट बैंक समझती हैं। लोहिया ने दलित-पिछड़ों को मिलाकर राजनीति करने की असफल कोशिश की। कांशीराम ने बामसेफ और डीएस-4 द्वारा दलित-पिछड़ा वर्ग, महिला-मुस्लिम को मिलाकर राजनीति करने का प्रयास किया, लेकिन मुलायर्म ंसह और मायावती की कटुता से वह प्रयोग भी सफल नहीं हुआ। 2014 में भाजपा ने जब लोकसभा चुनावों की कमान नरेंद्र मोदी को सौंपी, तब एक मौलिक परिवर्तन हुआ। 'पहचान की राजनीतिÓ पर 'समावेशी-राजनीतिÓ हावी हो गई। यह 2019 के लोकसभा और अनेक विधानसभा चुनावों में भी दिखाई दिया। अधिकतर दलों को इसका अहसास नही कि 'पहचानÓ की देहरी से निकल मतदाता विकास और लोक कल्याणकारी योजनाओं के पंख लगा समावेशी राजनीति की ओर बढ़ चला है। इसके बावजूद सभी दल जातिवादी राजनीति को लेकर कोई जोखिम नहीं लेना चाहते। वास्तव में समावेशी राजनीति में ही सांप्रदायिकता और जातिवाद, दोनों की काट छुपी है। जातीय जनगणना न कराने या 2011 में हुई सामाजिक-आर्थिक-जातीय जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक न करने के पीछे जो नीयत पिछली कांग्रेस सरकारों की थी, वही भाजपा की भी लगती है।
ओबीसी गणना का मुद्दा आरक्षण से जुड़ा है और आरक्षण सामाजिक न्याय से। भारत सरकार द्वारा गठित रोहिणी आयोग की अंतरिम रिपोर्ट के अनुसार केंद्रीय सूची की 2633 ओबीसी जातियों में 27 प्रतिशत ने 97 प्रतिशत नौकरियां पाई हैं, जबकि 983 पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ शून्य है। इसीलिए काका कालेलकर और मंडल आयोग दोनों में ओबीसी के उपवर्गीकरण की बात उठी थी। कर्नाटक, आंध्र, तमिलनाडु, तेलंगाना, झारखंड, हरियाणा, बिहार, महाराष्ट्र और बंगाल आदि में नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी उपवर्गीकरण लागू है। वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने हुकुर्म ंसह समिति के माध्यम से इसे लागू करने की कोशिश की, लेकिन विरोध के कारण ठिठक गई। रोहिणी आयोग के समक्ष उपवर्गीकरण विचाराधीन है और वह ओबीसी को चार उपवर्गों में बांटकर 27 फीसद आरक्षण को क्रमश: 2, 6, 9 और 10 फीसद के अनुपात में वितरित करना चाहता है। यह सामाजिक न्याय की अवधारणा को पुष्ट करेगा, पर इससे ओबीसी के भीतर ही विवाद संभव है, जहां प्रभावशाली जातियां इसका विरोध कर सकती हैं। अनेक राज्यों में जातिगत जनगणना होती रही है, लेकिन 2018 में संविधान के 102वें संशोधन से अनुच्छेद-342 ए जोड़ा गया, जो केंद्र और राज्यों में ओबीसी सूची बनाने का एकाधिकार राष्ट्रपति अर्थात केंद्र को देता है। इस परिप्रेक्ष्य में ही सुप्रीम कोर्ट ने मई 2021 में राज्यों द्वारा ओबीसी सूची बनाने का अधिकार खत्म कर दिया। मोदी सरकार ने संविधान में संशोधन कर राज्यों का यह अधिकार बहाल कर दिया, जो न्यायसंगत तो लगता है, मगर संविधानसम्मत नहीं, क्योंकि संविधान की सातवीं अनुसूची में संघीय सूची क्रमांक 69 में जनगणना का एकाधिकार केंद्र को दिया गया है।
फिलहाल ओबीसी के संबंध में 'प्रो-एक्टिवÓ नीति अपनाकर प्रधानमंत्री मोदी ने न केवल पहचान की राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों को गंभीर चुनौती दी है, बल्कि समाज के सबसे बड़े वर्ग को क्षेत्रीयता की सीमा से निकाल कर व्यापक राष्ट्रीय राजनीति से जोडऩे का प्रयास भी किया है।
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