सुशांत सरीन, सीनियर फेलो, ऑब्जर्वर
काबुल जैसे हमले की आशंका पहले से थी। यह डर बना हुआ था कि अफगानिस्तान में फंसे विदेशी नागरिकों की सुरक्षित निकासी के अभियान को कहीं चोट न पहुंचाई जाए। भय न सिर्फ आतंकी हमले का था, बल्कि तालिबानी लड़ाकों द्वारा उल-जुलूल हरकतें करने का भी था, ताकि बनती बात बिगड़ न जाए। अमेरिका ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि अगर तालिबान ने किसी को चोट पहुंचाई, तो वह पूरी ताकत के साथ उस पर हमला कर देगा। मगर लोगों के पलायन की जो तस्वीरें सामने आ रही थीं, वे साफ-साफ बता रही थीं कि संवेदनशील काबुल हवाई अड्डे पर सुरक्षा के इंतजाम नाकाफी हैं। ऐसे में, किसी भी तंजीम के लिए उस पर हमला करना कोई मुश्किल काम नहीं था। फिर भी, सवाल यह है कि हमलावर (जिनमें आत्मघाती भी थे) हवाई अड्डे तक पहुंचे कैसे? वह भी तब, जब हवाई अड्डे के रास्ते पर पिछले 10 दिनों से जगह-जगह डेरा डाले तालिबानी लड़ाके हर आने-जाने वाले की तलाशी ले रहे हैं और उनके दस्तावेज देख-जांच रहे हैं। जाहिर है, इन तमाम चौकियों को चकमा देकर कोई तब तक हवाई अड्डे के पास नहीं पहुंच सकता, जब तक उसे परोक्ष रूप से शह न मिली हो। तो यह खेल किसका है?
यह समझने के लिए पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रमों पर नजर डालना जरूरी है। बुधवार सुबह से ही अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देश चेता रहे थे कि उनके पास आतंकी हमले का 'इनपुटÓ है। लिहाजा, वे अपने नागरिकों को हवाई अड्डा न आने या वहां से दूर चले जाने का संदेश भेज रहे थे। आखिर उनके पास यह सूचना आई कैसे? इसका जवाब तो फिलहाल नहीं मिल सका है, लेकिन आईएस-खुरासान गुट ने इन हमलों की जिम्मेदारी ली है। दिलचस्प है कि यह संगठन सीरिया वाले आईएस से नाममात्र का जुड़ा है। न तो इसे वहां से पैसे आते हैं, और न हथियार। कहने को यह आईएस का एक विलायत (चैप्टर) है, लेकिन संगठनात्मक रूप से शायद ही दोनों में कोई रिश्ता हो। इसका मूल जुड़ाव पाकिस्तान के आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) व अफगान तालिबान के साथ है। असली दिक्कत यह है कि इस खित्ते में जो भी दहशतगर्दी होती है, उसे सिक्के के दो पहलू की तरह देखा जाता है। ऐसा नहीं होना चाहिए। यहां तमाम तंजीमों के तार आपस में जुड़े हुए हैं। कभी ये एक-दूसरे से लड़ते हैं, तो कभी मदद करते हैं। ऐसे प्रमाण हैं कि आईएस व तालिबान ने आपस में मिलकर ऑपरेशन किए हैं और फिर अपने दूसरे दुश्मनों के साथ मिलकर एक-दूसरे के खिलाफ भी कार्रवाइयां की हैं। फिर, हक्कानी नेटवर्क पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के प्रभाव में काम करता है, लेकिन तालिबान के साथ भी जुड़ा है। उसके अल-कायदा और आईएस-खुरासान के साथ भी गहरे रिश्ते हैं। टीटीपी को भी उसने संरक्षण दे रखा है, जबकि आईएसआई की टीटीपी से अदावत है। जाहिर है, यहां आतंकी गुटों का पूरा ढांचा ही जटिल है। इसलिए उन्हें अलग-अलग करके देखना गलत होगा।
पाकिस्तान ने आईएस-खुरासान को अपने यहां पूरी बेदर्दी से कुचला, लेकिन अफगानिस्तान में उसे पनपने दिया। इसके दो कारण थे। पहला, 2014 में जब आईएस को तालिबान से बड़ा खतरा माना जा रहा था, तब उस दुष्प्रचार को पाकिस्तान ने भी खूब हवा दी। उसने पश्चिमी देशों के साथ यह कहना शुरू कर दिया कि तालिबान स्थानीय लड़ाके हैं, जबकि असली खतरा आईएस है। इसी बिना पर उसने अपने लिए पैसे भी जुटाए। उसकी मंशा थी कि अमेरिका और तालिबान में कोई समझौता हो जाए और तालिबान को सत्ता मिल जाए। वह तालिबान की स्वीकार्यता बढ़ाने और अमेरिका में उसके खिलाफ पनप रही नाराजगी को दूर करने में जुटा था। इससे अफगानिस्तान में उसके हित सध सकते थे। दूसरा कारण यह था कि अगर तालिबान से उसके रिश्ते खराब होते हैं, तो आईएस-खुरासान के जरिये वह उस पर नकेल कर सकेगा। लेकिन यह काम अफगानिस्तान के अंदर होता था। पाकिस्तान में आईएस-खुरासान पर पाबंदी थी। अब जब पाकिस्तान ने परोक्ष रूप से अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया है, तब वह पूरी दुनिया को इसके लिए मना रहा है कि यदि अमेरिका यहां से निकल जाएगा, तो दहशतगर्द फिर से सिर उठा सकते हैं, इसलिए उन पर लगाम लगाने के वास्ते उसे इमदाद दी जानी चाहिए। पाकिस्तान के पूर्व राजदूत ने बाकायदा इसके लिए एक लेख भी लिखा है कि दहशतगर्दों से निपटने के लिए अब और अधिक पूंजी की दरकार होगी। बावजूद इसके दुनिया भर में पाकिस्तान के खिलाफ माहौल बन रहा था। अमेरिका में तो यहां तक कहा जा रहा था कि अफगानिस्तान में व्हाइट हाउस की नाकामी की वजह पाकिस्तान है, इसलिए उस पर प्रतिबंध लगना चाहिए और उसका बहिष्कार होना चाहिए। मगर अब काबुल की घटना के बाद माहौल पूरी तरह से बदल चुका है। चर्चा अब पाकिस्तान की असलियत की नहीं हो रही, बल्कि उसके साथ मिलकर काम करने की होने लगी है। जब काबुल पर तालिबानी कब्जे के तुरंत बाद आईएस ने कोई हरकत नहीं की, तो फिर भला अचानक वह इतना सक्रिय कैसे हो सकता है कि काबुल को सिलसिलेवार हमलों की चोट पहुंचाए? वह भी, उन गलियों से होकर, जिनमें हक्कानी और तालिबानी आतंकी दिन-रात पहरा दे रहे हैं। जाहिर है, इस पूरे घटनाक्रम का फायदा पाकिस्तान को मिलता दिख रहा है। अमेरिका अब कहने भी लगा कि वह तालिबान के साथ मिलकर काम करने को तैयार है। आवेश में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने इन हमलों की जिम्मेदार ताकतों को सबक सिखाने की बात जरूर कही, लेकिन जब वह पाकिस्तान के साथ मिलकर काम करने को तैयार हैं, तो कैसे जिम्मेदारों को सबक सिखा सकेंगे? हां, यह हो सकता है कि आईएस-खुरासान के रंगरूटों ने ये हमले किए हों और हक्कानी का उन्हें साथ मिला हो, लेकिन वे सभी कठपुतली हैं।
इन सबकी डोर तो पाकिस्तान के हाथ में है। अब होगा यह कि आतंकवाद से लडऩे के नाम पर पाकिस्तान को मदद मिलने लगेगी और तालिबान को भी मान्यता मिल जाएगी। इससे एक बार फिर पाकिस्तान की दुकान चल पड़ेगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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