श्रीनगर के एक सरकारी स्कूल में घुसे आतंकियों ने पहचान पत्र देखकर जिस तरह एक सिख और एक हिंदू शिक्षक की हत्या कर दी, उससे कश्मीर में आतंकवाद अपने वीभत्स रूप में लौटता दिख रहा है। इसके पहले भी वहां लोगों को चुन-चुनकर मारा जा चुका है। पिछले दिनों ही श्रीनगर में मेडिकल स्टोर चलाने वाले एक कश्मीरी पंडित की हत्या कर दी गई थी। इस तरह की घटनाएं केवल आतंकियों के दुस्साहस को ही नहीं बयान करतीं, बल्कि कश्मीर घाटी में बचे-खुचे अल्पसंख्यकों के मन में खौफ भी पैदा करती हैं।
इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि हिंदू और सिख शिक्षक की हत्या के बाद यह आशंका पैदा हो गई है कि कहीं इन अल्पसंख्यक समुदायों के बाकी बचे लोग घाटी छोडऩे के लिए विवश न हो जाएं। इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि कश्मीर में घटी हाल की घटनाएं एक ओर जहां आम लोगों के मनोबल को गिराने, वहीं दूसरी ओर सुरक्षा बलों की चिंता बढ़ाने वाली हैं। सुरक्षा एजेंसियों को आतंकवाद रोधी रणनीति बदलने के साथ अपनी आक्रामकता बढ़ानी ही होगी। उन्हें न केवल आतंकियों को चुन-चुनकर मारना होगा, बल्कि उनके खुले-छिपे समर्थकों पर भी लगाम लगानी होगी। यदि यह काम नहीं किया गया तो कश्मीर घाटी में वैसे ही दहशत भरे दिन लौट सकते हैं, जैसे 1990 के आसपास थे और जब बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों को अपनी जान बचाने के लिए कश्मीर घाटी छोड़कर पलायन करना पड़ा था।
आतंकियों के जिहादी इरादे यही बता रहे हैं कि उनका उद्देश्य कश्मीर में भय का वातावरण बनाना और ऐसे हालात पैदा करना है, जिससे कश्मीरी पंडितों के लिए घर वापसी करना और कठिन हो जाए। स्पष्ट है कि आतंक का यह उफान जम्मू-कश्मीर सरकार ही नहीं, केंद्र सरकार के लिए भी एक गंभीर चुनौती है, जो कश्मीरी पंडितों की वापसी के जतन करने के साथ इस केंद्र शासित प्रदेश के हालात सामान्य करने में जुटी है। चूंकि कश्मीर की घटनाएं कश्मीरियत को कलंकित करने और उसे खोखला साबित करने वाली हैं इसलिए घाटी के आम लोगों और खासकर वहां असर रखने वाले राजनीतिक दलों को भी आतंकियों के खिलाफ वास्तव में मुखर होना होगा। यही काम शेष देश के राजनीतिक दलों को भी करना होगा। यह ठीक नहीं कि वे कश्मीर की घटनाओं के लिए केंद्र सरकार को कोसने में तो अतिरिक्त श्रम कर रहे हैं, लेकिन आतंकवाद के खिलाफ एक सुर में बोलने से कतरा रहे हैं। यह समय पाकिस्तान प्रायोजित और पोषित आतंकवाद के खिलाफ सच्ची एकजुटता दिखाने का है। यह खेद की बात है कि इस मामले में कई राजनीतिक दल उम्मीदों पर खरे नहीं उतर रहे हैं।
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