देश में कोयले की कमी के कारण बिजली संयंत्रों की ओर से पर्याप्त बिजली का उत्पादन न हो पाना गंभीर चिंता की बात है। यह चिंता इसलिए और बढ़ गई है, क्योंकि देश के कई हिस्सों में बिजली की किल्लत पैदा होने के आसार उभर आए हैं। कहीं-कहीं तो बिजली की किल्लत ने सिर उठा भी लिया है। एक ऐसे समय जब अर्थव्यवस्था के रफ्तार पकडऩे और त्योहारों के कारण बिजली की मांग बढ़ रही है, तब उसकी कमी दूर करने के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास किए जाने चाहिए। यदि कोयले की कमी दूर नहीं हुई और कुल उत्पादन का 70 प्रतिशत बिजली पैदा करने वाले कोयला आधारित बिजली संयंत्र उसके अभाव का सामना करते रहे तो अर्थव्यवस्था पर तो बुरा प्रभाव पड़ेगा ही, आम जनजीवन भी प्रभावित हो सकता है।
यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि कोयले की कमी के मामले में समय रहते चेतने से इन्कार किया गया। समझना कठिन है कि जब अर्सा पहले यह स्पष्ट हो गया था कि आने वाले दिनों में बिजली की मांग बढ़ेगी, तब फिर यह सुनिश्चित क्यों नहीं किया गया कि कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्र उसकी कमी का सामना न करने पाएं? जब एक ओर अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने के दावे किए जा रहे थे, तब यह क्यों नहीं समझा गया कि ये दावे तभी पूरे हो सकेंगे जब देश में पर्याप्त बिजली होगी?
यह ठीक है कि बारिश के कारण कोयला खदानों से अपेक्षित मात्र में कोयले को नहीं निकाला जा सका, लेकिन क्या कोई यह देखने वाला नहीं था कि इससे बिजली संयंत्रों के समक्ष संकट खड़ा हो सकता है? सवाल यह है भी कि क्या बारिश इसी साल आई? आखिर इसी बार उसकी कमी का सामना क्यों करना पड़ा रहा है? ऐसा लगता है कि कोयले के आयात को लेकर भी समय रहते फैसला नहीं लिया जा सका।
यह ठीक है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कोयले के दाम बढ़ गए थे, लेकिन जब देश में उसका पर्याप्त उत्पादन नहीं हो रहा था तो फिर उसे समय रहते बाहर से मंगाने के उपाय क्यों नहीं किए गए-और वह भी तब जब दुनिया में प्राकृतिक गैस के महंगे होने के कारण कोयले और पेट्रोलियम पदार्थो पर निर्भरता बढ़ रही थी। अब जब दुनिया के कुछ और देशों में ऊर्जा संकट बढ़ रहा है, तब भारत में उससे पार पाने के कदम कहीं अधिक तत्परता से उठाए जाने चाहिए। यह ठीक है कि विभिन्न स्तरों पर सक्रियता दिखाई जा रही है, लेकिन उसके कुछ नतीजे भी निकलने चाहिए। जब बिजली संकट गहराने का अंदेशा बढ़ रहा हो, तब केवल समस्या की गंभीरता बताने से बात बनने वाली नहीं है।
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