शरद पूर्णिमा शरद ऋतु का विशिष्ट पर्व है। इस दिन चंद्रमा पृथ्वी के सबसे अधिक निकट होता है और उसकी उज्वल चंद्रिका माधुर्य व आनंद की अनुभूति कराती है। माना जाता है कि शरद पूर्णिमा की रात्रि चंद्रमा से अमृत बरसता है। इस पर्व को भक्ति व प्रेम के रस का समुद्र भी माना गया है। इसको कन्हैया की वंशी का प्रेम नाद एवं जीवात्मा व परमात्मा के रास रस का आनंद भी कहा गया है। शरद पूर्णिमा महालक्ष्मी का भी पर्व है। मान्यता है कि धन-संपत्ति की अधिष्ठात्री भगवती महालक्ष्मी शरद पूर्णिमा की रात्रि में पृथ्वी पर भ्रमण करती हैं। अत: यह लक्ष्मी पूजा का भी पर्व है।महालक्ष्मी धन के अतिरिक्त यश, उन्नति, सौभाग्य व सुंदरता आदि की भी देवी हैं। विभिन्न धर्म-ग्रंथों में शरद पूर्णिमा को अत्यंत गुणकारी माना गया है। शरद पूर्णिमा पर चंद्र-रश्मियां न केवल हमारे मन पर अपितु समूची प्रकृति पर अपना विशेष प्रभाव डालती हैं। अत: इस दिन हम सभी का मन उमंगों से सराबोर हो जाता है। चंद्रमा से अमृत बरसने की मान्यता के कारण शरद पूर्णिमा की रात्रि को खुले आकाश के नीचे दूध व चावल से बनी खीर रखने का विधान है। आयुर्वेद विदों का मानना है कि इस खीर को खाने से शरीर निरोग, मन प्रसन्न रहता है और आयु में वृद्धि होती है। इस दिन महर्षि वेद व्यास द्वारा रचित चंद्रमा के 27 नामों वाले 'चंद्रमा स्तोत्रÓ का पारायण करने का भी विधान है। जिसमें प्रत्येक श्लोक का 27 बार उच्चारण किया जाता है। शरद पूर्णिमा की पीयूषवर्षिणी रात्रि को भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीधाम वृंदावन के वंशीवट क्षेत्र स्थित यमुना तट पर असंख्य ब्रज गोपिकाओं के साथ दिव्य महारास लीला की थी। मान्यता है कि सर्वप्रथम उन्होंने अपनी लोक विमोहिनी वंशी बजाकर गोपिकाओं को एकत्रित किया, फिर योगमाया के बल पर शरद पूर्णिमा की रात्रि को छह माह जितना बड़ा बनाकर ऐसी दिव्य महारास लीला की कि हर गोपिका को लग रहा था कि कृष्ण उसके साथ ही रास कर रहे हैं। भगवान शिव भी ब्रज गोपी का रूप धारण कर लीला देखने आए थे।
तभी से भगवान शिव का एक नाम 'गोपीश्र्वर महादेवÓ एवं भगवान श्रीकृष्ण का एक नाम 'रासेश्वर श्रीकृष्णÓ पड़ा। श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध में 29 से 33वें अध्याय तक महारास लीला का विस्तार से वर्णन है।
वस्तुत: भागवान श्रीकृष्ण आत्मा हैं, आत्मा की वृत्ति राधा हैं और शेष आत्माभिमुख वृत्तियां गोपियां हैं। इन सभी का धारा प्रवाह रूप से निरंतर आत्म रमण ही महारास है। भगवान श्रीकृष्ण के समान ही गोपिकाएं भी परम रसमयी व सच्चिदानंदमयी थीं। इसीलिए वे श्रीकृष्ण की मुरली की सम्मोहक पुकार सुनते ही अपने सभी पारिवारिक दायित्वों को छोड़कर उनके पास चली आईं। वस्तुत: उनका यह त्याग धर्म, अर्थ और काम का त्याग था। चूंकि भगवान श्रीकृष्ण का सानिध्य मोक्ष दायक है इसलिए उन्होंने उसकी प्राप्ति के लिए अन्य पुरुषाथरें को त्याग दिया। यह उनके विवेक और वैराग्य का सूचक था। विवेक के ही द्वारा नित्य व अनित्य का ज्ञान होता है। और वैराग्य लोक-परलोक के भोगों में अलिप्तता का सूचक है।
शरद पूर्णिमा के दिन श्रीधाम वृंदावन में अद्भुत व निराली धूम रहती है, क्योंकि शरद पूर्णिमा, वृंदावन और महारास एक दूसरे के पूरक हैं। इसीलिए शरद पूर्णिमा को रास पूर्णिमा भी कहा जाता है। शरद पूर्णिमा के दिन वृन्दावन के ठाकुर बाँके बिहारी मंदिर में ठाकुर बांके बिहारी जी महाराज मोर मुकुट,कटि-काछनी एवं वंशी धारण करते हैं। साथ ही यहां के विभिन्न वैष्णव मंदिरों में ठाकुर श्रीविग्रहों का श्र्वेत पुष्पों, श्र्वेत वस्त्रों एवं मोती के आभूषणों से भव्य श्रृंगार किया जाता है।
यहां जगह-जगह विभिन्न रासलीला मंडलियों के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य महारास लीला का चित्ताकर्षक मंचन किया जाता है। आज भौतिक व यांत्रिक युग में तनाव, दुर्भावनाएं व पारस्परिक वैमनस्य अत्यधिक बढ़ गए हैं। ऐसे में हम सभी के जीवन में भक्ति रूपी पुनीत चंद्रमा के उदित होने आवश्यकता है, ताकि हम सभी के जीवन में भी सदैव प्रेम का अमृत झरता रहे।
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