वाराणसी। धरती पर कहीं भी मस्जिद का नाम संस्कृत में नहीं है। तब, संस्कृत नाम ‘ज्ञानवापी’ को मस्जिद कैसे मान सकते हैं? यह मंदिर है और इसके ऐतिहासिक तथ्य उन किताबों में भी हैं, जिन्हें मुस्लिम आक्रांता अपनी कट्टरता और बहादुरी दिखाने के लिए खुद दर्ज भी कराते थे।
1194 से प्रयास करते-करते आखिरकार 1669 में ज्ञानवापी मंदिर को मस्जिद का रूप दिया गया और हर प्रयास, हर आक्रमण और मुस्लिम आक्रांताओं की हर कथित उपलब्धि इतिहास की किताबों में दर्ज है। यहां तक कि ‘मसीरे आलमगीरी’ में औरंगजेब के समकालीन इतिहासकार साकिद मुस्तयिक खां ने आंखोदेखी लिखी है- ‘औरंगजेब ने विश्वनाथ मंदिर को तोड़कर मस्जिद बना इस्लाम की विजय पताका फहरा दी।’
हिंदुओं का प्रसिद्ध धर्मस्थल काशी मुस्लिम आक्रांताओं के हमेशा निशाने पर रहा। 1194 में मोहम्मद गोरी ने मंदिर को तोड़ा भी था, लेकिन फिर काशी वालों ने खुद ही उसका जीर्णोद्धार कर लिया। फिर, 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने तोड़ दिया। करीब डेढ़ सौ साल बाद 1585 में राजा टोडरमल ने अकबर के समय उसे दोबारा बनवा दिया।
1632 में शाहजहां ने भी मंदिर तोड़ने के लिए सेना भेजी, लेकिन हिंदुओं के विरोध के कारण वह असफल रहा। उसकी सेना ने काशी के अन्य 63 मंदिरों को जरूर तहस नहस कर दिया। औरंगजेब ने 8-9 अप्रैल 1669 को अपने सूबेदार अबुल हसन को काशी का मंदिर तोड़ने भेजा। सितंबर 1669 को अबुल हसन ने औरंगजेब को पत्र लिखा- ‘मंदिर को तोड़ दिया गया है और उस पर मस्जिद बना दी गई है।’
मस्जिद है तो दीवारों पर देवी-देवताओं के चित्र क्यों?
इसके अलावा, दो और चीजें स्थापित तथ्य हैं, जैसे- पहला ये कि नंदी महाराज का मुख किसी भी शिवालय में शिवलिंग की ओर रहता है। दूसरा ये कि मंदिर की दीवारों पर देवी-देवताओं के चिह्न होते हैं और मस्जिदों पर चित्रकारी करना जायज नहीं है। अब देखिए कि नंदी महाराज का मुंह उसी ओर है, जिस ओर अभी यह कथित ज्ञानवापी मस्जिद है। इस कथित मस्जिद पर शृंगार गौरी, हनुमान जी समेत तमाम देवी-देवताओं के चित्र हैं। इसके तहखाने में अब भी कई शिवलिंग हैं, जिन्हें आक्रांता तोड़ नहीं सके। रंग-रोगन से कई अवशेष मिटाए गए, लेकिन वह उभर सकते हैं।
काशी का नाम औरंगाबाद भी रखा गया था
औरंगजेब ने काशी का नाम औरंगाबाद भी कर दिया था। कथित ज्ञानवापी मस्जिद उसी के समय की देन है। मंदिर को जल्दी-जल्दी में तोड़ने के क्रम में उसी के गुंबद को मस्जिद के गुंबद जैसा बना दिया गया। नंदी वहीं रह गए। शिव के अरघे और शिवलिंग भी आक्रांता नहीं तोड़ सके। 1752 में मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया और मल्हार राव होलकर ने मंदिर मुक्ति का प्रयास किया, लेकिन हल नहीं निकला। 1835 में महाराजा रणजीत सिंह ने प्रयास किया तो उनकी लड़ाई को दंगे का नाम दे दिया गया।
कुरान में स्पष्ट हैं ये बातें
कुरान में स्पष्ट लिखा है कि विवादित स्थल या जहां मूर्ति पूजा हो, वहां नमाज नहीं पढ़ना चाहिए; लेकिन मुसलमान सिर्फ़ जिद में आकर हिंदुओं के सबसे पवित्र स्थान पर कब्जा करने के लिए नमाज पढ़कर अपने ही धर्म का अपमान कर रहे।