
0 नाटो समिट में हुआ फैसला, ट्रम्प ने रक्षा खर्च बढ़ाने को कहा था
हेग। यूरोपियन देश अगले 10 साल में अपना रक्षा खर्च जीडीपी का 5% तक बढ़ाएंगे। नीदरलैंड्स के द हेग शहर में हुई नाटो समिट में यह फैसला लिया गया। बता दें कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने यूरोपीय देशों से रक्षा खर्च बढ़ाने को कहा था।
समिट के बाद सदस्य देशों की तरफ से जारी साझा स्टेटमेंट में कहा गया कि हम सामूहिक सुरक्षा को लेकर अपने फैसले पर कायम है। वॉशिंगटन संधि के आर्टिकल-5 के मुताबिक सदस्य देशों में से किसी पर भी हमले को सभी देशों पर हमला माना जाएगा। नाटो मीटिंग का एजेंडा यूरोपीय देशों के रक्षा खर्च में हिस्सेदारी को बढ़ाना ही था। ट्रम्प का मानना है कि अमेरिका नाटो को बहुत पैसा देता है, लेकिन बाकी देश अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभा रहे हैं। ट्रम्प चाहते हैं कि सभी सदस्य देश अपने जीडीपी का 5% रक्षा पर खर्च करें। अभी नाटो के खर्च में यूरोपीय देशों का कुल योगदान केवल 30% है, जो देशों की जीडीपी का औसतन 2% है।
ट्रम्प और दूसरे देशों में आर्टिकल 5-रक्षा बजट पर मतभेद
इससे पहले मंगलवार को संगठन में मतभेद गहराते नजर आए। समिट में सबसे बड़ी चिंता नाटो देशों के बीच रक्षा खर्च को लेकर आपसी मतभेद की रही। नाटो महासचिव मार्क रुटे ने कहा कि संगठन यूक्रेन जैसे मुद्दों से निपट सकता है, लेकिन ट्रम्प ने नाटो की सबसे अहम संधि आर्टिकल 5 (एक-दूसरे की रक्षा का वादा) पर सीधा समर्थन देने से इनकार कर दिया।
नाटो का एजेंडा 3.5%-1.5% के समझौते पर
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की मांगों को ध्यान में रखते हुए नाटो महासचिव मार्क रूटे ने समिट का एजेंडा तय किया है। बैठक में मुख्य जोर यूरोपीय देशों द्वारा रक्षा खर्च बढ़ाने पर है, जिसे ट्रम्प लंबे समय से मांगते आ रहे हैं। नाटो में चल रहे मतभेदों के बीच महासचिव मार्क रूटे ने एक नया प्रस्ताव रखा है। इस प्रस्ताव के मुताबिक, सदस्य देशों को अपनी जीडीपी का 3.5% सीधे सेना और हथियारों पर खर्च करना होगा और 1.5% ऐसे कामों पर जो रक्षा से जुड़े हों। प्रस्ताव में 1.5% खर्च की परिभाषा बहुत खुली रखी गई है। इसका मतलब यह है कि हर देश इसे अपने तरीके से समझ सकता है और किसी भी खर्च को 'रक्षा खर्च' बता सकता है। कुछ देश जैसे पोलैंड, एस्टोनिया और लिथुआनिया (जिन्हें रूस से खतरा ज्यादा है) इस लक्ष्य को पाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। बाकी यूरोपीय देश इस खर्च को पूरा करने में अभी काफी पीछे हैं। कई देशों के लिए यह खर्च बहुत बड़ा है और वे शायद 2032 या 2035 तक भी इस लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाएंगे।
