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रुसेन कुमार
नि:संहेद ही अखबारों की स्थिति पहले जैसी नहीं रही। महामारी के बाद अखबार की स्थिति दयनीय हो गई है। अखबारों ने अपने प्रसार संख्या कम कर दिए और बहुत सारे कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया। अखबार अब खाना-पूर्ति के लिए और कानूनी जरूरतों के लिए निकाले जा रहे हैं। अखबारों के प्रति अरुचि को किसी खतरे के संकेत की भांति लेना चाहिए। छत्तीसगढ़ में अनेक अखबार बंद हो चुके हैं और अनेक मरणासन्न स्थिति में पहुँच चुके हैं। अखबार मालिक केवल उतनी ही प्रतियाँ छाप रहे हैं, जिससे उनका काम चल जाए। अखबारों की नकारात्मक वृद्धि और पठन-पाठन की अरुचि समाज और राष्ट्र दोनों के लिए अत्यंत हानिकारक घटना है।
जब अर्थव्यवस्था में सभी कारोबार कुछ न कुछ सुनिश्चित वृद्धि दर से बढ़ रहे हैं ऐसे में अखबारों का मृतप्राय रहना किस बात के प्रमाण देते हैं, इसके बारे में नीति निर्धारकों को चिंतन करना ही चाहिए। अखबारों को बचाना और संरक्षण देना चुनी हुई सरकारों का संवैधानिक उत्तरदायित्व है। आज विज्ञापनों के अभाव में अखबारों को चलाना मुश्किल होता जा रहा है। सोशल मीडिया में जानकारी, सूचनाओं आदि की सहज उपलब्धता और अखबार का प्रकाशन दोनों अलग-अलग बातें हैं। समाज और राष्ट्र के लिए अखबार, पत्र-पत्रिकाएँ अनिवार्य जरूरतें हैं। सामाजिक दृष्टि से अखबार के महत्व को समझा जाय तो एक अखबार सौ किताब पढऩे के बारे है।
हमारे अखबारों में हजारों लोग रोजगार पाते हैं। अखबार विशेषज्ञता वाला कार्य है। विशेषज्ञता और रचनात्मकता अखबार के प्राण हैं। अखबार के लिए अत्यंत प्रतिबद्धता चाहिए। ऐसे अनेक पेशेवर हैं, जो जीवनभर अखबार के लेखन, प्रकाशन और प्रोत्साहन के कार्य में लगे रहते हैं। अच्छे अखबारों का प्रकाशन होना समाज और राष्ट्र के लिए न केवल आवश्यक है बल्कि प्रगतिशीलता का द्योतक भी है। अच्छे अखबारों के अभाव में अच्छे लोकतंत्र की कल्पना करना भी बेमानी है। अखबार और पत्र-पत्रिकाओं के महत्व और उसकी सामाजिक एवं राष्ट्रीय उपयोगिता को बहुत सीमित अर्थों में नहीं देखना चाहिए। अखबार और पत्र-पत्रिकाओं की राष्ट्र की प्रगति में योगदान को बहुत उदारवादी दृष्टि से देखना चाहिए। अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं के महत्व को संकुचित दृष्टि देखने वाले लोग और नीति-निर्धारक वास्तव में समाज और राष्ट्र को हानि और आहत पहुँचाने का काम ही करते हैं हमारे बच्चे और युवा पीढ़ी अखबार पढऩे के लिए प्रेरित रहें, इसके लिए कोई न कोई संगठित प्रयास चलते रहने चाहिए। आज के समय की सबसे बड़ी विडम्बना है कि अखबारों को उपभोक्ता वस्तु के रूप में देखा और समझा जाने लगा है। लोग अपने घरों में अखबार मंगाना बोझ समझते हैं। उनके लिए अखबार आवश्यक वस्तु नहीं है। अखबार मंगाना और पढऩा प्रत्येक परिवार के लिए आवश्यक है। 
अखबार और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से हम अपने आसपास के होने वाली घटनाओं के साथ-साथ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों के बारे में जानकारी ले पाते हैं। हमें समझना होगा कि अखबार हमारी अनिवार्य बौद्धिक जरूरत है। हमें अपने घरों में अखबार तो मंगाना ही चाहिए साथ ही अखबारों को पढऩे के तौर-तरीकों के बारे में बच्चों को बताना होना। छत्तीसगढ़ के कई अखबार संपादकों से बात करके मुझे यह चौकाने वाली जानकारी मिली कि समाज से अखबार की मांग नहीं आ रही है। कम से कम लोगों से काम लिया जा रहा है। कुल मिलाकर छत्तीसगढ़ में अखबार संस्थाओं की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय है। दो वर्ष की कोरोना महामारी की मार ने अखबार तंत्र को धराशायी कर दिया है। अखबारों को फिर से खड़ा करना उनके लिए बड़ी चुनौती है।
अखबार एक ऐसा प्रभावी संचार माध्यम और प्रमाणिक दस्तावेज है, जो अपने समाज और राष्ट्र का इतिहासकार भी है। अखबार और पत्र-पत्रिकाएँ लोकतंत्र के सभी आधार और मूलभूत स्तंभों को आपस में जोडऩे का काम करती हैं। अखबार समाज की आवाज है। जाहिर है, कोई भी प्रगतिशील समाज गूंगा रहने का कलंक नहीं ढोना चाहेगा। सरकारों के लिए अखबार आंख-कान और नाक की भूमिका निभाते हैं। सरकारें अपनी जनता की आवाज को अखबारों के माध्यम से ही सुनते हैं।  
अखबारों के प्रति हमारी मानसिकता अच्छी ही होनी चाहिए। अखबारों में बड़ी ताकत होती है। अखबार ही सही मायनों में समाज और राष्ट्र को गतिशील और विचारशील बनाते हैं। अखबार के रूप में छपी हुई सामग्रियों का अधिकाधिक विस्तार हमें करना ही होगा। अखबार अगर चुप हो जाएँगे तो हमारा लोकतंत्र जीवित नहीं रह पाएगा और वह स्वत: ही निष्क्रिय हो जाएगा।
छत्तीसगढ़ के अखबारों को कम से कम 100 करोड़ रुपये का आर्थिक राहत दिया जाना चाहिए। अखबारों को उनकी दयनीय हालात पर छोड़ देने पर किसी का भला नहीं होगा। सरकार को चाहिए कि वह अखबार एवं पत्रिकाओं को सुदीर्घकालनी राहत पहुंचाए और यह राहत कम से कम पांच वर्षों का तो अवश्य होना चाहिए। अखबार की गुणवत्ता बढ़े इसके लिए कार्य करना अखबारों और लेखकों का नैतिक और नागरिक उत्तरदायित्व है।
छत्तीसगढ़ के अखबार एवं पत्र-पत्रिका संपादकों को एकजुट होकर सरकार के नीति निर्धारकों, राजनीतिक नेतृत्वकर्ताओं और नियामक संस्थाओं के साथ विचार-विमर्श करना चाहिए। अखबारों को सशक्त बनाना लोकतंत्र की अनिवार्यता है। अखबारों को आर्थिक राहत पाना, विज्ञापन पाना उनका संवैधानिक हक है। अखबार एवं पत्रिकाएँ अधिक से अधिक निकले, उनमें अच्छी एवं गुणवत्तापूर्ण पठनीय सामग्री का प्रकाशन हो तथा जनता उनको पढऩे और विमर्श के लिए लालायित रहे, इसी से ही लोकतंत्र की प्रगति का परिचय मिलेगा। विचारशील समाज के समक्ष अपने अखबारों और पत्रिकाओं को संरक्षण देने का उत्तरदायित्व तो रहता ही है। पत्र-पत्रिकाओं में रौनकता लौट आए, इसका समाधान खोजने के लिए अखबार जगत के लोगों को विचार-विमर्श करने चाहिए। समय रहते किसी बात का समाधान नहीं निकाला जा तो अरुचि बढ़ेगी है और अंतत: हानि ही होगी। छत्तीसगढ़ में अखबारकर्मी इतने संगठित नहीं हैं कि वे अपनी आवाज जनता और राजनीतिक नेतृत्वकर्ताओं तक पहुंचा सकें। सरकार को चाहिए कि वे अखबार जगत की अव्यक्त पीड़ा को महसूस करे, समझे और उचित समाधान खोज कर उसका क्रियान्वयन भी करे। 
                       (लेखक चिंतक, पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं)