अहमदाबाद। मानव मात्र की यह अपेक्षा होती है कि उनकी प्रत्येक इच्छा, आशा अवश्य पूर्ण हो। किंतु संयोज हमेशा सबको सानुकूल नहीं होते। समय-संयोग पुण्य और पुरूषार्थ सब सदैव हमारा साथ दें तो ही इच्छायें पूर्ण हो सकती है।
श्री लब्धि-विक्रम गुरूकृपा प्राप्त, वैराग्य भाव में रमण करने वाले, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित धर्मानुरागी आराधकों को संबोधित करते हुए फरमाया कि जीवन में जितना मिले, जो मिले, जैसा मिले उसमें आनंद एवं समाधि होनी चाहिए। पुण्य से अधिक और नसीब से कम किसी व्यक्ति को कुछ नहीं मिलता। पूज्यश्री फरमाते है कि अवसर लोग एक-दूसरे को दोषित ठहराते है। कोई कार्य न हुआ हो, अपनी धारणा मुताबिक कार्य ना हुआ हो हम किसी और को उसके लिए दोषित ठहराते है लेकिन दोषित वास्तविकता में हम स्वयं ही होते है। स्व कर्मों को दोष देना क्योंकि कर्मों को तो कोई इंस्पिरेशन नहीं कर सबके। जिस प्रकार के कर्म बंध हम करें उसी के हिसाब से हमें फल मिलते है। अत: कभी भी को चीज के लिए किसी को दोषित नहीं मान लेना चाहिए।
थोड़ा सा इच्छा विरूद्ध हुआ हो तो हताश हो जाते है, निराश हो जाने है और राजकल तो डीप्रेशन में चले जाते है। कुछ वर्षों पूर्व तो इस रोग का कोई नामोनिशान नहीं था और अभी तो जैसे हवा की तरह फैला रहा है। कई रोग शारीरिक होते है, दवाओं से ठीक से जाते है लेकिन मानसिक रोग ऐसा होता है जो चाहे जितना दवा ले ले। उससे ठीक हो पाना कठिन होता है। मानसिक रोग की एक ही दवाई है प्रसन्नता और आनंद। प्रत्येक व्यक्ति में, कार्य में कुछ न कुछ अच्छा हो होता ही है। पोजिटीवीटि ढूंढों और हकारात्मक सोचो, तंदुरस्त रहो। मेरे साथ ही क्यूं? मेरे साथ ही ऐसा होता है, ऐसी सोच केवल कमजोर व्यक्तियों की ही होती है। जो बहादुर होते है वे ऐसा सोचते है कि जीवन हमें कुछ नया और अच्छा सीखाना चाहती है। निष्फलता सफलता की जननी होती है। इसीलिए अंग्रेजी में कहा गया है एवरी फेल्योर इस दे मदर ऑफ सक्सेक्स।
मन से से यदि बलवान बनना हो तो प्रतिदिन प्रतिपल अच्छी चीजें ढूंढों, अच्छे विचारों में रहो, सद्वांचन तथा संत्संग में रहो। कोई सायकेस्ट्रिक भी आपके मन की स्वस्थता नहीं लौटा सकता जब तक हम स्वयं मन की स्वस्थता ना चाहे। इस मानसिक बिमारी का शिकार ना बनें इसका पूर्ण ध्यान रखें। धर्म ध्यान तथा शुभ ध्यान में मन को रखें जिससे मन एकदम प्रसन्न-शांत बना रहे। कि जैन शास्त्रों के पन्ने पलटकर जरा नजर कीजिये आप पायेंगे कि महापुरूषों ने अपने जीवन में कितना कुछ सहन किया है। उसके सामने तो हम कुछ नहीं है। ऐसे उच्च कक्षा के आलंबनों से अपने में एक महान शक्ति का संचार होगा और प्रत्येक तकलीफ को, निष्फलता को भी हम हकारात्मक स्वरूप से, प्रेरणा के रूप में लेने लगेंगे। परिणाम स्वरूप मन प्रसन्न-प्रसन्न-प्रसन्न ही रहेगा। दूसरों की खुशी में खुश रहना यदि सीख जायें तो खुशियों कहीं ढूंढनी नहीं पड़ेगी। बस डीप्रेशन के डी में ना फंसे नहीं तो मृत्यु से शीघ्र ही मिलन हो जायेगा। जे फोर से मिलन करें ताकि जीवन भव्य और महान बन जाये। शुभ विचारों से, शुभ ध्यान से मन को स्वस्थ बनाये। बस महापुरूषों के जीवन का आलंबन लेकर हम भी हमारा जीवन धन्य और महान बनाये।
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