मृत्युंजय दीक्षित
सिख समाज के महान संत व गुरू गुरूनानक का जन्म कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के दिन 1469 ई में रावी नदी के किनारे स्थित रायभुएकी तलवंडी में हुआ था जो अब ननकाना साहिब के नाम से जाना जाता है। अब यह स्थान पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित है। गुरु नानकदेव जी के पिता मेहता कालू गांव के पटवारी थे और इनकी माता जी का नाम तृप्ता देवी था। इनकी एक बहन भी थी जिनका नाम नानकी था।
प्रखर बुद्धि नानक बाल्यकाल से ही ये सासांरिक चीजों के प्रति उदासीन रहते थे। पढ़ाई-लिखाई में इनका मन कभी नहीं लगा। सात वर्ष की आयु में गांव के स्कूल में जब अध्यापक पंडित गोपालदास ने पाठ का आरंभ अक्षरमाला से किया लेकिन अध्यापक उस समय दंग रह गये जब उन्होंने गुरू से अक्षरमाला का अर्थ पूछा। अध्यापक के क्रोधित होने पर गुरूनानक ने हर एक अक्षर का अर्थ लिख दिया। गुरूनानक के द्वारा दिया गया यह पहला दैविक संदेश था। लज्जित अध्यापक ने गुरूनानक के पैर पकड़ लिये।
इस घटना के कुछ समय बाद नानक ने विद्यालय जाना ही छोड़ दिया। अध्यापक स्वयं गुरूनानक को घर छोडऩे आये। नानक के बचपन से ही कई चमत्कारिक घटनाएं घटित होने लग गयी जिससे गांव के लोग इन्हें दिव्य शक्ति से युक्त बालक मानने लगे।
कहा जाता है कि नानक का विवाह 14 से 18 वर्ष की आयु के बीच गुरूदासपुर जिले के बटाला के निवासी भाईमुला की पुत्री सुलक्खनी के साथ हुआ। उनकी पत्नी ने दो पुत्रों को जन्म दिया लेकिन नानक का मन पारिवारिक मामलों नहीं लगा। उनके पिता को भी जल्द ही समझ में आ गया कि विवाह भी नानक को अपने पथ से दिग्भ्रमित नहीं कर पाया।
नानक, गुरु नानकदेव बनकर शीघ्र ही अपने परिवार का भार अपने ससुर पर छोड़कर अपने चार शिष्यों मरदाना, लहना, नाला और रामदास को लेकर यात्रा के लिए निकल पड़़े। गुरूनानक देव ने संसार के दुखों को घृणा, झूठ और छल-कपट से परे होकर देखा इसलिए वे सच्चाई की मशाल लिए इस धरती पर अलौकिक प्यार के विस्तार से मानवता अलख जगाने चल पड़े। वे उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम चारों तरफ गये और हिंदू, मुसलमान, बौद्धों, जैनियों, सूफियों, योगियों और सिद्धों के विभिन्न केद्रों का भ्रमण किया। उन्होंने अपने मुसलमान सहयोगी मर्दाना जो कि एक भाट था के साथ पैदल यात्रा की। उनकी यात्राओं को पंजाबी में उदासियां कहा जाता है। इन यात्राओं में आठ वर्ष बीताने के बाद घर वापस लौटे। गुरूनानक एक प्रकार से सर्वेश्वरवादी थे। उनके दर्शन में वैराग्य तो है ही साथ ही उन्होनें तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक स्थितियों पर भी नजर डाली है। संत साहित्य में नानक ने नारी को उच्च स्थान दिया है। इनके उपदेश का सार यही होता था कि ईश्वर एक है। अपने दैवीय वचनों से उन्होंने उपदेश दिया कि केवल अद्वितीय परमात्मा की ही पूजा होनी चाहिये। जो भी धर्म जो अपने मूल्यों की रक्षा नहीं करता वह आने वाले समय में अपना अस्तित्व खो देता है। उनके संदेश का मुख्य तत्व इस प्रकार था– ईश्वर एक है, ईश्वर प्रेम है, वह मंदिर में है, मस्जिद में है और चारदीवारी के बाहर भी वह विद्यमान है। ईश्वर की दृष्टि में सारे मनुष्य समान हैं। वे सब एक ही प्रकार जन्म लेते हैं और एक ही प्रकार अंतकाल को भी प्राप्त होते हैं। ईश्वर भक्ति प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। उसमें जाति-पंथ, रंगभेद की कोई भावना नहीं है। जीवन के 40वें वर्ष में ही उन्हें सतगुरू के रूप में मान्यता मिल गयी। उनके अनुयायी सिख कहलाये। गुरु नानक देव के उपदेशों के संकलन को जपुजी साहब कहा जाता है। प्रसिद्ध गुरू ग्रंथसाहिब में भी उनके उपदेश संकलित हैं। सभी सिख उन्हें पूज्य मानते हैं और भक्तिभाव से इनकी पूजा करते हैं। कवि ननिहाल सिंह ने लिखा है कि, "वे पवित्रता की मूर्ति थे उन्होंने पवित्रता की शिक्षा दी। वे प्रेम की मूर्ति थे उन्होंने प्रेम की शिक्षा दी। वे नम्रता की मूर्ति थे, नम्रता की शिक्षा दी। वे शांति और न्याय के दूत थे। समानता और शुद्धता के अवतार थे। प्रेम और भक्ति का उन्होंने उपदेश दिया।
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