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डॉ. केवी सुब्रमण्यम, मुख्य आर्थिक सलाहकार, भारत सरकार
याद कीजिए वो वक्त, जब आपको रेलगाड़ी के अनारक्षित डिब्बे में सफर करना पड़ता था। अगर आपको याद हो, तो अनारक्षित डिब्बा ट्रेन खुलने के स्टेशन पर ही पूरी तरह से भर जाता था। अन्य लाखों लोग आरक्षण न होने के बावजूद अपने गंतव्य तक की यात्रा करना चाहते थे। जो लोग ट्रेन खुलने के स्टेशन पर ट्रेन के अनारक्षित डिब्बे में प्रवेश करने में सफल रहते थे, उनका प्रयास होता था कि कोई और अपने गंतव्य तक पहुंचने के इस 'विशेषाधिकारÓ का आनंद न ले पाए। अनारक्षित डिब्बे में यात्रा करने वाले निश्चित रूप से आम लोग हैं, जो उन्हें 'विशेषाधिकार प्राप्तÓ कहे जाने पर सवाल उठा सकते हैं। वे इस बात पर जोर देंगे कि उनकी हालत आरक्षित डिब्बों में यात्रा करने वालों से खराब है। हालांकि, आरक्षित डिब्बे में यात्रा करने वालों से तुलना करना वास्तविक मुद्दे को थोड़ा उलझाने जैसा है। सीधे तौर पर तुलना उन लोगों में होनी चाहिए जिन्हें आरक्षण नहीं मिला, यानी बहुसंख्यक, जो यात्रा करना चाहते हैं, लेकिन कर नहीं सकते बनाम अल्पसंख्यक, जिन्हें गंतव्य तक पहुंचने को लेकर भाग्यशाली कहा जा सकता है।
हमारे जैसे लोकतंत्र में सुधारों की राजनीतिक अर्थव्यवस्था को समझने के लिए यह उपमा महत्वपूर्ण है। कोई भी संरचनात्मक सुधार हितधारकों के दो समूहों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करता है-मुखर अल्पसंख्यक, जो सुधार का विरोध करते हैं बनाम एक मौन बहुसंख्यक, जिन्हें सुधार से लाभ मिलेगा। यथास्थिति से लाभान्वित होने की वजह से, मुखर अल्पसंख्यक अधिक समृद्ध हैं और इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि सत्ता के गलियारों में अपनी आवाज कैसे पहुंचाई जाए। इसके विपरीत, मौन बहुसंख्यक, जो यथास्थिति के कारण अभाव में अपना जीवन यापन करता है, अपनी आवाज पहुँचाने में असमर्थ रहता है। मुखर अल्पसंख्यक के विपरीत, मौन बहुसंख्यक अपनी आवाज दर्ज कराने के लिए अपनी एक दिन की आय छोडऩे की स्थिति में भी नहीं होता है। मुखर अल्पसंख्यक सुधार के परिणामों को स्पष्ट तौर पर समझता है। इसके विपरीत, मौन बहुसंख्यक तब तक इन लाभों के बारे में अनिश्चित रहता है, जब तक ऐसे लाभ वास्तव में उनके सामने प्रकट नहीं हो जाते। सूचना और आवाज उठाने की यह विषमता मुखर अल्पसंख्यक के पक्ष में बाधाओं को कम करती है और इस प्रकार, लोकलुभावन तरीकों को बढ़ावा देती है, जबकि सुधारों में इससे गतिरोध पैदा हो सकता है। इसलिए हम नागरिकों को सुधार की इस राजनीतिक अर्थव्यवस्था को समझने का प्रयास करना चाहिए।
इस राजनीतिक अर्थव्यवस्था में, 1991 में किए गए उत्पाद आधारित बाजार सुधार की तुलना में, अब प्रधानमंत्री के नेतृत्व में सरकार द्वारा किए गए कारक आधारित बाजार सुधार अधिक कठिन हैं। उत्पाद आधारित बाजार सुधार में घरेलू पूंजीपतियों और विदेशी पूंजीपतियों के बीच प्रतिस्पर्धा होती है। पूंजीवादी, लोकतंत्र में शायद ही कभी भावनात्मक रूप में प्रभावित होते हैं, जबकि सामुदायिक नेताओं के लिए इस तरह के सुधार के खिलाफ "आम आदमी" की बात को रखना मुश्किल हो जाता है। इसके विपरीत, पंजाब के अमीर किसान के लिए "आम आदमी" से सम्बन्धित बातों को आसानी से सामने रखा जा सकता है, हालांकि ये किसान शेष 28 राज्यों के करोड़ों किसानों की तुलना में काफी समृद्ध हैं।    
रेलगाड़ी के अनारक्षित डिब्बे की उपमा का उपयोग करते हुए अगर कहा जाए, तो पंजाब का अमीर किसान एक ऐसे अधिक विशेषाधिकार प्राप्त यात्री का प्रतिनिधित्व करता है जोकि यात्रा की शुरुआत वाले स्टेशन से ही अनारक्षित डिब्बे में चढ़ गया है और लाखों अन्य लोगों को अपने बाद डिब्बे के भीतर आने से रोककर उन्हें अपने गंतव्य तक पहुंचने से वंचित करता है। इस प्रकार, पंजाब का अमीर किसान 28 अन्य राज्यों के अपने कम विशेषाधिकार प्राप्त भाइयों को मिलने वाले संभावित लाभों की राह में अवरोध पैदा करता है। इस तरह, कृषि विधेयकों के आम आदमी के खिलाफ होने से संबंधित बयानबाजी निहायत ही बेतुकी है।
निजीकरण और परिसंपत्तियों के मुद्रीकरण के खिलाफ भी इसी किस्म की बयानबाजी– जोकि हकीकत से कोसों दूर है – घृणा फैलाने की हदतक बार-बार दोहरायी जाती है। संगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों को असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की तुलना में बेहतर वेतन, काम के घंटे और कामकाज की परिस्थिति का लाभ मिलता है। इस प्रकार, संगठित क्षेत्र के श्रमिक अधिक विशेषाधिकार प्राप्त श्रमिकों की श्रेणी में आते हैं। जैसा कि 2018-19 के आर्थिक सर्वेक्षण में दिखाया गया है, अत्यधिक कड़े श्रम कानूनों ने सिर्फ विशेषाधिकार प्राप्त श्रमिकों के हितों का ही समर्थन किया है जिसकी वजह से रोजगार सृजन के मामले में असंतुलन पैदा हुआ है। इस तरह, इसने हमारे युवाओं से संगठित क्षेत्र में नौकरी पाने के विशेषाधिकार को छीना है। "खानदानी चांदी" बेचने की घिसी-पिटी हल्लेबाजी बौद्धिक रूप से खोखली है। एक ऐसी अर्थव्यवस्था में, जहां सकल घरेलू उत्पाद में निजी क्षेत्र का सबसे बड़ा योगदान है, सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र को ही खानदान के तौर पर देखना खानदान के लिए सबसे अधिक कमाने वाले व्यक्ति को अनाथ मानने जैसा है। इसके अलावा, जैसा कि आर्थिक सर्वेक्षण 2019-20 में दिखाया गया है, सार्वजनिक क्षेत्र की अधिकांश परिसंपत्तियां मूल्यांकन करने पर मूल्य के मामले में और चाहे जो कुछ भी हों, पर चांदी जैसी कतई प्रतीत नहीं होती हैं। इस प्रकार, इन दोनों शब्दों -खानदान या चांदी - में से किसी का भी प्रयोग उपयुक्त नहीं है। परिसंपत्तियों के  मुद्रीकरण के लिए "खानदानी चांदी की बिक्री" जैसे मुहावरे का इस्तेमाल करना समझ की कमी को दर्शाता है क्योंकि किसी अर्थव्यवस्था में परिसंपत्तियों के मुद्रीकरण की प्रक्रिया में सार्वजनिक क्षेत्र की परिसंपत्तियों को उत्पादक उपयोग के लिए पट्टे पर देना- बेचना नहीं - शामिल होता है। एक नागरिक के तौर पर हम सभी को सुधारों के विरोधियों द्वारा फैलाए जाने वाले धोखे को समझना चाहिए क्योंकि वे अपना राजनीतिक आधार उन विशेषाधिकार प्राप्त मुखर लोगों में तलाशते हैं जिनकी संख्या कम हैं और जिन्हें यथास्थिति से लाभ मिलता है। वे जिस "आम आदमी" का पक्ष लेते हैं, वह दरअसल विशेषाधिकारों से लैस है और सत्ता के गलियारों में उसकी आवाज पर्याप्त तरीके से पहुंचती है। इसके उलट, सुधारों के समर्थक उन करोड़ों वंचितों को आकर्षित करते हैं जो बहुमत में होते हुए भी मौन हैं   'असली आम आदमी।Ó एक नागरिक के तौर पर हम सभी को इस छल को पहचानना चाहिए तथा सुधार विरोधी एवं विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के हितों के मसीहा और वास्तव में सुधारों के समर्थक एवं वंचितों के लिए लडऩे वाले लोगों के बीच के अंतर को समझना चाहिए। 
अंत में, एक नागरिक के तौर पर हम सभी को यह भी समझना चाहिए कि सुधारों के समर्थक जोखिम लेने के अपने दृढ़ विश्वास से प्रेरित होते हैं। चूंकि सुधारों के समर्थक उन वंचितों के हितों का पोषण करते हैं जिनकी आवाज सुधारों की घोषणा के समय नहीं सुनाई देती, वे एक राजनीतिक जोखिम उठाते हैं। 
इसलिए हमारे जैसे लोकतंत्र में हमें सुधारों के समर्थकों को उद्यमियों के बराबर महत्व देना चाहिए। तभी भारतीय अर्थव्यवस्था सभी को लाभ प्रदान करने के उद्देश्य से प्रगति कर सकती है।