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जीवन में गति और लय को बनाए रखने के लिए देने की भावना को जागृत करना सबसे ज्यादा जरूरी काम है। लेना स्वार्थ है देना परमार्थ। देना देवत्व है लेना असुरत्व। लेना दुख की वृद्धि है और देना सुख का विस्तार।
मनुष्य का समग्र जीवन पानी के किसी बुलबुले की भांति अस्थायी है। परमात्मा ने हमें यह जीवन प्रदान किया है। वह कब इसे वापस ले लेगा, कहना मुश्किल है। मनुष्य की भलाई इसी में है कि इस जीवन को परमात्मा के हाथों में सौंपकर उसके निर्देश में ही जीवन गुजर-बसर करे। परमात्मा के सिवाय इस सृष्टि में सब नश्वर है। नश्वर से प्रेम करना ही मानवीय दुख का मूल कारण है। 
मनुष्य इस तन को सजाने-संवारने में ही जीवन का बहुमूल्य समय नष्ट कर देता है। परमात्मा से जरा भी प्रेम नहीं करता है। यह अज्ञानता भी मनुष्य के दुख का एक कारण है। ईश्वर सत्य, सनातन, अजन्मा, अविनाशी और सुखदाता है। उससे प्रेम सुखदायी है, परंतु मनुष्य अपने सुख की खातिर रात-दिन धन संग्रह करता है। भौतिक संपदा के उपार्जन को ही जीवन का असली मकसद समझता है। मनुष्य की एक कामना पूर्ण नहीं होती, तब तक दूसरी इच्छा उसके समक्ष खड़ी हो जाती है। इनकी पूर्ति में वह जीवन भर लगा रहता है। 
जो सुख-शांति देने में है वह संग्रह करने में नहीं है। मनुष्य को संपन्नता ईश्वर ने दुखियों की सहायता करने के लिए ही प्रदान की है। संग्रह दुख, परेशानी की जड़ है। एक करोड़पति सुखी नहीं होता, लेकिन एक संत भगवान का भजन करके, संग्रह के बजाय वितरण करके खुश रहता है। भौतिकता के संग्रह में नहीं, त्याग में असली सुख है। सुखी होने का एक ही मार्ग है कि आपके पास जो है उसे आप जरूरतमंदों में बांटने की नीति सीखें। इस सृष्टि में सर्वत्र देने की प्रक्रिया है। सूर्य, चंद्रमा, वृक्ष, नदी, झरना सभी देते रहते हैं। जीवन में गति और लय को बनाए रखने के लिए देने की भावना को जागृत करना सबसे ज्यादा जरूरी काम है। लेना स्वार्थ है देना परमार्थ। देना देवत्व है लेना असुरत्व।
 लेना दुख की वृद्धि है और देना सुख का विस्तार। संग्रह की प्रवृत्ति का त्याग और ईश्वर से संबंध जोडऩा ही जीवन का संरक्षण तथा सुख-शांति का प्रमुख आधार है।