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ललित गर्ग, वरिष्ठ स्तंभकार
जब दुश्मनी निश्चित हो जाए तो उससे दोस्ती कर लेनी चाहिए-इस एक पंक्ति में फलसफा है, कूटनीति है, अहिंसा है, मानवीयता है एवं जीवन का सत्य है और यही भारतीयता भी है। इसी भारतीयता का एक अनूठा उदाहरण तमाम विपरीत स्थितियों के बावजूद अफगानिस्तान की मदद करके भारत ने प्रस्तुत किया है। भारत ने फिर से सहयोग, संवेदना एवं मानवीय सोच से कदम बढ़ाया है। संकट से जूझ रहे अफगान नागरिकों के लिए यहां से भारी मात्रा में जीवनरक्षक दवाओं की खेप भेजी गई है। जो विमान काबुल से भारतीय और अफगान नागरिकों को लेकर यहां आया था, उसी के जरिए यह खेप भेजी गई। यह भारत का सराहनीय कदम है, मानवीयता से जुड़ा है।
समस्या जब बहुत चिन्तनीय बन जाती है तो उसे बड़ी गंभीरता एवं चातुर्य से नया मोड़ देना होता है। भारत ने ऐसा ही किया गया है। जबसे अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता कायम हुई है, तबसे वहां भारत की गतिविधियां लगभग रुकी हुई थीं। वहां भारत के द्वारा चल रहे विकास के आयाम भी अवरुद्ध हो गये थे। तालिबानी मानसिकता एवं भारत विरोधी गतिविधियों के कारण शुरू में तो भारत लंबे समय तक यही तय नहीं कर पा रहा था कि वह तालिबान को मान्यता दे या न दे, क्योंकि पूरी दुनिया में तालिबान को एक दहशतगर्द, आतंकवादी एवं हिंसक संगठन माना जाता है और इस तरह किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कब्जा करके सत्ता बनाने वाली शक्तियों को मान्यता देना लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध माना जाता है। इन स्थितियों के कारण भारत द्वंद्व में रहा। समस्याएं अनेक रही हैं, चीन और रूस ने तालिबान की सत्ता को समर्थन देना भी एक समस्या रही है। भारत के सामने एक समस्या यह भी थी कि उसे अमेरिका का रुख भी देखना था। अमेरिका को पसंद नहीं कि कोई देश अफगानिस्तान की मदद करता। जब उसकी सेना वहां से हटी, तभी तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया था। इसलिए दुनिया के वे सभी देश तालिबान के विरोध में खड़े थे, जो अमेरिका के मित्र थे। लेकिन इन सब समस्याओं एवं स्थितियों के बावजूद भारत का एक स्वतंत्र वजूद भी रहा है, उसकी सोच राजनीति के साथ-साथ मानवीय एवं उदारवादी रही है। शायद यही वजह है कि भारत ने एक बार फिर अफगानिस्तान की जनता की खेर-खबर लेना जरूरी समझा है।
आज अफगानिस्तान के सम्मुख संकट इसलिए उत्पन्न हुआ कि वहां सब कुछ बनने लगा पर राष्ट्रीय चरित्र नहीं बना और बिन चरित्र सब सून........। तभी आतंकवाद जैसी स्थितियों के लिये उसका इस्तेमाल बेधड़क होने लगा, अहिंसा और शांति चरित्र के बिना ठहरती नहीं, क्योंकि यह उपदेश की नहीं, जीने की चीज है। उसे इस तरह जीने के लिये भारत ने वातावरण दिया, लेकिन उनका पडौसी पाकिस्तान इस वातावरण को पनपने नहीं दिया। अफगानिस्तान भारत का पड़ोसी है और पाकिस्तान का भी। पाकिस्तान के भारत से रिश्ते हमेशा तनाव भरे ही रहते हैं। ऐसे में अगर अफगानिस्तान का झुकाव भी उसकी तरफ रहेगा, तो भारत के लिए मुश्किलें और बढ़ सकती हैं। इसलिए भारत ने शुरू से अफगानिस्तान के साथ दोस्ताना संबंध बनाए रखा है। तालिबान के कब्जे से पहले वहां भारत ने अनेक विकास परियोजनाओं में भारी धन लगा रखा है। तालिबान के आने के बाद उन परियोजनाओं पर प्रश्नचिह्न लग गया था।
जगजाहिर है कि अफगानिस्तान तालीबानी बर्बरता एवं पाकिस्तानी कुचेष्ठाओं के चलते इस वक्त भयानक संकटों का सामना कर रहा है। देश में भुखमरी के हालात हैं, आम जीवन पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। विकास की जगह आतंकवाद मुख्य मुद्दा बना हुआ है। लाखों लोग पहले ही पलायन कर चुके हैं। सत्ता को लेकर तालिबान के उग्र तेवर एवं भीतर ही भीतर वहां के राजनीतिक गुटों में तना-तनी का माहौल है। देश के अंदरूनी मामलों में पाकिस्तान का दखल मुश्किलों को और बढ़ा रहा है, अधिक चिन्ता की बात तो यह है कि अफगानिस्तान की जमीन का उपयोग आतंकवाद के लिये हो रहा है। एक विकास की ओर अग्रसर शांत देश के लिये ये स्थितियां एवं रोजाना हो रहे आतंकी हमलों में निर्दोष नागरिकों का मारा जाना, भूख-अभाव का बढऩा, चिन्ताजनक है। भारत यदि इन चिन्ताओं को दूर करने के लिये आगे आया है तो यह एक सराहनीय कदम है।
इस तरह भारत ने अफगानिस्तान को जीवनरक्षक दवाओं की खेप भेज कर न सिर्फ दुनिया के सामने अपना मानवीय पक्ष स्पष्ट किया है, बल्कि अफगानिस्तान के लोगों का दिल जीतने का भी प्रयास किया है और कूटनीतिक दृष्टि से भी बड़ा कदम उठाया है। चीन और अमेरिका दोनों को इससे स्पष्ट संकेत मिल गया है। भारत अभी अफगानिस्तान को पचास हजार टन अनाज और दवाओं की कुछ और खेप भेजने वाला है। यह खेप पाकिस्तान के रास्ते जानी है। पाकिस्तान ने इसके लिए रास्ता दे दिया है, उस पर दोनों तरफ के अधिकारी अंतिम बातचीत के दौर में हैं। तालिबानी हमले की वजह से अफगानिस्तान में बड़ी तबाही मची है, वहां के पारंपरिक कामकाज भी लगभग ठप हैं। ऐसे में वहां के लोगों के लिए भोजन और दवाओं की किल्लत झेलनी पड़ रही है। भारत से पहुंची यह मदद वहां के लोगों के लिए बड़ी राहत पहुंचाएगी। इससे वहां की जनता में भारत के प्रति मानवीय सोच पनपेगी। भारत चाहता है कि अफगानी लोग अहिंसा, शांति, मानवीयता एवं आतंकमुक्ति का जीवन जीये। न अहिंसा आसमान से उतरती है, न शांति धरती से उगती है। इसके लिए पूरे राष्ट्र का एक चरित्र बनाना जरूरी होता है, भारत ऐसी ही कोशिश कर रहा है। वही सोने का पात्र होता है, जिसमें अहिंसा रूपी शेरनी का दूध ठहरता है। वही उर्वरा धरती होती है, जहां शांति का कल्पवृक्ष फलता है। ऐसी संभावनाओं को तलाशते हुए ही भारत सहयोग के लिये आगे आया है।
भारत ने तो अफगानिस्तान का लम्बे समय तक सहयोग किया है। वहां के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जो भारत वहां का विकास चाहता है, शांति चाहता है, उन्नत चरित्र गढऩा चाहता है, वहां उन्नत जीवनशैली चाहता है, हर इंसान को साधन-सुविधाएं, शिक्षा-चिकित्सा देना चाहता है, उस देश का भी भारत के साथ प्रगाढ़ मै़त्री संबंध है, इन सुखद स्थितियों के बीच उस जमीन का उपयोग भारत विरोधी गतिविधियों के लिये हो, यह कैसे औचित्यपूर्ण हो सकता है? यह तो विरोधाभासी स्थिति है। भारत तो वहां लंबे समय से विकास की बहुआयामी एवं विकासमूलक योजनाओं में सहयोग के लिये तत्पर है। वहां संसद भवन के निर्माण, सड़कों का नेटवर्क खड़ा करने से लेकर बांध, पुलों के निर्माण तक में भारत ने मदद की है। लेकिन अब मुश्किल तालिबान सत्ता को मान्यता देने को लेकर बनी हुई है। दो दशक पहले भी भारत ने तालिबान की सत्ता को मान्यता नहीं दी थी। जाहिर है, इसमें बड़ी अड़चन खुद तालिबान ही है। जब तक तालिबान अपनी आदिम एवं आतंकी सोच नहीं छोड़ता, मानवाधिकारों का सम्मान करना नहीं सीखता, तब तक कौन उसकी मदद के लिए आगे आएगा? अब यह तालिबान पर निर्भर है कि वह गतदिनों दिल्ली में हुए क्षेत्रीय सुरक्षा संवाद को किस तरह लेता है और कैसे सकारात्मक कदम बढ़ाता है। लेकिन उसकी मानसिकता बदलने तक भारत इंतजार नहीं कर सकता है, इसलिये उसने अफगानी लोगों के सहयोग के लिये अपने कदम बढ़ा दिये हैं, जो सराहनीय है, मानवीय सोच से जुड़े हैं, निश्चित ही इन सहयोगी कदमों का सकारात्मक प्रभाव देखने को मिलेगा।