मनुष्य का मन वायु और प्रकाश की गति से भी अधिक गतिमान रहता है। उसमें भांति-भांति के विचार आते हैं। इनमें अच्छे विचार भी होते हैं और बुरे भी। वस्तुत: मनुष्य का जीवन मन के इन विचारों से ही संचालित रहता है। मानव का मन बहुत अशांत और चंचल प्रकृति का होता है। इस अशांति के मूल में मुख्य रूप से मनुष्य की मोह-माया ही होती है। हमारे ग्रंथों में उल्लिखित है कि मन ही मनुष्य को सांसारिक बंधनों में बांधता है और मन ही उन बंधनों से मुक्ति दिलाता है। मन के विचार ही हमें एक क्षण में श्रेष्ठता के शिखर पर पहुंचा देते हैं तो पल भर में हमें पतन की गहराइयों में भी धकेल देते हैं। ऐसे में अशांत एवं चंचल मन को स्थिर और नियंत्रण में रखना बहुत आवश्यक है।
जो लोग मन को नियंत्रित नहीं कर पाते उनके लिए वह शत्रु के समान कार्य करता है। ऐसे में यह कहना उचित होगा कि मन की साधना से बड़ी कोई साधना नहीं। अंतर्मन से बड़ा कोई मार्गदर्शक नहीं। मनुष्य के मन में यदि दुर्बलता व्याप्त है तो वह कभी सफल नहीं हो सकता। दुर्बल मन वाला जन आसान काम करने में भी घबराता है। वहीं दृढ़ मन:स्थिति वाला व्यक्ति कठिन कार्यो को भी सहजता से करने की सामथ्र्य रखता है। इसलिए मन की शक्ति को बढ़ाने के लिए सदैव प्रयास करना चाहिए।
तन के साथ भी मन का अन्योन्याश्रय संबंध है। मानवीय देह स्थूल है मन सूक्ष्म। किसी बुरे से बुरे प्रसंग की ओर यदि मन रुचि लेने लगे तो वह कार्य परम प्रिय लगने लगता है और कितनी ही हानि उठाकर भी मनुष्य उसमें संलग्न रहता है। माना गया है कि मानसिक शक्ति शारीरिक शक्ति से श्रेष्ठ होती है। मन की शक्ति एक जिन्न की भांति होती है, जिसमें शक्ति तो अपार होती है, परंतु यदि उसे सकारात्मक मार्गदर्शन या दिशा न दिखाई गई तो वही व्यक्ति के पतन का कारण भी बन जाती है। वास्तव में जो मन की शक्ति के स्वामी होते हैं, उनके समक्ष ही संसार नतमस्तक होता है।
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