डा. भरत झुनझुनवाला
वर्ष 2021 के अंत में देश की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ दिख रही है। जीएसटी की वसूली बढ़ी हुई है। शेयर बाजार उछल रहा है। रुपये का मूल्य स्थिर है। तमाम वैश्विक आकलन के अनुसार भारत विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तीव्र आर्थिक विकास हासिल करने वाली अर्थव्यवस्था बन चुका है, लेकिन साथ-साथ इसके सामने नई चुनौतियां भी उभर कर सामने आ रही हैं। जनता द्वारा कुल खपत अभी भी कोविड पूर्व के स्तर पर नहीं पहुंची है। ग्रामीण बेरोजगारी बढ़ रही है। वेतन की दरें गिर रही हैं। असमानता में वृद्धि हो रही है। प्रधानमंत्री ने स्वयं रोजगार को प्रमुख चुनौती बताया है। तीव्र विकास और घटते रोजगार के विरोधाभास की जड़ें हमारे आर्थिक विकास के माडल में हैं।
नीति आयोग द्वारा 2018 में रोजगार के संबंध में दो उद्देश्य सामने रखे गए थे। पहला, श्रम प्रधान उत्पादन को बढ़ावा दिया जाए। दूसरा, औपचारिक रोजगार को बढ़ाया जाए। इन दोनों उद्देश्यों में परस्पर अंतरविरोध है। जब हम रिक्शा चालक अथवा रेहड़ीवाले को औपचारिक रोजगार में ले जाते हैं तो उनके माल की लगत बढ़ती है। जैसे यदि हम नुक्कड़ पर चना भूजने वाले का पंजीकरण करके उसे फूड प्रोडक्ट आर्डर के अंतर्गत पंजीकृत चना बेचने को प्रेरित करते हैं तो उसे अच्छी क्वालिटी का लिफाफा लगाना होगा, दुकान का किराया देना होगा होगा। इससे उसके चने की लागत बढ़ेगी।
यदि छोटे उद्योग अपने कर्मियों का औपचारीकरण करते हैं तो उन पर न्यूनतम वेतन कानून लागू हो जाता है। श्रमिक का वेतन बढ़ता है तो उत्पादन लागत में वृद्धि होती है। अत: यदि हम औपचारिक रोजगार को बढ़ावा देंगे तो रोजगार समाप्त होंगे। रोजगार में वृद्धि हासिल करने के लिए उन्हें अनौपचारिक रखना ही जरूरी है। तब उनकी जीविका न्यून स्तर पर ही सही, परंतु चलती रहेगी। जैसे मान लीजिए नुक्कड़ पर मोमो बेचने वाले पांच ठेले वालों का औपचारीकरण करके इन्हें एक दुकान में ला दिया गया, जहां आटोमेटिक मशीन से मोमो बनाए जाते हैं। अब पांच के स्थान पर केवल दो रोजगार उत्पन्न होंगे। इन दो को वेतन अच्छे मिल सकते हैं, परंतु संख्या तो कम होगी ही। जो शेष तीन कर्मी बेरोजगार हो जाएंगे उनकी आय कम होगी ही। वे दूसरे स्थानों पर कम वेतन में अपना जीविकोपार्जन करने को मजबूर होंगे। इसलिए हम देख रहे हैं कि एक साथ शेयर बाजार बढ़ रहा है और बेरोजगारी भी बढ़ रही है। इसलिए हम औपचारीकरण का मोह छोड़ें और रोजगार की संख्या में वृद्धि हासिल करें। औपचारिक मृत्यु की तुलना में अनौपचारिक जीवन ही अच्छा है। नीति आयोग को यह बात समझाई जाए। दूसरी चुनौती महंगाई की है। वर्तमान में ग्लोबल वार्मिंग के कारण तमाम प्राकृतिक परिवर्तन हो रहे हैं। कहीं सूखा तो कहीं अति वर्षा की मार पड़ रही है। इससे कई कृषि उत्पाद खराब हो रहे हैं। फलस्वरूप उत्पादन प्रभावित होने से महंगाई बढ़ी है। यहां भी आर्थिक विकास का माडल दोषी है। वर्तमान माडल में हमारा प्रयास रहता है कि हम सस्ता उत्पादन करें। जैसे थर्मल बिजली संयंत्रों को वायु प्रदूषित करने के मानकों में सरकार ने ढील दी है। उनके द्वारा आज सस्ती बिजली बनाई जा रही है। संपूर्ण उद्योगों में उत्पादन लागत कम आ रही है। बिजली संयंत्रों को वायु प्रदूषित करने की छूट न देते तो बिजली महंगी होती और उद्योगों में उत्पादन लागत ज्यादा आती। लिहाजा महंगाई बढ़ती, लेकिन उसी वायु प्रदूषण के कारण जलवायु में परिवर्तन आया है। सूखे तथा बाढ़ जैसी समस्याएं पैदा हुई हैं और टमाटर आदि के दाम बढ़ रहे हैं। इसलिए आर्थिक विकास के साथ महंगाई बढ़ रही है और आम आदमी मुश्किल में है। कारण यह है कि वर्तमान माडल में हम केवल सीधे लाभ को देखते हैं।
हाल में महाराष्ट्र के एक मंत्री ने कहा कि पर्यावरणीय आपदाओं के कारण जनता की क्षतिपूर्ति करने में सरकार को भारी व्यय करने पड़ रहे हैं। कहने का आशय यह है कि जब हम थर्मल संयंत्रों को प्रदूषण करने की छूट देकर सस्ती बिजली बनाकर आर्थिक विकास हासिल करते हैं तो उसी छूट के कारण प्राकृतिक आपदाएं आती हैं और हमें उसका मूल्य अदा करना पड़ता है, लेकिन अर्थशास्त्रियों द्वारा केवल सस्ती बिजली के लाभ को देखा जाता है और पर्यावरण के कारण जो अप्रत्यक्ष हानि होती है, उसे नजरंदाज किया जाता है। परिणामस्वरूप सस्ती बिजली के बावजूद आर्थिक विकास की दर पिछले सात वर्षों में लगातार घट रही है। कृषि उत्पादन में अनिश्चितता और महंगाई बढ़ रही है। 2022 की चुनौती है कि पर्यावरण रक्षा के उन उपायों को लागू किया जाए, जिनसे आर्थिक विकास की हानि कम और कृषि उत्पादन की हानि शून्य हो जाए। तब हम आर्थिक विकास के साथ-साथ महंगाई पर नियंत्रण कर सकेंगे और किसानों की आय में भी सुधार हासिल कर सकते हैं।
तीसरी चुनौती वैश्विक पूंजी के पलायन की है। वर्तमान में अपने देश के साथ-साथ अमेरिका में भी महंगाई दर बढ़ रही है। बीते समय में अपने रिजर्व बैंक की तर्ज पर अमेरिका के फेडरल रिजर्व बोर्ड ने भी मुद्रा की तरलता बनाए रखी है, जिसके कारण दोनों देशों में महंगाई बढ़ रही है। पर्यावरण के बाद महंगाई बढऩे का यह दूसरा कारण है। अमेरिका में महंगाई पर नियंत्रण पाने के लिए फेडरल रिजर्व द्वारा तरल मुद्रा नीति को वापस लेने के संकेत मिल रहे हैं। यदि फेडरल रिजर्व ने मुद्रा का प्रचलन कम किया तो अमेरिका में ब्याज दरों में वृद्धि होगी। इन ऊंचे ब्याज के लालच में भारत समेत अन्य विकासशील देशों से पूंजी का पलायन अमेरिका को हो सकता है। हम अमेरिका में ब्याज दरों की वृद्धि को नहीं रोक सकते, लेकिन अपने देश में निवेश को और आकर्षक बना सकते हैं, जिससे अमेरिका के ऊंचे ब्याज के लालच में हमारी पूंजी पलायन न करे। 2022 की चुनौती यह भी है कि देश अपने को विदेशी पूंजी के लिए आकर्षक बनाए रखे, जिससे पूंजी का पलायन न हो। यदि समय रहते हम इन चुनौतियों का सामना करने की रणनीति नहीं बनाएंगे तो जीएसटी की वसूली, शेयर बाजार में उछाल और सबसे तीव्र आर्थिक विकास के बावजूद हम पीछे रह जाएंगे।
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