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कर्ण सिंह, पूर्व केंद्रीय मंत्री

कोविड-19 महामारी ने भारत को कई पीड़ादायक सबक दिए हैं। पहला सबक तो यही है कि हम अब प्रकृति का निर्मम शोषण जारी नहीं रख सकते। जलवायु संकट, अनियमित मौसमी परिघटनाएं और वायु, भूमि व महासागर के प्रदूषण ने देश और दुनिया को एक खतरनाक मुहाने पर ला खड़ा कर दिया है। जब तक कि ये सभी तुरंत पुराने रूप में नहीं ढल जाते, हम गंभीर संकट में हैं। यह देखना अद्भुत रहा कि लॉकडाउन ने प्रकृति को फिर से संवारने का काम किया है। इस अवधि में हमने कई दशकों के बाद फिर से नीला आसमान देखा, प्रदूषण का स्तर नीचे गिरा और जीवों, पक्षियों व कीटों की कई प्रजातियों को नवजीवन मिला। हमें लगातार प्रयास करना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि ये सकारात्मक बदलाव निरंतर कायम रहें, ताकि हम ‘ओल्ड नॉर्मल’ की तरफ वापस न लौट जाएं, बल्कि प्रकृति को समान तवज्जो देते हुए ‘न्यू नॉर्मल’ को अपनाएं।

दूसरा सबक यह है कि हमें अपनी विकास योजनाओं को नए सिरे से गढ़ना होगा, जिनमें स्वास्थ्य और शिक्षा के मद में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का कम से कम तीन-तीन प्रतिशत आवंटन अनिवार्य होना चाहिए। अगर भारत इन क्षेत्रों को मजबूत नहीं करता है, तो वैश्विक ताकत बनने की सारी उम्मीदें बिखर जाएंगी। हमारी यह राष्ट्रीय विफलता रही है कि आजादी के बाद से अब तक हमने इन पर इस कदर ध्यान नहीं दिया है। यह भी साफ है कि भारत जैसे विशाल संघ वाले राष्ट्र में कोविड जैसा संकट केंद्र और राज्यों के बीच मजबूत सहयोग की मांग करता है, फिर चाहे सत्ता में कोई भी राजनीतिक दल क्यों न हो। स्वास्थ्य राज्य के अधीन विषय है, और इस संकट से जमीनी तौर पर सूबों और केंद्रशासित क्षेत्रों को ही लड़ना है। लिहाजा यहां टकराववादी संघवाद की बजाय सहकारी संघवाद की दरकार है।

तीसरा सबक, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जैसे नेताओं द्वारा वैश्वीकरण की अवधारणा को नष्ट करने के प्रयासों के बावजूद तथ्य यही है कि कोविड-19 जैसी मुश्किलों से पार पाने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग अनिवार्य है। यह वैक्सीन की खोज के लिए भी जरूरी है और दवाओं व व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों (पीपीई किट) की उपलब्धता के लिहाज से भी। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की हमारी प्राचीन अवधारणा बताती है कि कोई भी राष्ट्र, फिर चाहे वह कितना भी महान क्यों न हो, खुद के लिए एक द्वीप नहीं बना रह सकता। मानव जाति अंतत: एक साथ ही डूबेगी या फिर उबरेगी। हमारे पास दुनिया के कुछ सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक और शोधकर्ता हैं, और भारत की कई प्रयोगशालाएं कोरोना वायरस के खिलाफ टीका बनाने के लिए दिन-रात काम कर रही हैं। हमारे लिए अन्य देशों की प्रयोगशालाओं के साथ सहयोग मूल्यवान  साबित होगा।  

स्वास्थ्य मंत्री के तौर कई मौकों पर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के कॉन्फ्रेंस में मैंने भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया है। डब्ल्यूएचओ की जिनेवा की इमारत में नटराज की एक सुंदर तस्वीर है। इसे मैंने ही तत्कालीन महानिदेशक डॉ एच महलर को भेंट की थी, जब वह चेचक के वैश्विक उन्मूलन के जश्न समारोह में हिस्सा लेने दिल्ली आए थे। बेशक हाल के दिनों में इस संगठन की खासा आलोचना हुई हो, फिर भी मुझे लगता है कि हमें इसके साथ भरपूर सहयोग करना चाहिए और इसकी संगठनात्मक विशेषता का लाभ उठाना चाहिए।

चौथा सबक यह है कि लॉकडाउन के अचानक लिए गए फैसले और जरूरी तैयारी न किए जाने के कारण लाखों प्रवासी मजदूरों को हुआ असहनीय कष्ट राष्ट्र के लिए गहरे शर्म का विषय है। यह हमें बता रहा है कि समाज के सबसे कमजोर वर्गों के लिए एक सुरक्षा जाल होना ही चाहिए। ऐसा इसलिए भी, क्योंकि देश की एक चौथाई आबादी आज भी गरीबी रेखा के नीच जीवन बसर कर रही है। इसके लिए अन्य तमाम उपायों के अलावा, एक तरीका उनके बैंक खातों में एक सुनिश्चिय न्यूनतम आय जमा करना है। बतौर राष्ट्र भारत कम से कम इतना तो कर ही सकता है। अपनी वित्तीय योजनाओं को फिर से गढ़कर और मौद्रिक नीति को इनके अनुकूल बनाकर हम ऐसा कर सकते हैं।

पांचवां सबक, इस वायरस ने हमें पारिवारिक रिश्तों को फिर से बनाने और विशेषकर बुजुर्गों के साथ स्नेह व सहयोग बढ़ाने को प्रेरित किया है। लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा की बढ़ी घटनाएं परेशान कर रही हैं। यह उसके उलट है, जिसकी हमें जरूरत है। मौजूदा कानूनों को सख्ती से लागू करने की आवश्यकता है, क्योंकि महिलाओं, बच्चों या बुजुर्गों के प्रति किसी भी तरह का अनुचित व्यवहार अस्वीकार्य है। यह भारतीय संस्कृति के सिद्धांतों के खिलाफ भी है। कोविड-19 संकट ने हमें निजी जीवनशैली को भी इस कदर बदलने के लिए मजबूर किया है कि विलासिता की वस्तुओं पर अनावश्यक खर्च कम से कम हो। हममें से कुछ बेशक काफी ज्यादा खर्च कर सकने में सक्षम हैं, लेकिन इससे अनावश्यक खर्च का औचित्य साबित नहीं हो जाता। बाकायदा कानून द्वारा सगाई और विवाह समारोहों में पैसों का होने वाला अश्लील प्रदर्शन रोका जाना चाहिए, और अनगिनत मेहमानों का आना नियंत्रित किया जाना चाहिए। ऐसे आयोजनों में अधिकतम 50 अतिथि शामिल होने चाहिए। ऐसे देश में, जहां लाखों लोगों को दिन भर में संतुलित भोजन तक न मिल पाता हो, वहां चंद लोगों पर बेहिसाब पैसे खर्च करना किसी अपराध से कम नहीं है।

और आखिरी सबक, कोरोना वायरस ने हमें मौन और एकांत के लाभ सिखाए हैं, ताकि हम खुद के भीतर झांक सकें और अपनी चेतना की गहनता का पता लगा सकें। हम सतही गतिविधियों में इस कदर खो जाते हैं कि हमें शायद ही कभी खुद में देखने का समय मिलता है। यह दरअसल, हमारी आंतरिक चेतना है, जो हमारे कार्यों और संबंधों में खुद को व्यक्त करेगी। यदि हम स्वयं के भीतर उस दिव्य प्रकाश को खोज सकें, जो हमारे अस्तित्व का मूल है, तो यह न केवल हर इंसान, बल्कि समाज को भी बड़े पैमाने पर लाभान्वित करेगा।
(ये लेखक के अपने निजी विचार हैं)