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 ललित गर्ग
देश की राजधानी दिल्ली के कस्तूरबा नगर में गणतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्व के दिन हुई गैंगरेप की घटना ने एक बार फिर हमें शर्मसार किया है, झकझोर दिया है। बड़ा सवाल यह है कि नारी अस्मिता को कुचलने की हिंसक मानसिकता का तोड़ हम अब भी क्यों नहीं तलाश पा रहे हैं? क्यों नये-नये एवं सख्त कानून बन जाने के बावजूद नारी की अस्मिता एवं अस्तित्व असुरक्षित है? क्यों हमारे शहरों को 'रेप सिटी ऑफ द वर्ल्डÓ कहा जाने लगा है। आखिर कब तक महिलाओं के साथ ये दरिन्दगीभरी एवं त्रासद घटनाएं होती रहेंगी? नारी की अस्मत का सरेआम लूटा जाना एवं उन पर हिंसा - एक घिनौना और त्रासद कालापृष्ठ है और उसने आम भारतीय को भीतर तक झकझोर दिया। भले ही दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल के दखल के बाद सभी दलों के लोगों ने इस मसले को उठाया और पुलिस ने भी देर किए बगैर 11 लोगों को गिरफ्तार कर लिया, लेकिन सोशल मीडिया पर वायरल हुए वीडियो में जो शुरुआती तथ्य सामने आ रहे हैं वे रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं।
सामूहिक गैंगरेप की पीडि़ता 20 साल की शादीशुदा महिला है, जो एक बच्चे की मां है। पिता की बीमारी के चलते वह मायके में रह रही थी, जहां पड़ोस में रहने वाले एक परिवार का 16 साल का एक लड़का उसकी ओर आकर्षित हो गया था। उसके प्यार के प्रस्तावों को जब इस लड़की ने ठुकरा दिया तो पिछले साल नवंबर महीने में उसने खुदकुशी कर ली। आरोपी परिवार ने अपने घर के बच्चे की मौत के लिए इस महिला को जिम्मेदार माना। गणतंत्र दिवस के दिन हुई घटना उसे सबक सिखाने के मकसद से अंजाम दी गई बताई जा रही है। आश्चर्य नहीं कि इस पूरी घटना में परिवार की महिलाएं बढ़-चढ़ कर शामिल रहीं। जिन नौ लोगों को गिरफ्तार किया गया है, उनमें सात इसी परिवार की महिलाएं हैं। बड़ा सवाल है कि आखिर हम किस तरह का व्यभिचारी, बलात्कारी एवं यौन विकृति का समाज बना रहे हैं, उसमें महिलाओं के सपने एक झटके में ही खत्म हो रहे हैं। आज देश की कोई बेटी खुद को सुरक्षित नहीं मानती। सब इसी आशंका में जीती हैं कि न जाने कब, किसके साथ कुछ गलत हो जाए। दिल्ली सरकार के साथ-साथ केन्द्र सरकार के सम्मुख नारी अस्मिता की सुरक्षा की बड़ी चुनौती है।
इस गैंगरेप का सबसे त्रासद, शर्मनाक एवं खौफनाक दृश्य यह है कि पीडि़ता के साथ गैंगरेप के दौरान कमरे में कई महिलाएं मौजूद थीं, जो बलात्कारियों को और ज्यादा क्रूरता के लिए उकसा रही थीं। वायरल हुए एक विडियो में भी पीडि़ता के मुंह पर कालिख पोत, उसे जूतों की माला पहनाकर गलियों में घुमाते हुए महिलाएं ही दिख रही हैं। इस घृणित प्रकरण के आरोपियों को लेकर गुस्सा और उनके खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई की मांग उठना जायज है, लेकिन भूलना नहीं चाहिए कि यह प्रकरण हमारे समाज में प्रचलित पारिवारिक संस्कारों में बैठी पितृसत्तात्मक सोच एवं नारी को दोयम दर्जा दिये जाने की मानसिकता को बड़ी निर्ममता से उजागर करती है। सभ्य समाज में ऐसी घटनाएं बर्दाश्त से बाहर हैं। यह कैसा समाज है जो किसी असहाय महिला की मदद की बजाय उसे बीच बाजार अपनी अस्मत लुटाने को विवश कर देता है। लोगों द्वारा मदद नहीं करने का कारण आरोपी परिवार की दबंग पृष्ठभूमि भी है। भारत में महिलाओं पर अत्याचार, हिंसा और शोषण जैसी अमानवीय घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं।
दुखद पहलू यह है कि न सिर्फ आरोपी परिवार अपने बच्चे की खुदकुशी के लिए उस शादीशुदा महिला की 'नाÓ को जिम्मेदार मान रहा था बल्कि सम्पूर्ण मौहल्ला-आसपडौस एवं उपस्थित भीड़ इस अपराध में शामिल रही, तभी पीडि़ता को जूते पहनाकर गलियों में घूमाने पर सभी तमाशबीन बन इस हैवानियत को देखता रहा। भीड़ केवल हूटिंग करती दिखी। तमाशबीनों की भीड़ असहाय बनकर देखती रही। यह हृदय विदारक दृश्य दूरदराज के ग्रामीण इलाके का नहीं बल्कि महानगर दिल्ली में देखने को मिला। दिल्ली एक बार फिर शर्मसार हुई। एक नाबालिग लड़के की आत्महत्या के लिए इस महिला को दोषी मानते हुए दबंग परिवार के तीन लोगों ने उसका यौन शोषण भी किया।
 कौन मानेगा कि यह वही दिल्ली है, जो करीब दस साल पहले निर्भया के साथ हुई निर्ममता पर इस कदर आन्दोलित हो गई थी कि उसे इंसाफ दिलाने सड़कों पर निकल आई थी। जाहिर है, समाज की विकृत सोच को बदलना ज्यादा जरूरी है। रेप जैसे अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए रेपिस्टों के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई करने और पुलिस व्यवस्था को और चाक-चौबंद करने की मांग के साथ समाज के मन-मिजाज को दुरुस्त करने का कठिन काम भी हाथ में लेना होगा। यह घटना शिक्षित समाज के लिए बदनुमा दाग है। अगर ऐसी घटनाएं होती रहीं तो फिर कानून का खौफ किसी को नहीं रहेगा और अराजकता की स्थिति पैदा हो जाएगी। ऐसी हिंसा के खिलाफ महिलाओं को स्वयं आवाज बुलंद करनी चाहिए। कानून कितने भी क्यों न हों जब तक समाज स्वयं महिलाओं को सम्मान नहीं देगा तब तक कुछ नहीं हो सकता। समाज तमाशबीन बना रहेगा तो फिर कौन रोकेगा हैवानियत, दरिन्दगी को, बलात्कार को।
जैसे-जैसे देश आधुनिकता की तरफ बढ़ता जा रहा है, नया भारत-सशक्त भारत-शिक्षित भारत बनाने की कवायद हो रही है, वैसे-वैसे महिलाओं पर हिंसा के नये-नये तरीके और आंकड़े भी बढ़ते जा रहे हैं। अवैध व्यापार, बदला लेने की नीयत से तेजाब डालने, साइबर अपराध और लिव इन रिलेशन के नाम पर यौन शोषण हिंसा के तरीके हैं। जबकि पहले से ही डायन समझ कर महिलाओं को पीट-पीट कर मार डालना, जादू-टोना के नाम पर महिलाओं का यौन शोषण और घरेलू हिंसा आज भी जारी है। पहले कहा जाता था कि ऐसे अपराध केवल निरक्षर और दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा होते हैं लेकिन आजकल शहरों और महानगरों में महिलाओं के साथ अन्याय की खबरें देखने और पढऩे को मिल जाती हैं।
हम सभी कल्पना रामराज्य की करते हैं पर रच रहे हैं महाभारत। महाभारत भी ऐसा जहां न कृष्ण है, न युधिष्ठिर और न अर्जुन। न भीष्म पितामह हैं, न कर्ण। सब धृतराष्ट्र, दुर्योधन और शकुनि बने हुए हैं। न गीता सुनाने वाला है, न सुनने वाला। बस हर कोई द्रोपदी का चीरहरण कर रहा है। सारा देश चारित्रिक संकट में है। जब समाज की मानसिकता दुराग्रहित है तो दुष्प्रचार एवं दुष्प्रवृत्तियां ही होती हैं। कोई आदर्श संदेश राष्ट्र को नहीं दिया जा सकता। जब कभी ऐसी किसी खौफनाक, त्रासद एवं डरावनी घटना की अनेक दावों के बावजूद पुनरावृत्ति होती है तो यह हमारी जबावदारी पर अनेक सवाल खड़े कर देती है। प्रश्न है कि आखिर हम कब औरत की अस्मत को लुटने की घटना और हिंसक मानसिकता पर नियंत्रण कर पायेंगे?
राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो नाजुक और अबला समझी जाने वाली महिलाओं की दिल दहला देने वाली आपराधिक वारदातें बढ़ती ही जा रही हैं। दिल्ली की घटना रंजिश का परिणाम मानी जा सकती है लेकिन पीडि़त महिला पर अत्याचार ढाने में महिलाओं की भागीदारी भी ज्यादा दिखाई देती है। महिला ही महिला की दुश्मन बनी है। मान्य सिद्धांत है कि आदर्श ऊपर से आते हैं, क्रांति नीचे से होती है। 
पर अब दोनों के अभाव में तीसरा विकल्प 'औरतÓ को ही 'औरतÓ के लिए जागना होगा। सरकार की उदासीनता एवं जनआवाज की अनदेखी भीतर-ही-भीतर एक लावा बन रही है, महाक्रांति का शंखनाद कब हो जाये, कहां नहीं जा सकता? दामिनी की घटना ने ऐसी क्रांति के दृश्य दिखायें, लगता है हम उसे भूल गये हैं। एक सृसंस्कृत एवं सभ्य देश एवं समाज के लिये ऐसी घटनाओं का बार-बार होना भी शर्मनाक ही कहा जायेगा।
आज जब सड़कों पर, चौराहों पर किसी न किसी की अस्मत लुट रही हो, औरतों से सामूहिक बलात्कार की अमानुषिक और दिल दहला देने वाली घटनाएं हो रही हों, तो इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा। देश का इस तरह बार-बार घायल होना और आम आदमी की आत्मा को झकझोर कर रख देना- सरकार एवं प्रशासन की विफलता को ही उजागर करता है। हौसला रहे कि आने वाले वक्त की डोर हमारे हाथ में रहे और ऐसी 'दुर्घटनाएंÓ दुबारा ना हो। आज के दिन लोग कामना करें कि नारी शक्ति का सम्मान बढ़े, उसे नौंचा न जाये। समाज 'दामिनीÓ एवं 'निर्भयाÓ के बलिदान को न भूले और अपनी मानसिकता बदले। हर व्यक्ति एक न्यूनतम आचार संहिता से आबद्ध हो, अनुशासनबद्ध हो। जो व्यवस्था अनुशासन आधारित संहिता से नहीं बंधती, वह विघटन की सीढिय़ों से नीचे उतर जाती है।
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