विवेक काटजू,
भारतीय विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी जिसकी आशंका थी, आखिर वही बात हुई। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने 24 फरवरी को अपनी सेनाओं को यूक्रेन की सीमा में दाखिल होने का आदेश दे दिया। हालांकि, उन्होंने इसे विशेष सैन्य कार्रवाई कहा है, लेकिन वास्तव में यह जंग की शुरुआत है। इस आदेश के साथ पुतिन ने जनता के नाम अपने संबोधन में युद्ध का उद्देश्य बताने की भी कोशिश की। उन्होंने जोर देकर कहा कि इस सैन्य कार्रवाई से वह डोनाबस क्षेत्र के लोगों को पिछले आठ साल से चल रहे यूक्रेन के नरसंहार से बचाना चाहते हैं। उल्लेखनीय है कि आक्रमण के तीन दिन पूर्व पुतिन ने डोनाबस के दोनेत्स्क और लुहांस्क नामक अलगाववादी क्षेत्रों को स्वतंत्र देशों की मान्यता भी दे दी थी। यदि व्लादिमीर पुतिन का एकमात्र मकसद डोनाबस के लोगों की सुरक्षा करना होता, तो वह अपने सैनिकों को सिर्फ इसी क्षेत्र में सीमित रखते। मगर उन्होंने अपने संबोधन में यूक्रेन को 'डीमिलिटराइजÓ (सैन्य क्षमताओं से हीन करना) और 'डीनाजीफाईÓ (नाजी परंपरा को खत्म करना) करने की बात भी कही। यूक्रेन को पूरी तरह से शक्तिहीन करने का तात्पर्य यही है कि पुतिन यूक्रेन को शायद एक आजाद मुल्क नहीं मानते। और, संभव है कि उनके दिलो-दिमाग में उस जमाने की यादें भी ताजा हो, जब दूसरे विश्व युद्ध में यूक्रेन के एक तबके ने नाजियों का साथ दिया था। बहरहाल, अपने वक्तव्य में पुतिन ने यूक्रेन की सेना को तत्काल हथियार डालने को कहा है और अन्य देशों को चेतावनी दी है कि वे इस मामले में कतई हस्तक्षेप न करें, अन्यथा परिणाम भयानक होंगे। उन्होंने यह भी साफ किया कि आने वाले समय में यूक्रेन को रूस-विरोधी केंद्र बनने नहीं दिया जाएगा। इन सबसे स्पष्ट है कि रूस के निशाने पर सिर्फ यूक्रेन नहीं, बल्कि नाटो भी है। दो दशक पहले से नाटो मध्य यूरोप और पूर्वी यूरोप के कुछ देशों को मिलाकर अपना विस्तार कर रहा है। इस पर रूस की आपत्ति रही है, और वह इसे अपने सामरिक हितों के विपरीत मानता है। मगर नाटो न सिर्फ इसकी अनदेखी करता रहा है, बल्कि उसकी यह भी कोशिश रही है कि यूक्रेन को अपने पाले में मिला लिया जाए। रूस ने इस पर लाल रेखा खींच दी है, जिस पर वह कायम है। इस जंग ने अमेरिका और उसके सहयोगी नाटो देशों को घोर दुविधा में डाल दिया है। पहले तो यह तक साफ नहीं है कि यूक्रेन सरकार कब तक रूस से लडऩा चाहेगी, क्योंकि पूर्वी यूक्रेन के कई हिस्से शायद ही अपनी हुकूमत का साथ दें। फिर, नाटो देश यह तो चाहते हैं कि यूक्रेन रूस के प्रभाव में न रहे, लेकिन वे यह भी जानते हैं कि कीव को किसी भी तरह की सैन्य मदद रूसी फौज के सामने आखिरकार बेअसर साबित होगी। अगर यूक्रेन के कुछ फौजी दस्ते लंबे समय तक लडऩा भी चाहें, तो क्या यूरोप के अधिकांश देश अपने महाद्वीप में यह अस्थिरता चाहेंगे? नाटो यह भी चाहता है कि यूरोप की सामरिक व्यवस्था को ज्यादा आघात न पहुंचे। फिर भी, यदि कोई नाटो देश रूसी सेना के खिलाफ अपनी फौज यूके्रन भेजता है, तो यह कदम आग में घी डालने जैसा होगा, जिससे निकलने वाली लपटें कहां तक और किस-किस को हानि करेंगी, कोई नहीं जानता। इसीलिए, अब अमेरिका और नाटो देशों के सामने रूस पर सिर्फ आर्थिक व वित्तीय प्रतिबंध लगाने का विकल्प बचता है। यह पहल काफी पहले से हो रही है। अभी तक अमेरिका और यूरोपीय देशों की कोशिश यही रही है कि वे इस प्रकार के प्रतिबंध लगाएं, ताकि रूस को तो आर्थिक चोट मिले, लेकिन वैश्विक अर्थव्यवस्था को कोई नुकसान न पहुंचे। यही वजह है कि उन्होंने सिर्फ दो छोटे रूसी बैंकों और कुछ राजनेताओं व राजनयिकों पर प्रतिबंध लगाए हैं। चूंकि ये प्रतिबंध बहुत सीमित रहे, इसलिए दुनिया के शेयर बाजार पर इनका कुछ खास असर नहीं पड़ा। मगर अब ऐसे सीमित प्रतिबंधों से काम नहीं चलेगा। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाडइन को रूस पर ऊर्जा और वित्तीय प्रतिबंधों के साथ अन्य प्रतिबंध भी लगाने होंगे, जिससे निस्संदेह कोविड से हलकान वैश्विक अर्थव्यवस्था प्रभावित हो सकती है। रही बात विश्व व्यवस्था की, तो दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका इसका स्तंभ रहा है। हालांकि, शीतयुद्ध तक उसे सोवियत संघ के अनुकूल चलना पड़ा था, जबकि उससे उसकी स्पद्र्धा भी थी। मगर सोवियत संघ के पतन के बाद वह एकमात्र महाशक्ति रहा। वैसे, पिछले 15 वर्षों में उसको चीन से लगातार चुनौतियां मिली हैं और दुनिया में यह भावना भी जोर पकड़ चुकी है कि अमेरिका की ताकत धीमी पड़ रही है। ऐसे में, अमेरिका की एक चुनौती यह होगी कि वह रूस जैसी बड़ी ताकत के सामरिक हितों का ख्याल रखे। नाटो यदि यूक्रेन के संदर्भ में रूस के सामरिक हितों के अनुकूल रुख अपनाता, तो संभवत: जंग की नौबत नहीं आती। अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का यह भी मूल सिद्धांत रहा है कि विश्व की महाशक्तियां लचीला रुख अपनाएं, एक-दूसरे के सामरिक हितों को पहचानें और राजनय का सहारा लेकर समस्याओं का समाधान खोजें। यदि ऐसा नहीं होता, तो दुनिया में अस्थिरता और क्लेश का बढऩा स्वाभाविक है। इस युद्ध से भारत के सामने राजनयिक चुनौती बढ़ गई है। एक तरफ, नई दिल्ली काफी हद तक अपनी सैन्य सामग्रियों के लिए रूस पर निर्भर है, और ऊर्जा, अंतरिक्ष व असैन्य परमाणु क्षेत्रों में मॉस्को से हमारे मजबूत संबंध हैं, वहीं दूसरी ओर अमेरिका व यूरोपीय देशों से भी भारत के रिश्ते प्रगाढ़ हुए हैं। जाहिर है, हमले के बाद इन तमाम देशों का समान दबाव भारत पर पड़ेगा, इसलिए दोनों पक्षों के हितों को हमें समान रूप से तवज्जो देनी होगी। अब तक जो कूटनीति हमने अपनाई है, उसमें रूस व यूक्रेन, दोनों से संयम व शांति बरतने की अपील प्रमुख है। अब इस रुख पर चलना हमारे लिए मुश्किल हो सकता है। वैसे भी, रूस से एस 400 मिसाइल सिस्टम भारत खरीद रहा है, तो कहीं इस वजह से अमेरिका भारत पर प्रतिबंध न थोप दे! साफ है, मोदी सरकार के सामने कहीं गंभीर राजनयिक चुनौतियां हैं। सामान्य बयानों से अब शायद ही काम चले।