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यूद्ध अब शुरू हो चुका है। पिछले कुछ सप्ताह से पूर्वी यूरोप में जो रणभेरी बज रही थी, उसे इसी अंजाम पर पहुंचना था। फ्रांस और जर्मनी की बीच-बचाव की कोशिशें, अमेरिका की पाबंदी की घुड़कियां और संयुक्त राष्ट्र की मैराथन बैठकें कुछ काम नहीं आया और रूस को यूक्रेन पर हमला बोलने से नहीं रोक सकीं। रूस हमला करेगा, यह सोमवार को तभी स्पष्ट हो गया था, जब रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने अपने टेलीविजन संबोधन में कहा था कि वह यूक्रेन की संप्रभुता को मान्यता नहीं देते। अगले ही दिन रूस ने पूर्वी यूक्रेन के उन दो इलाकों को मान्यता दे दी थी, जो यूक्रेन से बगावत करके उससे अलग होने की घोषणा कर चुके थे। रूसी सेनाएं जब इन दो इलाकों की ओर रवाना हुईं, तभी युद्ध की शुरुआत हो चुकी थी। बस इसकी घोषणा भर बाकी थी। अब जब यह घोषणा भी हो चुकी है और यूक्रेन की राजधानी कीव समेत विभिन्न इलाकों से बमों के धमाके सुनाई देने शुरू हो चुके हैं, तब न ऐसी ताकतें दिख रही है, और न ही ऐसी समझदारी कहीं नजर आ रही, जो इस आग को शांत करने की ठोस पहल करती हो। 
हालांकि, युद्ध की खबरें आने के बाद ही यूक्रेन ने दावा किया है कि उसने दुश्मन के पांच विमान और एक हेलीकॉप्टर मार गिराए हैं। युद्ध के दौरान ऐसे दावों का सच जानना आसान नहीं होता, लेकिन एक बात स्पष्ट है कि जहां तक सैनिक ताकत का सवाल है रूस कहीं ज्यादा ताकतवर है। इसे हम आठ साल पहले हुई उस लड़ाई में भी देख चुके हैं, जब मॉस्को ने बहुत आसानी से यूक्रेन से क्रीमिया छीन लिया था। इसलिए यूक्रेन अब अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों की ओर देख रहा है कि उनकी सेनाएं आकर उसकी रक्षा करें, लेकिन अभी तक किसी ने भी इस मैदान में कूदने की इच्छा नहीं दिखाई है। सबको पता है, इसके बाद जंग फिर यूक्रेन तक सीमित नहीं रहेगी, लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि यूक्रेन को पूरी तरह रूस की दया पर छोड़ दिया जाएगा? कभी यूक्रेन के पास ढेरों परमाणु हथियार हुआ करते थे। उसने अपने ज्यादातर हथियार अमेरिका, रूस और ब्रिटेन की सुरक्षा गारंटी के बाद त्याग दिए थे। अब उसके पास ऐसे कितने हथियार बचे हैं, पता नहीं, लेकिन सुरक्षा गारंटी का मुद्दा भुलाया जा चुका है। 
चिंताएं हालांकि और भी हैं। पश्चिमी यूरोप के बहुत सारे देश पेट्रोल, गैस जैसी अपनी ईंधन की जरूरतों के लिए रूस से होने वाले आयात पर निर्भर हैं। तनाव अगर लंबा खिंचता है और रूस से ईंधन की आपूर्ति बंद होती है, तो वे खाड़ी के देशों का रुख करेंगे, जिसका अर्थ होगा विश्व  बाजार में पेट्रोल की कीमतों का बढऩा। कीमतें बढऩी शुरू भी हो गई हैं। अगर ये और बढ़ती हैं, तो भारत जैसे उन देशों के लिए भी नई मुसीबतें खड़ी हो सकती हैं, जिनके विदेशी मुद्राकोष का बड़ा हिस्सा पेट्रोलियम आयात में ही खप जाता है। कोविड महामारी के बाद पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं जिस समय पटरी पर लौटने की कोशिश कर रही हैं, उस समय यह सब आर्थिक विकास के लक्ष्यों को बड़ा झटका दे सकता है। पर भारत की तत्काल दिक्कत उन भारतीयों को लेकर है, जो अभी यूक्रेन में फंसे हुए हैं। भारत ने उन्हें वापस लाने की आपात योजना जरूर बनाई थी, पर युद्ध के कारण यूक्रेन के एयरस्पेस को बंद कर दिया गया है। 
यही समय है, जब तनाव बढ़ाने के बजाय सोच-समझकर अमन-चैन की दिशा में प्रयास किए जाएं।