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ललित गर्ग जैन परंपरा के सबसे छोटे आम्नाय तेरापंथ धर्मसंघ की वयोवृद्ध तेजस्वी साधिका, प्रखर साहित्यकार-लेखिका, साध्वी समुदाय की प्रमुखा, शासनमाता साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी का आज 17 मार्च 2022 को प्रात: 8 बजकर 45 मिनट पर सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण हो गया! एक दिव्य रोशनी जो सदा के लिए अस्ताचल में चली गयी और पीछे छोड गयी अनंत स्मृतियां तथा अपने अनुभव से परिपूर्ण दिव्य ज्ञान! आज सृजन एवं साधुता का ध्रूवतारा अनंत में विलय हो गया!! सरस्वती पुत्री एवं कुशल अनुशासिका-प्रशासिका का एक अमिट आलेख युग-युगों तक प्रेरणा देता रहेगा। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी अध्यात्म का ऐसा शिखर है, जहां से आती रोशनी में साधना, सिद्धता, सृजन एवं साधुता के अनेक रचनात्मक एवं सृजनात्मक बिम्ब उभरते हैं, इन अध्यात्म के अनूठे एवं विलक्षण संसार के अनूठे पृष्ठों में गोता लगाना अभूतपूर्व शांति एवं पवित्रता में अभिस्नात कराता है। क्योंकि उनकी आत्मा उनका ईश्वर था, उनका त्याग उनकी प्रार्थना थी, उनका संयम उनकी शक्ति थी और उनकी मैत्री उनकी भक्ति थी। व्यष्टि एवं समष्टि को त्राण एवं प्राण देने में इन अवदानों का महत्वपूर्ण योगदान है। जिनमें उनकी अलौकिक एवं विलक्षण चेतना का साक्षात्कार होता था। वे तेरापंथ धर्मसंघ की आठवीं साध्वीप्रमुखा थी और इसी वर्ष उनके साध्वीप्रमुखा पद के पचास वर्ष की सम्पन्नता के स्वर्ण-जयन्ती अवसर को भव्य रूप में मनाया गया था। तेरापंथ धर्मसंघ के इतिहास का गौरवपूर्ण तथा सम्मानपूर्ण पद है साध्वीप्रमुखा। दीक्षा गुरु आचार्य तुलसी की पारखी नजर से खोजा व तराशा गया वह ऐसा कोहिनूर हीरा थी जो न केवल जैनशासन व तेरापंथ धर्मसंघ की बल्कि भारतीय अध्यात्म क्षितिज की असाधारण एवं विलक्षण उपलब्धि बनी। वात्सल्य की प्रतिमूर्ति, सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण, हिंदी, संस्कृत, प्राकृत अंग्रेजी भाषाओं पर जिनका एकाधिकार था, वे सात सौ साध्वियों की प्रमुखा थी। तेरापंथ धर्मसंघ का साध्वीसमाज अपनी साधना, विद्वता, समर्पण के लिये चर्चित है। महासती सरदारांजी से लेकर साध्वीप्रमुखा लाडांजी तक सात साध्वीप्रमुखाओं ने साध्वी समाज के विकास में महनीय योगदान दिया। उस परम्परा को आगे बढ़ाते हुए साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने आध्यात्मिक नेतृत्व के नये स्वस्तिक उकेरे। उन्होंने आचार्य श्री तुलसी, आचार्य श्री महाप्रज्ञजी और वर्तमान में आचार्य श्री महाश्रमणाजी जैसे तीन महान् आचार्यों के पावन निर्देशन में अपनी संघनिष्ठा, गुरु-निष्ठा, आचार-निष्ठा, अध्यात्म-निष्ठा एवं दायित्व-निष्ठा से तेरापंथ धर्मसंघ की गौरववृद्धि करते हुए अपने दायित्व की अर्द्धसदी की विलक्षण, अनूठी एवं ऐतिहासिक यात्रा तय की थी, इतना प्रलंब साध्वीप्रमुखा पद का शासन करने वाली वे पहली साध्वीप्रमुखा थी। भारत की धार्मिक एवं आध्यात्मिक परम्परा में विदुषी महिलाओं, साध्वियों और ऋषिकाओं का महत्वपूर्ण योगदान है। वर्तमान युग-चिंतन स्त्री-पुरुष के अलग-अलग अस्तित्व का न समर्थक है और न संपोषक। वह दोनों के सहअस्तित्व और सहभागिता का पक्षधर है। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी जैसी महिला शक्ति के अनूठे कार्यों एवं सृजन-साधना प्रकल्पों के कारण ही इक्कीसवीं सदी को महिलाओं के वर्चस्व की सदी माना जाता है। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने विभिन्न दिशाओं में सृजन की ऋचाएं लिखी, नया इतिहास रचा। अपनी योग्यता और क्षमता से स्वयं को साबित किया है। उन्होंने साहित्य सृजन से लेकर साधना तक अपनी हिम्मत और हौसले की दास्तान लिखकर सिद्ध कर दिया था कि महिलाएं जिस कुशलता से घर का संचालन करती हैं उसी कुशलता से वे धर्म, शिक्षा, सेवा, संस्कार-निर्माण आदि हर क्षेत्र में अपनी क्षमताओं का उपयोग कर सकती है। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा एक यशस्वी एवं संवेदनशील साहित्यकार थीं। जिन्होंने अपना समस्त जीवन जैन धर्म द्वारा बताए गए अहिंसा, अनेकांत व अपरिग्रह के मार्ग को समझने व समझाने में समर्पित किया। आचार्य श्री तुलसी के समग्र साहित्य और विशेषत: यात्रा साहित्य के लेखन की दृष्टि से उनका हिन्दी साहित्य जगत को अमूल्य अवदान है। उन्होंने आचार्य तुलसी जीवन दर्शन पुस्तकों के संपादन का अनूठा एवं विलक्षण कार्य कर एक अलग पहचान कायम की हैं। उनका पूज्य गुरुदेव तुलसी के प्रति अनन्य समर्पण भाव ही है कि वे अपना हर कार्य उन्हीं को समर्पित करती थी। तेरापंथ धर्मसंघ के साहित्य को और विशेषत: साध्वी समाज की सृजनधर्मिता को उन्होंने विशेष आयाम दिया है। उनके मार्गदर्शन में धर्मसंघ की शिक्षा, साधना, साहित्य, यात्रा, कला, जन-संपर्क, वक्तृत्व-कला, नेतृत्व, प्रशासन आदि क्षेत्रों में साध्वियों की हिस्सेदारी उल्लेखनीय बनी है। जो भी साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा की कला, साधना और साहित्य-सृजन से परिचित होते हैं, वे अनायास ही कह उठते हैं-इतनी व्यस्त चर्या और इतनी सृजनधर्मिता! बिना किसी विशेष वातावरण और साधन-सुविधाओं के ये इतना काम कैसे कर लेती हैं। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी के लेखकीय व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे हर माहौल में चाहे भीड़ हो, चाहे गंभीर चर्चाओं का माहौल हो, चाहे यात्रा हो, चाहे मंच पर विशेष आयोजनों में उपस्थित हों हर माहौल में वे बड़ी सहजता से अपने लेखन को प्रवहमान रखती थी। उन्होंने जितना बाहुल्य में लेखन किया है, वह भी एक ऐतिहासिक घटना है। आपके उपलब्ध साहित्य के आधार पर हम गर्व के साथ कह सकते हैं कि आप मात्र जैन साहित्य में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य में एक प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनको लिखने के लिए किसी विशेष माहौल की अपेक्षा नहीं होती थी और वे जो लिखती थीं वह भी केवल शब्दों की भीड़ न होकर अर्थों का गहन सागर होता था। उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में जो प्रगति की वह बेजोड़ है। प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्रकुमारजी ने साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा द्वारा लिखे गए साहित्य को पढ़कर कहा था-कनकप्रभाजी का साहित्य पढ़कर ऐसा लग रहा है कि मुझे अपने लेखन के बारे में नए सिरे से सोचना पड़ेगा।" सचमुच वे जितना सुंदर, सुरुचिपूर्ण, विविधआयामी और मौलिक लिखती थी, उससे भी अच्छा वे बोलती थी। उनकी वाणी में मधुरता थी, उनका लिखना और बोलना ही अलौकिक नहीं था, बल्कि उनकी प्रशासनिक क्षमता भी बेजोड़ था। नाम, यश, कीर्ति, पद से सर्वथा दूर रहते हुए वे निरंतर सृजन, सृजन और सृजन में ही जुटी रहती थी। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने इन वर्षों में अध्यात्म के क्षेत्र में एक छलांग लगाई और जीवन की आदर्श परिभाषाएं गढ़ी। उन्होंने अध्यात्म की उच्चतम परम्पराओं, संस्कारों और जीवनमूल्यों से प्रतिबद्ध होकर एक महान विभूति के रूप में आलौकिक रश्मि का, एक आध्यात्मिक गुरु का, एक ऊर्जा का सार्थक परिचय दिया था। वे त्याग, तपस्या, तितिक्षा, तेजस्विता, बौद्धिकता, सृजन की प्रतीक हैं, प्रतिभा एवं पुरुषार्थ का पर्याय हैं। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा व्यक्तित्व निर्मात्री थी, उनके चिंतन में भारत की आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना प्रतिबिम्बित होती थी। वे मोक्ष से मुस्कान की प्रतीक थी। उन्होंने संतता एवं साधना को सृजन का आयाम दिया है, उनकी साधुता एक संकल्प था मानव जीवन को सुंदर बनाने का, लोगों नैतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से गढऩे का एवं स्वयं के कल्याण के साथ-साथ परकल्याण का। इससे संसार से सम्बन्ध टूटता नहीं बल्कि परमात्मा से जुड़ आत्म-साधना द्वारा जीवन पूर्णत: मानव उत्थान, समाज कल्याण, सेवा, दया और सद्मार्ग के कर्मों का पर्याय बन जाता है। वे व्यक्ति-क्रांति से विचार-क्रांति की दीपशिखा है। उन्होंने भगवान महावीर एवं आचार्य भिक्षु के सिद्धांतों को जीवन दर्शन की भूमिका पर जीकर अपने जीवन को धन्य किया है। एक संप्रदाय विशेष से बंधकर भी आपके निर्बंध कर्तृत्व ने मानवीय एकता, सांप्रदायिक सद्भाव, राष्ट्रीयता एवं परोपकारिता की दिशा में संपूर्ण राष्ट्र को सही दिशा बोध दिया है। शुद्ध साधुता की सफेदी में सिमटा यह विलक्षण व्यक्तित्व यूं लगता है पवित्रता स्वयं धरती पर उतर आयी हो। उनके आदर्श समय के साथ-साथ जागते रहे, उद्देश्य गतिशील थे, सिद्धांत आचरण बनते थे और संकल्प साध्य तक पहुंचते रहे। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी सौम्यता, शुचिता, सहिष्णुता, सृजनशीलता, श्रद्धा, समर्पण, स्फुरणा और सकारात्मक सोच की एक मिशाल थी। कोई उनमें बौद्ध भिक्षुणी का रूप देखता था तो कोई मदर टेरेसा का। कोई उन्हें सरस्वती का अवतार मानता था तो कोई उनमें अरविंद आश्रम की श्री मां और बैलूर मठ की मां शारदा का साम्य देखता था। कोई उनमें महादेवी वर्मा की विशेषता पाता था। उनकी विकास यात्रा के मुख्य तीन पायदान हैं- संकल्प, प्रतिभा और पुरुषार्थ। उनकी जीवनयात्रा एक संत की, एक अध्यात्मदृष्टि संपन्न ऋषिका की, एक संवेदनशील साहित्य साधिका-लेखिका तथा एक समाज निर्माता की यात्रा है। इस यात्रा के अनेक पड़ाव है। वहां उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, साहित्यिक, शैक्षिक आदि क्षेत्रों से संबंधित बहुमूल्य दृष्टियां एवं अभिप्रेरणाएं उपलब्ध होती हैं। अध्यात्म से लेकर आरोग्य तक, साहित्य से लेकर संस्कार-निर्माण तक अनुभव गुम्फित है। न केवल आस्था के क्षेत्र में बल्कि साहित्य-सृजन के क्षेत्र में भी आपके विचारों का क्रांतिकारी प्रभाव देखने को मिलता है। आप सफल प्रवचनकार थी और आपके प्रवचनों में जीवन की समस्याओं के समाधान निहित हैं। इस तरह हम जब आपके व्यक्तित्व पर विचार करते हैं तो वह प्रवहमान निर्झर के रूप में सामने आता है। उनका लक्ष्य सदा विकासोन्मुख है। ऐसे विलक्षण जीवन और अनूठे कार्यों की प्रेरक साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी का देह से विदेह होना, समूची दुनिया के लिये एक अपूरणीय क्षति है। सचमुच हमें गर्व और गौरव है कि हमने उस सदी में आंखें खोलीं जब साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी जैसी पवित्र संतचेतना इस धरती पर अवतरित थी, अपनी अलौकिक आध्यात्मिक आभा से मानवता का मार्गदर्शन कर रही थी। उन्होंने न केवल अपने जन्म को धन्य किया बल्कि समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण करके अपनी मृत्यु को भी महोत्सव का रूप दिया,ऐसी दिव्य आत्मा को नमन्! 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