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बलदेव राज भारतीय जिस बात को आत्मा स्वीकार न करे वह कभी करनी नहीं चाहिए। कौन सी राजनैतिक मजबूरी हो सकती है भाजपा की कि उसे इस प्रकार के कदम उठाने पड़ रहे हैं। अभी संपन्न हुए चुनावों में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री पुष्कर सिंह धामी और उत्तरप्रदेश के उप मुख्यमंत्री श्री केशवप्रसाद मौर्य दोनों अपने अपने क्षेत्रों से चुनाव हार गए। दोनों को जनता ने नकार दिया मगर पार्टी को ओर से दोनों को फिर भी मंत्रीपद देकर पुरस्कृत किया गया। आखिर किस खुशी में? मंत्री पद भी ऐसा वैसा नहीं, एक को राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया गया और दूसरे का उपमुख्यमंत्री का पद बरकरार रखा गया। क्या ऐसा करना जनता का अपमान नहीं? ऐसा पहली बार नहीं हुआ? अतीत में भी ऐसा होता रहा है। पिछले वर्ष बंगाल के चुनावों में तृणमूल कांग्रेस को भारी सफलता मिली परंतु ममता बनर्जी चुनाव हार गई। फिर भी वह मुख्यमंत्री के पद पर पूरी शानोशौकत से विराजमान हुई और बाद में एक जीते हुए विधायक को उसके लिए अपनी सीट की बलि देनी पड़ी। जिसकी भरपाई के लिए हो सकता है उसे किसी बोर्ड वगैरह का चेयरमैन बना दिया गया हो, जहां वह मंत्री पद के बराबर सभी सुविधाएं प्राप्त कर रहा हो। अब पुष्कर सिंह धामी और केशव प्रसाद मौर्य को विधानसभा भेजने के लिए न जाने किस विधायक को अपनी सीट की बलि देनी पड़ेगी। उन्हें संतुष्ट करने के लिए भी कोई न कोई पुरस्कार दिया जाना स्वाभाविक है। यह सब एक सौदा लगता है। जिसमें लाभ हानि का पूरा जायजा लिया जाता है। प्रश्न उठता है कि राजनैतिक दलों द्वारा ऐसे निर्णय लिए ही क्यों जाते हैं जिससे जनता के बीच उनकी छवि धूमिल हो। जिस व्यक्ति को जनता ने नकार दिया हो उसे कोई मंत्री पद देना जनता का घोर अपमान है। जनता के अपमान के साथ साथ यह उन विधायकों का भी अपमान है जो जीतकर आए हैं। क्या उत्तराखंड में जीते हुए विधायकों में से कोई भी इतना योग्य नहीं कि वह मुख्यमंत्री का पद संभाल सके। उत्तरप्रदेश में केशव प्रसाद मौर्य को उपमुख्यमंत्री बनाने का तुक क्या है? यह तो कोई संवैधानिक पद भी नहीं। फिर क्यों उसको उपमुख्यमंत्री बनाया गया? चुनाव से पूर्व अगर किसी को टिकट न मिले तो उसके किसी अन्य दल में भाग जाने का डर होता है। परंतु केशव प्रसाद मौर्य को तो चुनाव लडऩे का पूरा मौका दिया और उसको अपने ही विधानसभा क्षेत्र में हार का सामना करना पड़ा। फिर क्यों मौर्य की चिरौरी करनी पड़ रही है? यद्यपि यह परंपरा काफी समय से चली आ रही है। परंतु इस परंपरा का चलते रहना भविष्य के लिए बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकता है। इस तरह की बैकडोर एंट्री से कोई भी पार्टी किसी भी गलत व्यक्ति को महत्त्वपूर्ण पद दे सकती है और ज्.और बाद में वह गलत व्यक्ति सत्ताधारी दल का सदस्य होने के कारण चुनाव में भी जीत हासिल कर सकता है। यह परंपरा अभी अपने शुरुआती चरण में है। इस परंपरा को यहीं रोका जाना अनिवार्य है। लेकिन इसे रोकेगा कौन? क्योंकि संसद में कानून पास करने वाले सभी दल इस परंपरा का लाभ उठाने में कोताही नहीं बरतते। फिर इस प्रस्ताव को संसद में लायेगा कौन? इसके पक्ष में वोट देगा कौन? क्या सुप्रीम कोर्ट इस पर संज्ञान लेगा? बिलकुल ऐसा होना चाहिए। इस प्रकार की नियुक्तियों को असंवैधानिक घोषित किया जाना चाहिए। जो व्यक्ति विधानसभा में पहुंचा ही नहीं उसे मुख्यमंत्री या मंत्री कैसे बनाया जा सकता है? क्या किसी क्रिकेट में ऐसे व्यक्ति को कप्तान बनाया जा सकता है जिसका टीम में अंतिम ग्यारह में चयन ही नहीं हुआ हो? कुछ लोग कहेंगे कि राजनीति और खेल दो अलग अलग चीजें हैं। नहीं, मैं यह कहूंगा कि राजनीति एक बहुत बड़ा खेल है। राजनैतिक खिलाड़ी देश की पिच पर देश और जनता के विरुद्ध खेल रहे हैं। अपने स्वार्थ के लिए येन केन प्रकारेण कुर्सी प्राप्त करना चाहते हैं। कुर्सी के लिए सभी नियम और कानूनों को अपने पक्ष में मोड़ लेने का माद्दा रखने वाले को ही राजनीति का पक्का खिलाड़ी कहा जाता है। ये वो लोग हैं जो वास्तव में ही कच्ची गोलियां नहीं खेले होते। इनकी हार का कोई तो कारण रहा होगा, वो भी तब जब इनकी पार्टी बहुमत से कहीं अधिक सीटें लेकर जीत रही हो। कुछ तो इनकी कमियां अवश्य रही होंगी। इनका अपने विधानसभा क्षेत्र में लोगों के साथ व्यवहार, उनकी समस्याओं को न समझना ऐसे बहुत से कारण हो सकते हैं मतदाताओं की बेरुखी के। जिनके कारण लोगों ने इनको हार का स्वाद चखाया। इसके बावजूद अगर पार्टी इन्हें मंत्री बनाकर जनता के बीच भेज रही है तो सही मायने में पार्टी लोगों के बीच अपना जमा जमाया विश्वास खो देगी। ऐसे लोग जनता के बीच जाकर यह कहने में भी नहीं चूकेंगे कि तुमने तो मुझे हरा दिया था, पर देखो मैं तो फिर भी मंत्री बन गया। जब भी किसी दल को ऐसी नसीहत दी जाती है तब वह यह बात अवश्य कहता है कि जब अन्य दलों में ऐसा होता है तो आपने तब यह बात क्यों नहीं उठाई? बिलकुल, मेरी यह बात सभी दलों। के लिए है। चाहे वह मुख्यमंत्री के रूप में ममता बनर्जी हो या पुष्कर सिंह धामी। ऐसी नियुक्तियां होनी ही नहीं चाहिए। जिसे जनता ने नकार दिया हो उसे ही मुख्यमंत्री बना देना जनता का, लोकतंत्र का बहुत बड़ा अपमान है। चाहे वह नेता कितना भी अच्छा और भले विचारों वाला क्यों न हो? एक भला इंसान स्वयं ऐसे उत्तरदायित्व को स्वीकार नहीं करता। वह इस प्रकार मंत्री पद की भीख लेकर अपने राजनैतिक करियर को आगे नहीं बढ़ाता। परंतु मुझे यहां पर ऐसा लगता ही नहीं कि इनमें से कोई आगे बढ़कर ऐसा कदम उठाएगा। लगता तो यह है कि पार्टी हाईकमान पर इन्होंने ही दबाव बनाकर ये मंत्री पद अपने लिए हासिल किए हैं।