डॉ. गुंजन राजपूत आजकल देश की उच्च शिक्षा फिर से बहस से घिरी हुई है। कारण उच्च शिक्षा विभाग की तरफ से समय समय पर आने वाली नियुक्तियों के नियम हैं। कोई भी बदलाव वास्तव में मुश्किल होता है। देश की शिक्षा नीति को लागू करने के लिए बनाए गए प्रविधान शिक्षा में अपनी जड़ों को वर्षों से जमाए हुए लोगों को विचलित कर रहे हैं। उन्हीं में से एक प्रविधान है उच्च शिक्षा में पढ़ाने की योग्यता से पीएचडी की अनिवार्यता को खत्म करना। यूजीसी नए और विशेष पदों को बनाने की भी योजना बना रहा है जिनमें पीएचडी की आवश्यकता नहीं होगी। यूजीसी के अनुसार इन नए पदों के पीछे विचार यह है कि अनुभवी और उद्योग के काम करने वाले लोगों को छात्रों के साथ अपना ज्ञान साझा करने की अनुमति दी जाए। शिक्षा एक ऐसा माध्यम है जिसके जरिये देश की बाकी व्यवस्थाएं बनती हैं और शिक्षा देने वालों पर इसकी बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी होती है। इसलिए भविष्य की बागडोर किसके हाथ में होगी यह नीतियों से तय करना बहुत ही जरूरी है। विश्व के अधिकांश देशों में उच्च शिक्षा प्रदान करने का मानक पीएचडी को माना गया है। यह शोध करके प्राप्त की गई डिग्री है। इसकी डिग्री केवल उपसर्ग नहीं है, बल्कि यह सबसे उच्च शैक्षिक उपलब्धि है। विश्व के हर विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले शिक्षक अपनी उम्र का बड़ा हिस्सा किसी विषय पर शोध करने में लगाते हैं, जिनके नतीजों से उन्हें डिग्री एवं भविष्य की पीढिय़ों को तैयार करने और विषय की समझदारी की मान्यता मिलती है। शिक्षण और शोध एक दूसरे का अहम अंग हैं। इन्हें विश्व के नामी विश्वविद्यालयों में एक साथ जोड़ कर ही देखा जाता है, परंतु यह निराशाजनक है कि भारत शिक्षण के साथ शोध में भी पिछड़ा रह गया है। शिक्षकों का शिक्षा देने की कला में माहिर होना बहुत जरूरी है। इंडिया स्किल्स रिपोर्ट के 2021 में जारी हुए आठवें संस्करण के अनुसार केवल 45.9 प्रतिशत स्नातक ही रोजगार योग्य हैं। इस वर्ष जारी किए गए एक संबंधित सूचकांक में एक भी भारतीय संस्थान श्रेष्ठ 100 में अपनी जगह नहीं बना पाया। इससे भारत की शिक्षण प्रणाली पर फिर सवाल उठ गए जिसका जिम्मेदार बहुत हद तक शिक्षा और उद्योग के बीच एकीकरण की कमी है। परंतु पीएचडी की अनिवार्यता को खत्म करने के मकसद को समझने की बजाय बुद्धिजीवी नई बहस में उलझते दिख रहे हैं। वैसे यदि इसे हम विश्वस्तरीय नजरिये से समझेंगे तो पाएंगे कि विश्व के सभी बड़े विश्वविद्यालयों में इसी तरह के प्रविधान पहले से हैं। यहां भारत को विश्व के दो सफल माडल- जर्मनी और जापान से सबक लेना चाहिए। जर्मनी का शिक्षा कार्यक्रम उसके निर्माण कौशल का एक विशेष हिस्सा है। उद्योग की आवश्यकताओं के साथ छात्र कौशल के मिलान में जापान की स्कूल प्रणाली एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत में इसी तरह की व्यवस्था को विकसित करने की जरूरत है। महामारी के बाद भारत की अर्थव्यवस्था को बढ़ाने के लिए नौकरी बाजार ऐसे कौशल की मांग करेगा जो वर्तमान की उच्च शिक्षा प्रदान नहीं कर रही है। पिछले कुछ वर्षों में भारत की शोध में स्थिति बहुत खराब हुई है। पीएचडी की डिग्री सम्मानीय होने के अलावा मात्र एक स्नातकोत्तर जैसी डिग्री बन कर रह गई है। कारण है शिक्षक बनने के लिए इसकी अनिवार्यता। विश्व में पीएचडी धारकों की संख्या बढ़ती जा रही है। अनिवार्यता के साथ ही इसकी आसान उपलब्धता भी जिम्मेदार है। वर्ष 2017 में भारत में सभी विषयों में कुल डाक्टरेट की संख्या 24 हजार थी जो 1920 में सौ से भी कम थी। यह संख्या बताती है कि भारत वर्तमान में विश्व के अन्य देशों की तुलना में अधिक पीएचडी धारकों वाला देश है। परंतु विश्वसनीय संस्थानों में जहां छात्रों को साहित्यिक चोरी के बिना वास्तविक शोध पत्र लिखने की आवश्यकता होती है, वहां छात्रों की संख्या कुल संख्या का केवल 10.2 प्रतिशत भाग है। इसलिए अन्य देशों की तुलना में भारत का अनुसंधान तंत्र पिछड़ा हुआ है। यह निराशाजनक है कि भारत के अनुसंधान तंत्र के पिछड़े होने के कारण विश्वविद्यालयों की रैंकिंग में भारत का पतन हुआ है। जबकि चीन, हांगकांग और सिंगापुर जैसे अन्य एशियाई क्षेत्रों में अग्रणी विश्वविद्यालयों के रूप में रैंकिंग में लगातार वृद्धि हो रही है। आविष्कारों में भारत के खराब हालात को आप कंट्रोलर जनरल आफ पेटेंट्स के आंकड़ों से समझ सकते हैं कि भारत में पिछले 10 वर्षों में केवल 67,342 पेटेंट ही जारी किए गए हैं जिसमें से 85 प्रतिशत विदेशी कंपनियों के नाम थे। इसका कारण भारत में हो रहे शोध की निम्न गुणवत्ता है। ज्यादातर शोध पेटेंट करने लायक न होकर सिर्फ अकादमिक जर्नल में छपने के लिए होते हैं जिनकी गुणवत्ता सवालों के घेरे में है। भारतीय शिक्षा जगत केवल प्रकाशनों पर केंद्रित है और शायद ही कोई उत्पाद के व्यावसायीकरण, पेटेंट कराने या इसे उत्पादन स्तर तक ले जाने पर ध्यान केंद्रित करता है। गुणवत्ता या उत्कृष्टता के बजाय मात्रा पर अधिकांश भारतीय शोधकर्ताओं का मौलिक महत्व भारतीय विज्ञान की विफलता का एक प्रमुख कारक है। एक अन्य आंकड़े को देखेंगे तो समझ पाएंगे कि भारत में पिछले एक दशक के दौरान यहां के 579 मेडिकल कालेजों में से लगभग 332 ने एक भी शोध लेख प्रकाशित नहीं किया है। इसी तरह के अनेक आंकड़ों से आप भारत की आविष्कारों एवं शोध में बदतर होती परिस्थितियों को समझ पाएंगे। ऐसे में देश की उच्च शिक्षा में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता है।
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