
पाकिस्तान के सुधरने की उम्मीद कम सुशांत सरीन पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन एक लिहाज से जरूरी हो गया था, क्योंकि इमरान खान से हुकूमत नहीं चल पा रही थी. उनके तौर-तरीकों से न केवल अर्थव्यवस्था बरबाद हुई, बल्कि दूसरे देशों के साथ रिश्तों में भी गड़बड़ी आयी। वे देश में राजनीतिक स्थिरता बहाल करने में भी असफल रहे। इमरान ने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के विरुद्ध द्वेष की भावना के साथ काम किया। समाज में भी बंटवारा बढ़ गया था। उन्होंने फौज के साथ अपने संबंध बिगाड़े। फौज के भीतर उन्होंने राजनीति करने की कोशिश की और एक जनरल को दूसरे जनरल के सामने खड़ा किया। ऐसी स्थिति में यह साफ हो गया था कि वे अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायेंगे क्योंकि जिस डगर पर उन्होंने पाकिस्तान को डाल दिया था, वह पूरी तरह से तबाही की डगर थी। अब सवाल विकल्प का था और विपक्षी दलों के साथ आने से अविश्वास प्रस्ताव की तस्वीर साफ हो गयी। विपक्ष ने अपना दांव बहुत अच्छी तरह खेला है। अब शहबाज शरीफ ने प्रधानमंत्री का ओहदा तो ले लिया है, पर यह कांटों का ताज है। इसकी एक वजह तो दर्जनभर पार्टियों से बने उनके गठबंधन की रूप-रेखा है। इन दलों में कई तरह के मतभेद हैं और वे परस्पर प्रतिद्वंद्वी भी हैं। उन सबकी अपनी-अपनी महत्वकांक्षाएं भी हैं। इस गठबंधन में अनेक छोटी पार्टियां भी हैं, जिनका बहुत महत्व है क्योंकि सरकार के पास बहुत क्षीण बहुमत है। ऐसी पार्टियों, खासकर जो बलोचिस्तान, खैबर पख्तूनख्वा जैसे इलाकों से हैं, की कई मांगें पाकिस्तानी सत्ता केंद्र को मंजूर नहीं हो सकती हैं। इन दलों का अस्तित्व ही ऐसी मांगों पर आधारित है। आर्थिक बदहाली से देश को निकालने के लिए सरकार को बहुत सख्त कदम उठाने पड़ेंगे। ऐसे कड़े उपायों से गठबंधन की पार्टियों को अपने भविष्य को लेकर चिंता हो सकती है। यह भी गंभीर समस्या है कि सरकार के पास पैसा नहीं है कि कोई अनुदान या राहत मुहैया करायी जा सके। चूंकि गठबंधन ऐसा है और उसे जनादेश भी नहीं है, तो उसका असर विदेश नीति पर भी पड़ेगा। सरकार को सऊदी अरब, चीन, संयुक्त अरब अमीरात आदि देशों से धन लेने की जरूरत पड़ेगी। पैसे के लिए उसे अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से भी सर झुकाकर बात करनी होगी। मुद्रा कोष से कितनी रियायत मिलेगी, यह भी देखना होगा। यूरोपीय संघ से भी पाकिस्तान संबंध बनाने की कोशिश करेगा। जहां तक भारत के साथ पाकिस्तान के रिश्ते का मसला है, मुझे नहीं लगता है कि सरकार बदलने से कोई खास असर पड़ेगा। यह भी सामने आ ही गया है, जिस तरह से शहबाज शरीफ ने अपने भाषण में कश्मीर की रट लगायी है। नयी सरकार की जो अपेक्षाएं भारत से हैं, वे शायद पूरी नहीं होंगी। कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव का तो सवाल ही नहीं उठता है और न ही भारत जम्मू-कश्मीर से संबंधित अपने संविधान संशोधन की कोई समीक्षा करेगा, जैसा कि पाकिस्तान की ओर से मांग की जा रही है। हां, यह संभव है कि अब पाकिस्तान की सरकार की ओर से भारत के लिए वैसी आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग नहीं होगा, जैसा कि इमरान खान किया करते थे। बयानों में सभ्य आदर्शों और मर्यादाओं का पालन किया जायेगा। इससे जो दोनों देशों के बीच जहरीलापन आ गया था, वह कुछ हद तक कम हो जायेगा। इसके अलावा क्या बेहतरी आयेगी, कह पाना मुश्किल है, क्योंकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार कब तक रहेगी। अगर शहबाज शरीफ सरकार ढाई-तीन महीने चलती है और फिर कोई कार्यवाहक सरकार आ जाती है, तो इस साल के आखिर तक पाकिस्तान में कोई नयी सरकार नहीं आयेगी। ऐसी स्थिति में कूटनीतिक रूप से या संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में किसी बड़ी पहल की उम्मीद नहीं की जा सकती है। मुझे अचंभा होगा, अगर कोई स्थायी सरकार आने से पहले उच्चायुक्त की नियुक्ति होती है। भारत और पाकिस्तान के बीच यह संभावना जरूर है कि एक हद तक वाणिज्य-व्यापार बढ़े। इसका कारण है कि पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति बेहद खराब है और वे कुछ राहत पाने के लिए भारत से चीजों का आयात करें। उदाहरण के लिए, पाकिस्तान की कपड़ा मिलों को बड़ी मात्रा में कपास की जरूरत होती है। चीन से कपास आ सकता है, लेकिन मानवाधिकार के उल्लंघन और जबरन श्रम से उत्पादित शिनजियांग कपास पर पश्चिमी देशों ने पाबंदी लगायी हुई है। इस पाबंदी को दरकिनार करना पाकिस्तान के लिए संभव नहीं होगा। ऐसे में उसके पास भारतीय कपास का विकल्प है। गेहूं और चीनी की भी पाकिस्तान में किल्लत है। इन चीजों को भी भारत से आयात किया जा सकता है। दवाओं की कमी को भारत से खरीद कर दूर करने की कोशिश हो सकती है। लेकिन व्यापक रूप से व्यापारिक मार्ग खुलने की संभावना नहीं दिखती है। पुलवामा हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के विरुद्ध कार्रवाई करते हुए उसे दिये गये 'मोस्ट फेवर्ड नेशनÓ केदर्जे को हटा दिया था। पाकिस्तान से आनेवाली वस्तुओं पर भारत ने 200 प्रतिशत का शुल्क लगाया हुआ है। इसका मतलब यह है कि वहां से आनेवाली चीजें बहुत महंगी होंगी। ऐसे में पाकिस्तान से आयात की संभावना भी न के बराबर है, लेकिन कुछ चीजों का हम निर्यात कर देंगे। हो सकता है कि भारत और पाकिस्तान के बीच पृष्ठभूमि में अनौपचारिक रूप से कोई बातचीत चल रही हो, जैसा कुछ रिपोर्टों में उल्लेख किया गया है। पर इस संबंध में मुझे जानकारी नहीं है। लेकिन इससे भी परस्पर संबंधों को लेकर कोई बड़ी प्रगति होगी, ऐसी आशा करने का कोई आधार नहीं है। लेकिन तनाव कम हो जायेगा। पाकिस्तान अभी इस हालात में नहीं है कि वह भारत के साथ कोई उकसावे की हरकत करे। भारत की ओर से यह स्पष्ट संदेश दिया जा चुका है कि अगर पाकिस्तान कोई ऐसी कोशिश करेगा, तो उसे उसका नतीजा भुगतने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। इस साल भारत के साथ कुछ उल्टा-सीधा करने की न तो उनकी सोच हो सकती है और न ही उनकी स्थिति ऐसी है। वे अभी दुनियाभर से संपर्क बढ़ाने व बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए शरीफ सरकार आतंकवादी गुटों को भी काबू में रखेगी और किसी बड़ी वारदात को हरी झंडी नहीं देगी। लेकिन छोटी-छोटी घटनाएं होती रहेंगी। कुल मिला कर, भारत और पाकिस्तान के संबंधों की जो मौजूदा हालत है, उसमें बड़ा बदलाव नहीं होगा।