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मुंबई। नदी से सीखा है अवरोध। वह संसार का सर्व सामान्य नियम है। कोई भी व्यक्ति गति करता हो अथवा प्रगति करता हो तो उसके जीवन में अवरोध तो आएंगे ही, परंतु उस अवरोध के बीच आराधना साधना करके यदि वह व्यक्ति अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ता जाएगा तो उसमें आत्म विश्वास ही नहीं बल्कि उसमें आत्मानंद पैदा होता है।
मुंबई में बिराजित प्रखर प्रवचनकार संत मनीषि, प्रसिद्ध जैनाचार्य प.पू. राजयश सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते है पहले के जमाने में लोग राजस्थान में एक गांव से दूसरे गांव ऊंट गाडी में जाते थे। कुछ लूटेरे लूटमार करने निकले थे रास्ते में उन्हें एक धनवान सेठ की ऊंट गाडी आते हुए दिखाई दी। लुटेरे ने सेठ की ऊंट गाडी को बीच में रोककर सेठ से कहा, तुम्हारे पास जो कुछ भी है सीधी तरह से निकाल दो। सेठ की पत्नी तथा अन्य स्त्री ने डर के मारे सभी गहने उतारकर सेठ के हाथ में थाम दिये। सेठ ने अपने हाथ में गहनों को रखकर-लूटेरे के आगे हाथ बढ़ाया। इसे देखकर लूटेरे को हंसना आया। उसने उन गहनों को सेठ के हाथ से लेने के पूर्व सेठ के मुख पर थप्पड मारा अरे भैया! ये तुम क्या कर रहे हो? सेठ जी सीधे सीधे धन नहीं लूटा जाता है बीच में कुछ अवरोध आना चाहिए तभी वह लूटा हुआ धन मेरी सच्ची कमाई होगी। आपने बिना कुछ अवरोध किए मुझे देने कमाई होगी। आपने बिना कुछ अवरोध किए मुझे देने कमाई होगी। आपने बिना कुछ अवरोध किए मुझे देने के लिए तैयार हो गई इसीलिए मैंने आपको थप्पड़ मारा।
जीवन में बिना अवरोध के प्रगति नहीं होती है। कोई भी क्षेत्र क्यों न हो अवरोध हरेक के जीवन में आते ही है। चाहे संसारी का कोई कार्य क्यों न हो अथवा संयम की ही बात क्यों न हो अवरोध तो आएगें ही। उन अवरोधों का सामना करके ही मानवी की प्रगति होती है।
मन हमारा है तो हमें उसका मालिक बनकर रहना चाहिए किसी के चलाने से मन को नहीं चलाना है भगवान महावीर, भगवान आदिनाथ, भगवान पाश्र्वनाथ, भगवान शांतिनाथ विगेरे के जीवन काल में उपसर्ग आए परंतु वे अपने मन को चलित नहीं किया, मन को अपने काबू में रखकर सभी उपसर्गो को समभाव से सहन किया।
पूज्यश्री फरमाते है जो अपने मन का मालिक स्वयं बनता है वहीं व्यक्ति जीवन में महान बनता है वहीं व्यक्ति दुनिया को कुछ सीखा सकता है। मन पर नियंत्रण रखना हमारे हाथ में है यदि आपने एक सेकेंड के लिए भी मन को दूसरों पर छोड़ा तो आपका काम बिगडे बिना नहीं रहता। 48 मिनिट के लिए सामायिक लेकर बैठे हो ध्यान में लग गए हो अचानक याद आया अरे, तिजोरी का दरवाजा खुल्ला रह गया बस मन वहीं से भटकना गुरू। अब मन में एक ही बात चलती है कब सामायिक आए उठकर तिजोरी बंद करूं। 48 मिनिट के लिए बैठे हो मगर मन चलित हो गया आपके हाथ नहीं रहा। दृढ़ता से मन, अपने वश में किया जा सकता है। परंतु आप अपने मन की चाबी किसी ओर के हाथ देकर उसके चलाने के मुताबिक चलते तो। इसीलिए हमारी ये परिस्थिति आ जाती है, कि मन हमारा बनकर नहीं रहता है।
स्थुलिभद्र पहली बार जब कोशा वेश्या के यहां चातुर्मास के लिए पधारे। कोशा वेश्या से कह दिया कि मैं तुम्हारे यहां आराधना-साधना करने आया हूं अगर तेरी इजाजत हो तो मैं कुछ महिनों के लिए यहां रखकर आराधना करूं। कोशा वेश्या ने मन में सोचा, ये मुनि यहां से उनके मन को चलित कर दूंगी। कोशा वेश्या ने सभी प्रकार से प्रयत्न किए परंतु वह निष्फल रही। क्योंकि पहली बार जब स्थूलिभद्रजी कोशा वेश्या के यहां रहने आए थे तब मन उनके पास था तो चाबी कोशा वेश्या के हाथ में थी परंतु इस बार बात कुछ अलग उन्होंने ही रखी। इस प्रकार कोशा वेश्या के प्रयत्न के बावजूद उसे सफलता नहीं मिली क्योंकि स्थूलिभद्र मुनि का संकल्प दृढ़ था। मन यदि हमारे हाथ में है तो कोई हमारा बाल बांका नहीं कर सकता बस, अपने मन का मालिक स्वयं बनकर, जीत मिलाकर शीघ्र आत्मा के परमात्मा बनें।