अहमदाबाद। मानव संत न बन सका तो उसे अपने शरीर को ठिकाने के लिए अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए तथा राष्ट्र एवं देश की रक्षा के लिए कुछ न कुछ जीवन में करना ही पड़ेगा। संसार चलाना है तो पाप प्रवृत्ति तो होगी ही। शास्त्रकार महर्षि हमें दो प्रकार के पाप बताते हंै पहला अर्थ दंड दूसरा अनर्थ दंड। अर्थ दंड में व्रत के रूप में है मगर अनर्थ दंड का उल्लेख बारह व्रत में बताया है।
अहमदाबाद में बिराजित प्रखर प्रवचनकार, संत मनीषि, प्रसिद्ध जैनाचार्य प. पू. राजयश सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए फरमाते हंै कि बिन जल्दी पाप करना वह अर्थ दंड है। पूजा करनी हो तभी स्नान करना। देह को शुद्ध एवं स्वच्छ रखने के लिए स्नान करना ये अर्थ दंड है। जानबूझकर किसी की हिंसा करना-मांस भक्षण करना युद्ध करके जीवों की हिंसा करना ये अनर्थ दंड है। मानव जानते हैं हिंसा करना पाप है फिर भी वह फालतू हिंसा करते हंै। कोई भी व्यक्ति यदि मांस नहीं खाएगा अथवा कंदमूल का सेवन नहीं करेगा तो मर जाएगा ऐसा सोचना गलत है मांस खाए बगैर कंदमूल खाए बगैर जीवन टिक सकता है, लेकिन मानवी जानबूझकर अनर्थ दंड का पाप करता है।
परमात्मा की वक्षिस है हमें जीवन मिला है तो उसे जीना जानो। आत्महत्या करके मन आने से हमारे इस अब का अंत आएगा। मानवी यहां से मरकर अन्य किसी भी योनि में जन्म जरूर लेगा। यहां ये छूट जाने से अन्य भव से नहीं छूट पाओंगे। जब तक आपका मोक्ष नहीं होता तब तक आपको अनेक जन्ममरण करने ही पडग़े। जब तक मौत न आए तब तक मानवी को देह को टिकाने के लिए कुछ न कुछ करना होगा अर्थात् पाप की संभावना जरूर है। कोई कहते है वनस्पति का उपयोग करना वह भी एक हिंसा है लेकिन वनस्पति का उपयोग वह हमारी विवश्ता है। यदि वनस्पति के उपयोग के बिना जीवन शक्य हो तो फिर इस वनस्पति का उपयोग नहीं करेंगे। वनस्पति का उपयोग करना, जीवों को मारना दोनों की कम्पेरिशन नहीं हो सकती, दोनों अलग चीज है। एक देश के लिए अपनी जान देना, दूसरी ओर स्वयं आत्महत्या करके मन जाना दोनों चीज अलग है।
कहते है जहां विवशता हो ओर करना पड़े वो बात अलग है जबकि कोई जानबूझकर प्राणीओं का वध करता है वह अनर्थ दंड है। पूजा के लिए स्नान के लिए स्नान करना वह अनर्थ दंड है। कोई देश अपने मन में ऐसा माने कि मैं सबसे ज्यादा सुखी संपन्न देश हूं तो दूसरों को तकलीप हूं तो वह अनर्थ दंड हुआ।
कहते हैं युद्ध की बात आती है तो हरेक के मन में भय रहता है। विश्व मानव बनने की हरेक युवान को जरूर है। पूज्यश्री फरमाते हैं निरर्थक युद्ध मत करो, लड़ाई-झगड़ा न करो। आप हर तरह से संपन्न हो तो क्या हुआ? आपका साम्राज्य ज्यादा दिन नहीं टिक सकेगा। कभी न कभी पतन अवश्य होगा ही। नेल्सन मंडेला-दलाई लामा जैसे विश्व मानवी है, जिनकी सोच है क्यों? किसी देश को परेशान करना? जैसे आप एक मानव हो वैसा वो भी मानव है जैसा आपका शरीर है। वैसा ही उनका भी शरीर है। क्यों किसी को युद्ध में मार देना? जो व्यक्ति युद्ध के लिए लड़ता है उसका भी अपना परिवार है वो भी किसी का पिता है तो किसी का पुत्र है तो किसी की जान क्यों लेना? विश्व मानव बनना है तो हमें यहीं कहना है लड़ेंगे नहीं झगड़ेंगे नहीं परंतु शांति की स्थापना करके अहिंसामय जीवन जीकर शीघ्र आत्मा से परमात्मा बनेंगे।
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