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ललित गर्ग
किसान आन्दोलन तथा विभिन्न विचारों, मान्यताओं के विघटनकारी दलों के घालमेल की राजनीति ने भारत के गणतंत्र को शर्मसार किया। भीड़ वाले आंदोलनों का अब तक का यही इतिहास रहा है कि भीड़ कभी भी अनुशासित तरीके से अपने नेतृत्व की बातें नहीं मानती। इसीलिए राजधानी दिल्ली की सड़कों पर गणतंत्र दिवस पर जो कुछ भी हुआ, उसने गणतंत्र के आदर्श को तार-तार किया है। देशवासी कल के अराजक, हिंसक एवं अनुशासनहीन दृश्यों को देखकर निराश हुआ हैं। विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र 72 वर्षों की लम्बी यात्रा कर अनेक कसौटियों के बाद भी आज स्वार्थी एवं मूल्यहीन राजनीति के आधार पर बंटने के कगार पर खड़ा है। अलग-अलग झण्डों व नारों के माध्यम से नेता लोग आकर्षक बोलियां बोल रहे हैं, देश को बांट रहे हैं। आज क्षुद्र राजनीति के मुकाम पर लोगों को अलहदा करने के लिए बाजीगर तैयार बैठे हैं। राजनीतिक स्वार्थों के तवे को गर्म करके अपनी रोटियां सेंकने की तैयारी में सब हैं। किसान आंदोलन ने जो रूप दिखाया, वह किसी भी सभ्य, शालीन और लोकतांत्रिक समाज के लिए भयानक और शर्मनाक ही कहा जाएगा।
किसान आन्दोलन एक मुद्दा नहीं, विडम्बना एवं दुर्भाग्य प्रतीत होने लगा था क्योंकि दिल्ली के बॉर्डरों पर राष्ट्रीय मार्गों को अवरूद्ध करके भी शांतिपूर्ण ढंग से बैठकर सरकार से बातचीत करते किसानों के बीच कुछ असामाजिक और अराष्ट्रीय तत्वों के घुस आने की बात स्पष्ट होने लगी थी, लेकिन ऐसे तत्व पूरे आंदोलन को ही इस तरह हाइजैक कर लेंगे, इसका किसी को अंदाजा नहीं था। इस भरोसे की एक वजह यह भी थी कि किसान आंदोलन का नेतृत्व लगातार सार्वजनिक रूप से यह कहता आ रहा था कि सब कुछ उसके नियंत्रण में है और कोई अप्रिय घटना किसी भी स्थिति में नहीं घटित होने दी जाएगी। लेकिन अनेक दौर की बातचीत, सरकार का लम्बे समय तक कृषि कानूनों को निस्तेज करने के आश्वासन के बावजूद किसी निर्णायक मोड़ पर किसान आन्दोलन का न पहुंचना स्पष्ट दर्शा रहा था कि इस आन्दोलन की कमान किसानों को हाथों में न होकर अराजक एवं राष्ट्र-विरोधी ताकतों के हाथ में हैं।
मैंने गणतंत्र दिवस पर टीवी चैनलों पर दिन भर की गतिविधियां देखीं और एक बात तो बिना किसी हिचक के कह सकता हूं कि अराजकता एवं हिंसा की घटनाएं किसान नेतृत्व के साथ-साथ स्तरहीन एवं विघटनकारी राजनीतिक नेतृत्व की मंशाओं का ही बखान कर रही थीं। मुझे लगता है कि इस तरह का दयनीय प्रदर्शन दिल्ली में सिर्फ 1984 के सिख विरोधी दंगों में दिखायी दिया था। फर्क इतना है कि उस समय सिख समुदाय राजनीतिक हिंसा का शिकार हुए थे और इस बार सिख देश की एकता एवं अखण्डता को नुकसान पहुंचाने के लिये हिंसा पर उतरे थे। बैरिकेड तोड़कर ट्रैक्टर शहर के अंदर आईटीओ तक आ गए। निहंग घोड़ों पर एवं पैदल चलते हुए हथियार लेकर खतरनाक ढंग से आतंक फैला रहे थे। ट्रैक्टर से बसों को नुकसान पहुंचाया गया तो पुलिस-अधिकारियों पर ट्रैक्टर चढ़ाने की कोशिश हुई, जमकर पत्थरबाजी हुई। जहां से हिंसा की शुरुआत हुई और बाद में जहां-जहां अराजकता दिखी, कहीं भी जिम्मेदार किसान एवं राजनीतिक नेतृत्व के दर्शन नहीं हुए। राष्ट्र को सही दिशा देने वाले दूरदर्शी नेताओं का अभाव चहुंओर पसरा था।  
पिछले दो महीनों से दिल्ली की जनता इस किसान आन्दोलन के कारण जिस तरह की समस्याओं से जूझ रही है, वह लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिये चिन्ताजनक है। किसानों के 40 से अधिक संगठन इस आंदोलन में शरीक हैं। इन सबका अलग-अलग एजेंडा रहा है और किसी एक फैसले पर उनका पहुंचना लगभग असंभव था। असंभव इसलिये भी था कि इस आन्दोलन मेें देश को तोडऩे एवं बांटने के तार अधिक जुड़े थे। शायद बहुत अधिक बिखरावमूलक राजनीतिक हस्तक्षेप ने इस बल को इस लायक नहीं छोड़ा है कि वह कोई किसान हितों का फैसला कर सके। सुप्रीम कोर्ट ने रैली निकालने या न निकालने की बात पुलिस के विवेक पर छोड़ दी थी, ऐसी स्थिति में उसके सामने विकट स्थिति पैदा कर दी थी। यदि वह रैली की इजाजत न देती, तो उसे अलोकतांत्रिक रवैया अपनाने का दोषी ठहराया जाता और इजाजत देते समय उसने जिनकी गारंटी ली, उन सभी गारंटियों कीे प्रदर्शनकारियों ने धज्जियां उडाई, तय मार्ग का उल्लंघन किया, जमकर हिंसा एवं हिंसक प्रदर्शन किया, राष्ट्रीय सम्पत्ति को भारी नुकसान पहुंचाया, पुलिसवालों को चैट पहुंचाई, लगभग चार दर्जन पुलिसवालों को घायल किया। यह लम्बे बहस का विषय है कि किसानों की मांगें सही हैं या सरकार का रुख ठीक है, लेकिन सच यही है कि पुलिस-बल ने  कल संयम एवं अनुशासन का पूरा परिचय दिया। अन्यथा प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिये पुलिस बल यदि हिंसा का प्रयोग करती तो कल का दिन दिल्ली को लहूलुहान कर देता।
किसान नेताओं द्वारा दिल्ली पुलिस से किए गए वायदे के मुताबिक 12 बजे रैली शुरू करने के बजाय किसानों ने आठ बजे ही पुलिस बैरिकेडिंग तोड़ कर अपने ट्रैक्टर सेंट्रल दिल्ली की तरफ दौड़ा दिए। वे चाहते थे कि राजमार्ग पर आयोज्य गणतंत्र दिवस समारोह इससे बाधित एवं प्रभावित हो। किसी तरह पुलिस ने ऐसा नहीं होने दिया, फिर भी पुलिस द्वारा उन्हें रोकने की सारी कोशिशें नाकाम होती गईं और नियम-कानून, मान-मर्यादा, अनुशासन की धज्जियां उड़ाते हुए उपद्रवियों की अराजक, हिंसक एवं उपद्रवी भीड़ राजधानी में उत्पात मचाती रही। और तो और, कुछ उपद्रवियों ने लाल किले में घुसकर वहां अपने संगठन का झंडा फहरा दिया एवं सम्पूर्ण लालकिले को घेर लिया। इन राष्ट्रीय अपमान और पीड़ा के दृश्यों ने राष्ट्रीय गर्व एवं गौरव के दिवस की जमकर अवमानना की है। भले ही बाद में संयुक्त किसान मोर्चे ने बयान जारी करके पूरे मामले पर लीपापोती करने की कोशिश की। उसका दावा है कि कार्यक्रम लगभग शांतिपूर्ण रहा। सिर्फ पांच फीसदी लोग ही लालकिले और आईटीओ की तरफ गए और उनमें से कुछेक ने गड़बड़ी फैलाने वाले काम किए। इस बयान का भला क्या मतलब है? हकीकत यही है कि किसान नेतृत्व पूरी तरह नाकाम साबित हुआ है और किसान आन्दोलन का अब तक के संघर्ष की मंशा एवं मानसिकता को उजागर कर दिया है। यह पूरा प्रकरण इसलिए भी अफसोसनाक है क्योंकि इसने देश में एक विश्वसनीय और प्रामाणिक किसान आंदोलन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। अब तो सरकार से यह भी नहीं कहा जा सकता कि किसान आंदोलन के नेताओं से बातचीत की प्रक्रिया को आगे बढ़ाकर मामले का कोई सम्मानजनक हल निकाला जाए। बातचीत होगी भी तो किससे, जब यह साफ हो चुका है कि इन नेताओं की कोई कुछ सुनने वाला ही नहीं! सरकार आखिर भीड़ से तो बात नहीं कर सकती। सरकार राष्ट्र-विरोधी ताकतों से भी कैसे बात कर सकती है। क्या देश की मानवतावादी एवं लोकतांत्रिक शक्तियां इस दिशा में ध्यान देकर राष्ट्रीय जीवन को आहत करने वाली इन अराजक एवं हिंसक स्थितियों को नया मोड़ देने का सम्मिलित प्रयास करेंगी? अन्यथा किसानों की दुहाई, झूठे आश्वासन और लाठी का भय हमारे शहीदों की कुर्बानी से प्राप्त लोकतंत्र को नष्ट करते रहेंगे।