अहमदाबाद। महापुण्य के उदय से मानव को यह मनुष्य जन्म मिला है। मनुष्य जन्म के साथ जैन कुल में जन्म पाना भी एक सौभाग्य की बात है। मानवी जो कुछ भी करता है पहले स्वयं के लिए ही करता है। भूखा है, उसके सामने काने की थाली पीरसी है फटाक से उसे खा लेगा। पहले अपने पेट की सोचता है। पूर्व के काल में पूर्वजों खाने के पहले कुत्ते के लिए रोटी पहले निकालकर रखते थे फिर ही स्वयं खाते थे हमारी भी इस प्रकार की प्रवृत्ति होनी चाहिए। स्वार्थ को गौण करके परमार्थ हमारा लक्ष्य होना चाहिए।
अहमदाबाद में बिराजित प्रखर प्रवचनकार संत मनीषि, प्रसिद्ध जैनाचार्य प.पू. राजयश सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए पूज्यश्री फरमाते है किसी राजा ने एक बार सभी मंत्रियों को भोजन के लिए नियंत्रण दिया। सभी इकट्ठा होकर आए एवं पंक्ति में बैठ गए। राजा ने मंत्रियों को आमने सामने बिठाया। सभी के हाथ बांधकर राजा ने मंत्रियों को आदेश दिया कि वें अपना भोजन अब शुरू कर देवे। सभी मंत्री विचार में पड़ गए। हमारे हाथ बंधे हुए है किस प्रकार से भोजन करेंगे? एक दूसरे का मुंह देखते है थाली सामने पीरसी है परंतु क्या करें? तभी एक बुद्धिशाली मंत्री के मन में विचार आया कि मैं यदि अपनी थाली से सामने वाले के मुख में अन्न डालूं तथा वह व्यक्ति भी अपनी थाली से खाना लेकर यदि मेरे मुख में डाले तो दोनों का पेट भर सकता है इस प्रकार का विचार करके उसने सभी के आगे यह बात रखी तो काम हो गया।
पूज्यश्री फरमाते है स्वार्थ करेंगे तो भूखा मरना पड़ेगा, परमार्थ करेंगे तो अन्य की भलाई के साथ तुम्हारा भी अच्छा होगा। जब भी खाने के लिए बैठों पहले अन्य को खाना पीरसकर फिर ही भोजन करना ैसा नियम जरूर ले लेना। मान लो, आप लोगों के पास 50 जोड़ी कपड़ों की है।
आप एक साथ कितनी जोड़ी पहन सकोंगे? साहेब! एक जोड़ी ही पहन सकते है। यदि आपको बदलनी है तो उसे उतारकर फिर ही आप दूसरा बदल पाओंगे फिर भी आप लोग स्वार्थ को विस्तारने के लिए नये-नये कपड़े खरीदते जाते हो। यदि आप उन पच्चास जोड़ी में से किसी साधर्मिक को एक जोड़ी कपड़ा दोंगे तो आपको परमार्थ का लाभ मिलेगा।
कहते है करोड़पति व्यक्ति भी यदि भोजन के समय भोजन करने बैठता है तो वह एक साथ में एक ही कौर ले पाता है एक साथ में दो नहीं ले सकता है यदि वह बिना रूके एक साथ चार-पांच कौर लेगा तो उसकी हालत बिगड़ जाएगी। स्व. के लिए किया गया उपकार नुकसानकारी है अन्य के लिए किया गया उपकार परमार्थ है।
एक बार जगडुसाह गुरू महाराज को वंदन करने गए। योग्य व्यक्ति जानकर गुरू महाराजा ने जगडुशाह को कहा तीन वर्ष तक दुष्काल पडऩे वाला है अनाज देखने को नहीं मिलेगा जो करना है सो कर लेना। जगडुसाह अपनी बुद्धि से अनाज के कोठार से उसने गरीबों में दान की गंगा बहाई। आज भी इतिहास के पन्नों पर जगडुशाह का नाम आता है। अनाज को इकट्ठा करके रखा था वे चाहते तो डबल पैसों में अनाज को बेचकर धन कमा सकते है लेकिन उन्होंने इस तरह से स्वार्थ वृत्ति नहीं की बल्कि इकट्ठे किए हुए अनाज को लोगों से बांटकर परमार्थ वृत्ति अपनाई।
आज भी लोग स्वार्थीयों को याद नहीं करते है परमार्थियों के नाम ही गाए जाते है। आपके पास पांच लाख है तो पांच हजार रुपये किसी के काम आए उसमें खर्चों। पूज्यश्री फरमाते है रोज का आपको एक नियम होना चाहिए कि किसी का भी परमार्थ करूं। पैसा है तो पैसों से वरना, किसी को शिक्षण देकर, किसी की सेवा करके, मां बाप को कभी भी तकलीफ न देकर बस मोक्ष का लक्ष्य ध्यान में रखकर परमार्थ करके शीघ्र आत्मा से परमात्मा बनें।
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