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संदीप सिंह सिसोदिया 
2020, इस साल ने हमें पूरी एक सदी का सबक दे दिया, हमने समझा कि प्रकृति का महत्व क्या है, इस बरस हमने सही मायनों में जान की कीमत को समझा। हमने जाना कि अपनों को खोने का दर्द क्या होता है और अपनों के करीब होने का सुख क्या होता है। लेकिन यह सारा अनुभव तभी संभव है, जब तक हम जिंदा हैं।
हमारे नहीं होने के बाद यह नजरिया किसी काम का नहीं। सारे सिद्धांत, नियम, अनुभव और न्यू नॉर्मल तब ही लागू होते हैं जब तक हम जिंदा हैं। मौत के उस तरफ कोई दुनिया नहीं होती। होती भी होगी तो उसे जानने के लिए हमें मरकर उस तरफ जाना होगा, लेकिन वापस आकर बता भी नहीं सकते कि उस तरफ क्या है। इसलिए दुनिया तभी है जब आप जीवित हैं। शायद इसीलिए कहा जाता है कि जान है तो जहान है।
लेकिन, जिस साल 2020 में हमने जान की कीमत को सबसे ज्यादा जाना और महसूस किया, उसी साल में हमने अपनी और दूसरों की जान से खिलवाड़ करने की सबसे ज्यादा लापरवाहियां भी की हैं। जब पहली बार लॉकडाउन लगा तो हमारी दुनिया पूरी तरह से बदल चुकी थी, तब हमने सोचा कि अब शायद हम लाइफ के बेसिक की तरफ लौटेंगे, हमारा एक 'नॉर्मलÓ होगा जिसे हम 'न्यू नॉर्मलÓ कहेंगे।
यह सिर्फ एक भ्रम था, हमने दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदी से भी कोई सबक नहीं सीखा। कुछ ही महीनों में हम वापस अपने पुराने ढर्रे पर लौट आए, जैसे हमें इस भयावह त्रासदी से कोई फर्क ही न पड़ा हो।
हम अपने ही अनुभवों की बात करें तो मीडिया में रहते हुए हमने वायरस के दौर में लापरवाहियां नहीं करने की खबरें बनाईं, पाठकों को सतर्कता बरतने के पाठ पढाए, विशेषज्ञ डॉक्टरों के माध्यम से लोगों को सबक सिखाए कि कैसे सुरक्षित रहना है, कैसे स्वस्थ जीना है, लेकिन दुखद यह रहा कि यह करते-करते हम खुद ही इसका शिकार हो गए।
इस त्रासदी में हर एक ने कुछ न कुछ खोया है, खुद वेबदुनिया परिवार ने अपने एक वरिष्ठ साथी को खो दिया। इस संस्थान के कई सदस्यों में से किसी ने अपनी मां को हमेशा के लिए खो दिया तो किसी ने अपने दोस्त को।
इस अदृश्य संक्रमण की सबसे जहरीली अज्ञात बूंद ने हम सब को छुआ और कुछ को हमेशा के लिए निस्तेज कर दिया, इस अनदेखे दुश्मन ने दुनिया के सारे कायदे तोड़ दिए, सारी असामनताएं खत्म कर दीं। इस संक्रमण की नजर में कोई छोटा-बड़ा, अमीर और गरीब नहीं था, इसने किसी तरह की जात-पात, ऊंच-नीच और कोई हैसियत नहीं देखी।
लेकिन, हमने इतने बड़े सबक को बहुत बड़ी लापरवाही के साथ एक क्षण में झुठला दिया। हमने सोचा कि दूसरे को यह वायरस डसेगा, बस हमें नहीं डसेगा। दुनिया की सबसे भयावह त्रासदी में मानव की यह सबसे बड़ी भूल थी। इसे आने वाले कई दशकों तक याद रखा जाएगा। हम अब भी अपनो को खो रहे हैं, खोते जा रहे हैं लगातार। लेकिन हमने अब भी इस तरफ से अपनी आंखें मूंद रखी हैं। ...और यह सब हो रहा है हमारी खुद की लापरवाहियों की वजह से। यह तब से हो रहा था, जब हम बेहद शुरुआती दौर में इटली और स्पेन में शवों को दफनाने की कतारें तस्वीरों में देख चुके थे।
हम देख चुके थे कि किस तरह से दुनिया ने करवट लेकर जीने के सिद्धांत को ही बदल दिया था, सांस लेने के तरीके को ही बदल दिया। हमें बस इतना भर करना था कि अपनी सांसों को एक छह इंच के कपड़े में छुपाकर महफूज रखना था, जहां वायरस घात लगाकर बैठा है, उससे दो गज की दूरी रखना था, लेकिन हम छह इंच और दो गज भर जितना काम भी नहीं कर पाए, वो भी अपने जिंदा रहने के लिए, अपनों को सुरक्षित रखने के लिए।
दरअसल, इस वायरस से लडऩे के लिए 'हमारी रणनीतिÓ उसी दिन तय हो गई थी, जब हमने अपने घरों की छतों पर खड़े होकर थालियां बजाई थीं, सड़कों पर जुलूस बनाकर ढोल पीटते हुए, चिकित्साकर्मियों पर थूकते और पत्थर बरसाकर आधुनिक भारत में अपने 'आदिमÓ होने के प्रमाण दिए थे। उसके बाद चुनावी रैलियों, उत्सवों की आड़ में उमड़ती भीड़ को देखकर लगता है कि शायद अब तक हम इस वायरस से लडऩे के काबिल नहीं हो सके हैं, तभी वायरस के एक नए स्ट्रेन ने एक बार फिर से पलटकर वार किया है, डर है कि अब उसकी इस चाल में भी कहीं हम फिर से मात न खा बैठें।
कहते हैं कि उम्मीद पर दुनिया टिकी है, तमाम तकलीफों के बाद हम नए साल से उम्मीद पाले बैठे हुए हैं कि एक आंकड़ा बदलेगा और सबकुछ ठीक हो जाएगा। 2020 खत्म होगा और 2021 में हमें सारी तकलीफों से निजात मिल जाएगी।
लेकिन सच तो यही है कि 2020 के खत्म होने के साथ महामारी भी चली जाएगी वाली जो खुशी मिल रही है, वो फिलहाल सिर्फ एक उम्मीद है, हकीकत नहीं। किसी भी लड़ाई को जीतने के लिए जज्बे के साथ हकीकत पता होना भी जरूरी है, गुजरे साल का खत्म होना और नए साल का आना कैलेंडर पर महज तारीख बदलना है, अभी भी दुनिया के बहुत से हिस्सों में लॉकडाउन लगा हुआ है, लाखों लोग अभी भी इसकी चपेट में हैं।
कोरोना वायरस से हमें अपनी लड़ाई जारी रखनी होगी। हमें आज, कल और हर वक्त लडऩा होगा, कोई तारीख देखे बगैर। हम उसी के साथ नए वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। यह ठीक वैसा ही है कि हम अंधेरे में डूबे किसी घर के एक कमरे से दूसरे कमरे में प्रवेश कर रहे हैं।
हालांकि यह उम्मीद बरकरार है कि जब रोशनी लौटेगी तो पूरा घर जगमगा उठेगा। लेकिन अब यह निर्भर करता है हमारे जीने के नए तरीके पर, हम कितने पुरजोर तरीके से इस वायरस से लड़कर, हराकर फिर से इस खूबसूरत दुनिया को 'बैक टू नॉर्मलÓ बना पाते हैं। क्योंकि अभी सिर्फ साल खत्म हुआ है कोरोना वायरस नहीं।